Sunday 21 June 2020

इस्लाम व मुस्लिम समाज में स्त्री का अस्तित्व

'स्त्री' एक ऐसा शब्द है जिसकी अवस्थिति व उसके प्रति सोच हर समाज में कमोबेश एक सी ही रही। धरती के किसी भी मानवनिर्मित पंथ आज तक स्त्री समानता के कठोर मापदंड नहीं बना सका है और यदि कहीं अभिलिखित भी हों तो समाज का पुरुषार्थ उसका दमन कर देता है। 'स्त्री' की  स्थिति प्रत्येक समाज में एक 'जेंडर' की है, जिसे मात्र आरक्षण आधार पर मुख्यधारा में लाने का श्रीघोष करने मात्र से इतिश्री कर दी जाती है। 'स्त्री' शब्द बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समाज में भी कोई विशेष स्थान नहीं बना पाया। समाज के नीति नियंता आज की इक्कीसवीं सदी में भी 'चित्रगुप्त' नामक पुरुष की कलम लेकर 'स्त्री' भाग्य लिखने को आतुर हैं। 

प्राचीन समाज का काल लगभग एक ही चेतना के गलियारों से गुज़रा। पशुवत जीवन के उपरांत सभ्यता की नींव पड़ती गयी। इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ने भी क़ुरआन में स्त्री के अधिकारों की वकालत की और उस दौर में एक विधवा स्त्री से उनका विवाह भी हुआ। ये उस वक्त के तथ्य हैं जब भारत में मिताक्षरा व दायभाग के जुए को स्त्री के कांधे पर लादा गया था। सती प्रथा ढोल नगाड़ों से अभिमण्डित हो रही थी। जौहर में प्राण धधक रहे थे। चेतना का प्रवाह धीरे धीरे होता है। क़ुरआन के बारे में मुहम्मद साहब स्वयं हदीस लिख जाते तो शायद इस पर पूर्ण जानकारी संभव थी। कट्टरपंथियों द्वारा प्रत्येक धर्म में 'श्रेष्ठ' की उपाधि को प्राप्त किये जाने का प्रयास किया जाता है। किन्तु किसी भी धर्म में स्त्री को इंसान के रूप में दर्शाते हुए व्याख्यायित नहीं किया गया। 

-------------------------

कबीलाई समाज के दौर में वर्चस्ववादी लड़ाईयां आम बातें हुआ करती थी जिसमें कई पुरुष मारे जाते और हज़ारों की संख्या में स्त्रियाँ व बच्चे यतीम हो जाते। भारत में तो ऐसी अवस्थाओं का निराकरण सती या जौहर प्रथाओं में निकाल लिया गया था। किंतु यदि तत्समय स्त्री की लावारिस अवस्था को देखा जाए तो एक पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्री से विवाह या निक़ाह उसके प्राण के बचने के लिहाज़ से प्रासंगिक था। हमारे समाज में स्त्री बड़ी संख्या में आज भी पुरुषों पर आश्रित है। उस दौर में तो और भी बुरा हाल रहा होगा। बहुविवाह के ज़रिए स्त्रियों को एक आसरा मिल जाता था, जो कि उस दौर में स्त्री जीवन की सबसे बड़ी ज़रूरत थी।

मुस्लिम समुदाय में विवाह को निक़ाह कहा जाता है । भारतीय संविधान में अनुछेद 44 समान नागरिक सिविल संहिता के पक्ष में खड़ा है किंतु आज तक भारत में अलग अलग धर्मो हेतु अलग-अलग सिविल कोड है। जिस कारण कहीं न कहीं तमाम सिविल कोड स्त्री को न्याय की परिधि में खड़ा नहीं करते। संविधान में हिन्दू स्त्री के अधिकार लिख देने के बाद भी समाज उसे कोई अधिकार नहीं देता क्योंकि ये तो हमारे समाज के जेनेटिक ढाँचे का आवश्यक तत्व है कि स्त्री पिता, पति, बेटे से अधिकार स्वरूप कुछ प्राप्त नहीं कर पाती। कुछ स्त्रियाँ यदि न्यायालय के द्वार पर अधिकार मांगने खड़ी हो तो भी समाज की आँखों की किरकिरी बन जाती हैं। जन्म के समय पर हो चुके इस लिंगात्मक भेदभाव ने स्त्री पक्ष को प्रभावित किया है। 

