Tuesday 29 March 2022

हाय रे शब्दबाण


जीवन के शुरुआती शिक्षापरक तत्वों में एक पृष्ठ था, जिसमें एक पागल व्यक्ति उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था। नीचे कुछ विद्वान पुरुष थे जो राजा विक्रमादित्य की कन्या राजकुमारी विद्योत्तमा से अपने विवाह हेतु शास्त्रार्थ करने गए थे और हारकर वापिस आए थे। विद्योत्तमा से बदला लेने हेतु उन्हें यह मूर्ख व्यक्ति उचित लगता है । बड़ी चालाकी से पुरुष विद्वान शास्त्रार्थ में उस पागल व्यक्ति को विजित करवाते हुए राजकुमारी से उसका विवाह करवा देते हैं। अंततोगत्वा विद्योत्तमा  के तिरस्कार से वो पागल व्यक्ति अपने सामाजिक जीवन में संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान बन जाता है। इस कहानी में भी विद्योत्तमा के शब्दबाणों ने विद्वानों को बदले की भावना से ग्रसित किया और विद्योत्तमा के ही शब्दबाणों से कालिदास का निर्माण हुआ। ऐसे ही तुलसीदास की कथा पढ़ी।  ऐसे ही कई लोग इन शब्दबाणों से घायल होकर प्रतिष्ठित हुए। 


शब्दबाण इसी ब्रह्माण्ड के भीतर चलते हैं। शब्दबाण की तीव्रता हृदयविदारक होती है। दिमाग़ का वो हिस्सा जो इंसान होने के कारण सूझ-बूझ का परिचायक है, वही हमें बार -बार संबल देकर उठाता है। शब्दबाण अनायास निकले या फिर जानबूझकर , सामने वाले के लिए बस महसूस करना आवश्यक होता है। चापलूसी या स्वार्थी प्रवृत्ति के लोग इसे अभ्यास में लेते हैं, इसलिए शब्दबाणों को अनुभूत करने में कमोबेश असक्षम ही होते हैं। वाणी में कठोरता होना और शब्दबाणों से भेदना दो भिन्न बातें हैं। कठोर वाणी , कटु वाणी सत्य हो सकती है और मृदु वाणी आपका झूठे अस्तित्व का गुणगान कर सकती है। हालाँकि मनुष्यता के आधारों में मृदु वाणी को औषधि का पर्याय ही माना गया है। मनुष्य के दिमागी तंतुओं की विहंगमता यह भली-भाँति समझ गयी है कि कहाँ-कहाँ मृदु बोलना चाहिए और कहाँ नहीं। बहुत सूक्ष्म तरीके के इस तत्व ने मृदुता को चापलूसी तक सीमित कर दिया है। आखिर 'डिप्लोमेसी' व 'स्वार्थ' जैसे शब्द भी तो अपना प्रभाव रखते हैं।


मैं बचपन से ध्रुव तारे को आसमान में ढूंढती हूँ। उसका अटल होना मुझे प्रभावित करता है। मेरी खोज इतनी कमज़ोर है कि आज तक उत्तर -दिशा में उसे दावे के साथ  स्थापित नहीं कर सकी। बचपन में मैंने ध्रुव की कहानी को सत्य माना था। मुझे लगता है कि राजा उत्तानपाद की गोद से यदि रानी सुरुचि ने ध्रुव को उतारा न होता तो ध्रुव का जन्म ही न होता। रानी सुरुचि के ईर्ष्या में डूबे शब्दबाणों ने उसका कायाकल्प कर दिया। धन्य है वो तारा, जिसका नामकरण ऐसे बच्चे के नाम हुआ। लेकिन दयनीय है वह बालक जो तिरस्कार देखकर भी विचलित नहीं हुआ।


यद्यपि मनुष्य के मूलरूपी स्वभाव में स्वार्थ की गहरी पैठ है। अधिकांश लोग स्वार्थपरक रहकर पूर्ण जीवन गुजार देते हैं ,जिस कारण वह शब्दबाणों की भेदन क्षमता से नहीं बिधते । शब्दबाणों से प्रभावित होने वाले मस्तिष्क भी इसी समाज का हिस्सा हैं।  शब्दबाण भावनात्मक रूप से कमज़ोर लोगों को प्रभावित कर सकते हैं। मनुष्य होने का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण संवेदना है । संवेदना से ही मनुष्य में प्रेम ,घृणा आदि भावों का निर्माण होता है। संवेदनहीनता भौतिक जगत की वस्तु है और भौतिक संपन्नता मनुष्यता के गुणों को लील लेती है।


संवेदना और शब्दबाण के भिज्ञ व्यक्ति संसारपरक भौतिकता से विलग रहते हैं। संवेदनशील व्यक्ति शब्दबाणों का प्रतिकार भिन्न स्वरूप में ले सकता है। इसकी सबसे सुंदर कल्पना सृजन है चाहे वह सामाजिक स्तर पर हो या स्वयं के स्तर पर। अनुभव की तिजौरी भरने के लिए जीवन में नैसर्गिक तत्वों के मृदु व कटु दोनों  गुणों की आवश्यकता है। 


यद्यपि मेरा जन्म 1945 में नहीं हुआ था किंतु जापान में परमाणु बम से दहकते शहरों के विकिरण से मेरी हड्डियों में आज भी गलन महसूस होती है। मैं यदि ज़िंदा भी महसूस करूँ तो इतनी तपिश लगती है कि मेरे सिर पर कीलों जैसी सरंचनाएँ उभरती हैं ..... मेरी खाल के छिलके मांस के साथ उतरते हैं या फिर मेरी लम्बाई स्थिर हो जाती है और जेनेटिक ढाँचे बदलते जाते हैं....खत्म हो जाती है जिंदगी की तमन्ना, ख्वाहिशें। फिर भी राख से अलग कुछ बचता है तो वो है 'मन'। मन जो वास्तविक रूप में दिमाग़ की मानवीय संवेदना को जीवित करता है, जिससे दुनिया में इंसानियत जिंदा रहती है वो मन ही तो है जो हमें ऐसे विध्वंस से बचाता है। हिरोशिमा, नागासाकी से दहकता जापान आज तकनीकी दुनिया में अग्रणी है। मन की संवेदनाएं है तो व्यक्ति किसी प्रभुत्वसंपन्न देश प्रमुख के शब्दबाणों को अपने देश के वैश्विक उत्थान में परिवर्तित कर सकता है एवं देशप्रेम के नए कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। जापान व कालिदास अलग संज्ञारूप होने के बावजूद एक परिभाषा के भिन्न स्वरूप हैं।