------------------------------

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 अंतर्गत "कानून के समक्ष समता एवं कानून के समान संरक्षण" को पारिभाषित किया गया है। चूँकि मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत (मुहम्मद साहब के कुरान के प्रावधान) 
पर आधारित है। मुस्लिम शादी, तलाक़,विरासत, बच्चों की कस्टडी आदि "कानून के समान संरक्षण के अनुसार मुस्लिम पर्सनल लॉ के अधीन आते हैं। इसकी स्थापना वर्ष 1937 में की गई। इस्लामिक लॉ की चार संस्थाएं हैं, जो कि कुरान की आयतों और इस्लामिक समाज के नियमों की अलग-अलग तरह से व्याख्या करते हैं। चार संस्थाएं ( इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम शाफ़ई, इमाम हंबल, इमाम मालिक) चार अलग-अलग सदियों में विकसित हुई। मुस्लिम देशों ने अपने मुताबिक इन संस्थाओं के कानूनों को अपनाया।

 मुस्लिम समुदाय में शिया व सुन्नी हेतु विवाह (निक़ाह)के कुछ प्रावधान भिन्न हैं। मुस्लिम विवाह(निक़ाह) मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) के तहत होता है । मुस्लिम विवाह में एक पक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है और दूसरा उसे स्वीकार करता है जिन्हें क्रमशः इजब व कबूल कहते हैं। यह  स्वीकृति लिखित और मौखिक दोनों प्रकार की हो सकती है । भारत में मुस्लिम धर्म के दो समुदाय प्रमुख हैं शिया एवं सुन्नी। ये तीन समूहों में विभाजित हैं। अशरफ (सैयद, शेख, पठान आदि), अजलब (मोमिन, मंसूर, इब्राहिम आदि) और अरजल (हलालखोर) ये सभी समूह अंतर्विवाही माने जाते है तथा इनके बीच बर्हिर्विवाह को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता।

---------------------------

मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार मुस्लिम विवाह में चार भागीदारों का होना आवश्यक है :-
क) दूल्हा
ख) दुल्हन
ग) काजी
घ) गवाह (दो पुरुष या चार स्त्री गवाह) जो निक़ाह के साक्षी होते हैं। दूल्हा तथा दुल्हन को क़ाज़ी औपचारिक रूप से पूछता है कि वे इस निक़ाह के लिए स्वेच्छा से राजी है या नहीं। यदि वे इस निक़ाह के लिए स्वेच्छा से राजी होने की औपचारिक घोषणा करते हैं तो निक़ाहनामा पर समझौते की प्रक्रिया पूरी की जाती है। इस निक़ाहनामे में 'मेहर' की रकम शामिल होती है जिसे विवाह के समय या बाद में दूल्हा-दुल्हन को देता है। #मेहर एक प्रकार का स्त्री-धन है। भारत में हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों समुदायों में विवाह दुल्हन के घर पर ही करने की प्रथा है। एक स्थान के हिन्दुओं तथा मुसलमानों में कई प्रथाएँ समान रूप से मानी जाती हैं। जैसे केरल के मोपला मुसलमानों में 'कल्याणम' नामक हिन्दू कर्मकाण्ड पारंपरिक निक़ाह का आवश्यक अंग माना जाता है।(हालाँकि कल्याणम प्रथा सऊदी से दख्खिन आने वाले व्यापारी/ सौदागर द्वारा अधिक प्रचलन में लायी गयी। अपने दख्खिन प्रवास के दौरान यहाँ की स्थानिक स्त्री से इस निक़ाह के नाम पर व्यभिचार किया जाता था फिर वापिस अपने देश जाने पर उस स्त्री को तलाक दे दिया जाता था) चचेरे भाई बहनों का विवाह मुसलमानों में पसंदीदा विवाह माना जाता है। पुनर्विवाह मुस्लिम समुदाय में स्वीकार्य है। मुसलमानों में दो प्रकार के विवाह की अवधारणा है। 'सही' या नियमित विवाह तथा 'फसीद' या अनियमित विवाह। अनियमित विवाह निम्नलिखित स्थितियों में हो सकता है :

1.यदि प्रस्ताव या स्वीकृति के समय गवाह अनुपस्थित हो,
2.एक पुरुष का पांचवाँ विवाह
3.एक स्त्री का 'इद्दत' की अवधि में किया गया विवाह।
4.पति और पत्नी के धर्म में अंतर होने पर।

1. सुन्नी समुदाय में निक़ाह
================
हनीफी विचारधारा के मुताबिक सुन्नी मुस्लिमों में दो मुसलमान गवाहों (महिलाएं भी मान्य) की मौजूदगी में होना जरुरी है । मुस्लिम विवाह की वैधता के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है । कोई पुरुष अथवा महिला 15 वर्ष की उम्र होने पर विवाह कर सकते हैं ।15 साल से कम उम्र का पुरुष या महिला निक़ाह नहीं कर सकते हैं।हालांकि उसका अभिभावक (पिता या दादा अथवा पिता का रिश्तेदार, ऐसा संभव नहीं होने पर मां या मां के पक्ष का रिश्तेदार) उसकी शादी करा सकता है । लेकिन बाल विवाह होने की वजह से यह कानूनी रुप से दंडनीय है। लड़की का निकाह यदि 15 साल से कम उम्र में उसके पिता अथवा दादा के अलावा अन्य किसी ने कराया हो तो वह उस निक़ाह से इनकार कर सकती है।
 
नोट-अवयस्क मुस्लिम लड़कियों के विवाह के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि उक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि रजस्वला होने पर 15 वर्ष की उम्र में मुस्लिम लड़की विवाह कर सकती है. इस तरह का विवाह निष्प्रभावी नहीं होगा. बहरहाल, उसके वयस्क होने अर्थात् 18 वर्ष की होने पर उसके पास इस विवाह को गैरकानूनी मानने का विकल्प भी है

सुन्नी पुरुष का दूसरे धर्म की महिला से विवाह पर पाबंदी है । लेकिन सु्न्नी पुरुष यहूदी अथवा ईसाई महिला से विवाह कर सकता है । मुसलमान महिला गैर मुसलमान से विवाह नहीं कर सकती । 

2. शिया समुदाय में निक़ाह
================

 वर्जित नजदीकी रिश्तों में निकाह नहीं हो सकता है । मुस्लिम पुरुष अपनी मां या दादी, अपनी बेटी या पोती,अपनी बहन,अपनी भांजी,भतीजी या भाई अथवा पोती या नातिन से,अपनी बुआ या चाची या पिता की बुआ चाची से , मुंह बोली मां या बेटी से , अपनी पत्नी के पूर्वज या वंश से शादी नहीं कर सकता है । कुछ शर्तें पूरी नहीं होने पर मुस्लिम विवाह अनियमित माना जाता है । इसे बाद में नियमित अथवा समाप्त किया जा सकता है पर यह अपने आप रद्द नहीं होता है ।

शिया मुसलमान गैर- मुस्लिम महिला से अस्थाई ढंग से विवाह कर सकता है । जिसे मुताह कहते हैं । शिया महिला गैर मुसलमान पुरुष से किसी भी ढंग से विवाह नहीं कर सकती है ।

3. संवैधानिक प्रावधान-
=============
1. स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 के तहत मुसलमान व गैर मुसलमान में विवाह हो सकता है । एक मुसलमान की चार पत्नियां हो सकती हैं । यह कानूनन स्थिति है। साथ ही धार्मिक आदेश है कि पति को सभी पत्नियों के साथ एक सा व्यवहार करना होगा और यदि यह संभव नहीं है तो उसे एक से अधिक पत्नी नहीं रखनी चाहिए।मुसलमान महिला के एक से अधिक पति नहीं हो सकते हैं ।
2. चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेन एक्ट 1929 के अंतर्गत 21 वर्ष से कम आयु के लड़के तथा 18 वर्ष से कम आयु की लड़की का विवाह संपन्न कराना अपराध है , इस निषेध के भंग होने का विवाह की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं है।

-----------------------------

 उपरोक्त के अतिरिक्त यह ध्यान देने योग्य बात है कि कबीलाई समाज के दौर में पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्रियों के साथ किया गया विवाह बेसहारा स्त्री व बच्चे को अपनाने का प्रयोजन मात्र था जो कालांतर में पुरुष के लिए सेक्स कामना पूर्ति के साधन बनता गया। मानव चिंतन स्त्री विषय पर कभी नहीं सोच सका वरना आज तक किसी सबल स्त्री के लिए शरीयत में अधिक विवाह का प्रावधान क्यों नहीं किया जा सका? या फिर पुरुष के अधिक विवाह के प्रावधान क्यों नहीं हटाए जा सके? ये हमारे समाज का दृष्टिकोण है जिसने स्त्री पुरुष के मध्य एक खाई बनाई हुई है .... जो एक दूसरे से इक्कीसवीं सदी में भी वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ये परिवर्तन धीरे धीरे होते हैं धर्म के ठेकेदार अपनी सुविधा के अनुसार इसे व्याख्यित करते रहे हैं। ये व्याख्यारूपी कोपलें पुरुष तैयार करता है व स्त्री के दिमाग़ में रूप देता है। ये कोपलें फसलें बनती हैं फिर अपने आप बीज बनते हैं बिखरते हैं .....पैदावार इतनी हो जाती है कि पुरुष की लगाई एक कोंपल कोई नहीं देख पाता। हालाँकि प्रगतिशीलता की दिशा में देखा जाए तो क़ुरआन की इजाज़त के बावजूद तुर्की, अज़रबेजान व ट्यूनीशिया जैसे मुल्कों में एक से ज़्यादा शादियों की कानूनन मनाही है। ईरान, पाकिस्तान और मलेशिया जैसे देशों में भी कमोबेश ऐसे प्रावधान किए गए हैं। भारत समेत कुछ देशों में, स्त्रियों के पास अपने निकाहनामे में पुरुष के दूसरी शादी न करने का प्रावधान रखने का विकल्प रहता है हालांकि ये व्यवहार में नहीं दिखाई देता।

विवाह का उद्देश्य विभिन्न धर्मों या परंपराओं में संतान उत्पत्ति रहा है। विवाह का स्वरूप अवश्य पुरोहित/ मौलवी वर्ग ने परिभाषित किए । सात जन्मों का बंधन हो या कॉन्ट्रैक्ट विवाह। स्त्री की भूमिका वस्तु से अधिक नहीं दिखती ।स्त्री की वस्तुपरक भूमिका का ही परिणाम है 'हलाला प्रथा' । मैंने जब 'निक़ाह' फ़िल्म देखी तो मुझे हलाला के बारे में प्रथम जानकारी प्राप्त हुई। फ़िल्म में भी इसे स्वीकारोक्ति के स्वरूप में बताया गया किन्तु इन सब उच्चकोटि के दृष्टिकोण में स्त्री की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ती।


-----------------------क्रमशः

Tuesday 9 June 2020

2. पौराणिक आधारों में स्त्री का अस्तित्व / सीमा बंगवाल


क्रमशः.....….
===============

विवाह के संस्थागत रूप में मात्र कर्तव्य ही समाहित होते गए व व्यक्ति द्वारा परिवार नामक संस्था को मानते हुए समाज में अपने अस्तित्व को स्थापित किया गया। फिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता समाज में निंदनीय ही रही इसीलिए विवाह के अस्तित्व को धारण करना आज भी एक आवश्यक मापदंड बना हुआ है। 'नैतिकता' नामक शब्द सिर्फ़ समाज के दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा का विषय है। विवाह बंधन की नैतिकता मात्र वैध संतानों तक सीमित रही है। यह विवाह एवं स्त्री के प्रति घरेलू दुर्व्यवहार का दुरूह परिणाम है कि 'लिव इन रिलेशन' को ज्यादा स्वीकार्य माना जा रहा है जहाँ कर्तव्य, बंधन जैसी बातें गौण हैं। मेरे विचार से वैवाहिक कर्मकाण्ड व लिव इन रिलेशन में सर्वप्रथम है 'मानसिक विवेचन'। हकीकत की ज़मीन पर हर व्यक्ति एक दूसरे के प्रति ईमानदार नहीं हो पाता....हालाँकि ये ईमानदारी किसी भी रिश्ते के प्रति हो सकती है किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 'विवाह' एक आडम्बर बन चला है, जो मात्र एक परिवार के अस्तित्व में होने का आभास कराने हेतु मानसिक सम्बल है व सामाजिक ढाँचे को पूर्ण करने कवायत और 'लिव इन' की स्वेच्छाचारिता मात्र बंधन मुक्त जीवन को जीने का उपक्रम। वर्तमान में दोनों में कोई साम्य नहीं व दोनों में कोई श्रेष्ठ या उत्तम भी नहीं। इसीलिए किसी भी परंपरा का माने जाने या न माने जाने के अपने अपने गुण व दोष हैं व ये भी नितातं रूप से व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर आधारित है ।

2. दक्षिण भारत में विवाह की प्रासंगिकता
===========================

कई विद्वानों द्वारा दक्खिन भूखण्ड की भौगोलिक अवस्थिति को भारतीय मुख्य भूमि से अलग माना गया है और दक्खिन भूखण्ड के भारतीय मुख्य भूमि में जुड़ने के आधार भी विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए हैं। विश्लेषकों द्वारा भारतीय उत्तर भाग को आर्यों के आगमन व उनके द्वारा मौलिक जातियों के साथ की गई नृशंसता के कारण आर्यों को मौलिक जाति से अलग माना जाता है एवं दक्खिन भाग अनार्य होने का दावा कर भारतभूमि के मौलिक संतति के रूप में स्थापित जाते हैं । 

              यदि हम उपरोक्त वर्णन का संदर्भ न भी लें तो भी दक्षिण भारतीय लोगों को भाषा, श्यामल रंग व परंपराओं आदि के आधार पर विभेदीकृत किया जा सकता है। अब चूंकि यहाँ पर मुख्य विषय विवाह पद्यति का है तो सिर्फ़ विवाह के संबंध में ही कहा जाना श्रेयकर होगा।यदि स्त्री की स्थिति का संज्ञान लिया जाए तो उसकी स्थिति पितृसत्तात्मक नियमों के अधीन लगभग एक सी ही रही है। फिर भी दक्षिण भारतीय समाज में पुरातन काल से मातृसत्तात्मक अंशों का समावेश भी मिलता है।

            भारतीय परंपराओं में गोत्र का अत्यंत महत्व है । गोत्र का शाब्दिक अर्थ है, "गाय से जन्म" । मुख्यतः सात प्रकार के गोत्र माने गए हैं यथा भारद्वाज, विश्वामित्र, कश्यप, वशिष्ठ, अत्रि, जमदाग्नि व गौतम। गोत्र की उत्पत्ति काल्पनिक पूर्वज के आधार पर पशु पक्षी, भेद बकरी आधार को मानते हुए की गई है । गोत्र के बारे में सर्वप्रथम उल्लेख बौद्धायन ग्रंथ में मिलता है। यदि हिंदुओं की बात करें तो गोत्र द्विज वर्णों में पाया जाता है।
भारतीय कई जनजातियों में (राजगोण्ड व बोंडो) गोत्र का दो बराबर भागों में विभाजन पाया जाता है,जिसे अर्द्धांश कहते हैं। इसी प्रकार प्रवर व पिण्ड (एक ही व्यक्ति को सामान्य पूर्वज मानते हुए अर्पण ) को भी परिभाषित किया गया है।

--------------------------------

       गोत्र व्यवस्था संभवतः आर्यों के द्वारा ही प्रतिपादित की गई। वस्तुतः धीरे-धीरे इसका विस्तार भारत राज्य क्षेत्रों में प्रसारित हुआ होगा क्योंकि यदि परंपराओं के स्तर पर देखा जाए तो दक्षिण भारत में कतिपय स्थानों पर एक ही परिवार में विवाह के उद्देश्य से लड़की का आदान- प्रदान होता है । यह संबंधों में एक प्रकार की पुनः सुदृढ़ता का प्रयास मात्र है जो परिवारों के मध्य बंधुता स्थापित करती है व संपत्ति विभाजन को रोकती है। यदि गोत्र स्तर के गुण-दोष को छोड़ दिया जाए तो ऐसी परंपराओं में संबंधों को तरजीह दी जाती है तथा वर व वधू पक्ष बराबर के संबंधी माने जाते हैं। इन परंपराओं में ग्राम गोत्र विवाह की संकल्पना भी मान्य है।

 भारतीय परंपराओं में यदि हम उत्तर भारत के युगपुरुषों द्वारा लिखे गए ग्रंथो या महाकाव्यों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि प्राचीनकाल से गोत्र व्यवस्था के बावजूद रक्त संबंध विवाह प्रचलन में रहे। महाभारत में सुभद्रा व अर्जुन का प्रसंग हो या फिर अकबर शासन के पारिवारिक विवाह।

------------------------------

सगोत्रीय विवाह के पक्ष में या फिर विपक्ष में भिन्न मत हो सकते हैं किंतु यदि वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर तार्किक रूप से मनन किया जाए तो हम पाएंगे कि खास नज़दीकी संबंधों में जेनेटिक मटेरियल के ढाँचे की एकरूपता की संभावना कुछ प्रतिशत तक हो सकती है, जिससे विभिन्न प्रकार के 'जीनोटाइपिक' व 'फीनोटाइपिक' विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। हालाँकि अन्य धर्मों में भी नज़दीकी रिश्तों के भाई बहनों में भी वैवाहिक संबंध होते रहे हैं ,जिससे वर्तमान में बाहरी रूप से शारीरिक सौष्ठव का अभाव भी रहता है। इस पर देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विस्तृत निर्णय दिए हैं। चूंकि ये सामाजिक आधार पर वैवाहिक संबंध की मान्यता का विषय है तो भी जेनेटिक समुच्चय की तार्किकता पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। समय के साथ आधुनिक परंपराओं में दूरस्थ विवाह होने लगे हैं।

ब्रिटिश भारत में सीमित रूप से समाज के धार्मिक व सांस्कृतिक ढाँचे में हस्तक्षेप किया गया, जिसके कारण सती प्रथा उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह अधिनियम एवं शारदा अधिनियम द्वारा कतिपय सुधारों के प्रयास किए गए। स्वतंत्रता के उपरांत सन 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम पारित करते हुए कई प्रकार के विविध विवाहों को समाप्त कर एकरूपेण व्यवस्था को स्थापित किया गया। सन 1953 में विवाह के मानकों में माता की और तीन पीढ़ियों तक व पिता की और छः पीढ़ियों तक आपस में वैवाहिक संबंधों को निषेध किया गया(परंपराओं आधार पर से विलग )। सन 1954 में विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह हेतु लड़के की आयु 21 व लड़की की आयु 18 निर्धारित की गई। इसके साथ ही अंतरजातीय व अन्तरसांस्कृतिक संबंधों को वरीयता दी गयी।

--------------------------------

यद्यपि दक्षिण भारत में भी पितृवंशीय वैवाहिक संबंधों की मान्यता है किन्तु इनका स्वरूप रक्त संबंध व विवाह संबंधों में अंतर नहीं करता अपितु ये संबंध समानता पर आधारित होते हैं व वर व वधू में विभेदीकरण का अभाव होता है। संबंधों में पुत्र या पुत्री के लड़के को 'पेरहन', पुत्र या पुत्री की लड़की को 'पेती', दादा व नाना को 'ताता', दादी व नानी को 'पाटी' कहा जाता है। इस प्रकार पति व पत्नी पक्ष की समानता भी दृष्टिगोचर होती है। काफी हद तक इसे स्त्री के प्रति एक सकारात्क दृष्टिकोण समझा जा सकता है।

यहाँ मुख्यतः विवाह के तीन नियम पाए जाते हैं--

1.  मामा-भांजी विवाह-  
------------------------------
                             नायरों में मातृवंशीय परिवार मिलते हैं किंतु ये विवाह प्रचलित नहीं।

2. ममेरे-फुफेरे भाई -बहिन बीच विवाह-
-------------------------------------------------- 
                                  दक्षिण के सगोत्रीय विवाह में मामा की लड़की या बुआ की लड़की के साथ विवाह की परंपरा है, किन्तु मौसी व चाचा की लड़की को बहिन माना जाता है। 

3. ग्राम गोत्र विवाह- 
-------------------------
                      छोटे नाते समूह या ग्राम अंदर वैवाहिक संबंध

 कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश जैसे कतिपय राज्यों की परंपराओं में किसी व्यक्ति के माता-पिता के माता-पिता भाई बहिन ही होते हैं...और चूँकि यह परंपरा का भाग है तो इसे वैध करार दिया जाता है। इसके साथ ही यह मत स्थापित है कि यदि लड़की का विवाह एक बार कहीं हो जाता है तो उस लड़की को मायके पक्ष में सम्मिलित नहीं माना जाता (हालाँकि सम्पत्ति की हिस्सेदारी में भागीदार माना जाता है।)। इस प्रकार से भाई-बहिन की संतानों में सहमति होने पर विवाह की मान्यताएं हैं। ऐसे विवाहों का प्राचीनकाल से चलन रहा है ताकि परिवार स्तर पर किसी भी बाहरी व्यक्ति के साथ संपत्ति को साझा न करना पड़े ।

मलयाली आदमी अपनी बहिन की बेटी से विवाह नहीं कर सकता  क्योंकि यह हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 एवं विशेष विवाह अधिनियम ,1954 द्वारा अयोग्य घोषित की गई हैं जब तक कि ऐसा होने के लिए उस संबंधित समुदाय की परंपराओं में सम्मिलित न हो या संबंधित को ऐसा विवाह करने की अनुमति न दी गयी हो।

-----------------------------------

अय्यर दक्षिण भारत के तमिल ब्राहमण हैं। इस विवाह को तमिल में कल्याणम् या तिरूमनम् कहते हैं। यदि दक्षिण में कर्मकाण्डीय पक्ष देखा जाए तो यह इस भाग में मंत्रोच्चारण व तत्सम्बन्धी नियम उत्तर भारत से कहीं सबल है व विवाह को दिन में पूर्ण कराया जाता है क्योंकि विवाह के दिवस पर दम्पति की लौकिकाग्नि प्रारम्भ कराने का विधान है और कोई भी अग्नि कार्य सूर्य की उपस्थिति में ही होने की मान्यता है। यह शादी दो से तीन दिवसों के लिए चलती है। परम्परागत रूप से दुल्हन के परिवार वाले विवाह हेतु योजना बनाते हैं। व्रुथम: , पालिका (नौ तरीके के अनाज से दुल्हे और दुल्हन के ऊपर छिड़काव कर पूजा), जानावसन (बारात)  , निश्चयाथर्थम समारोह (सगाई), काशी यात्रा, मलय मात्रल(दूल्हा व दुल्हन को कंधों पर उठाकर वरमाल रस्म), ओंजल( वैवाहिक जोड़े को झूले पर बिठाकर मंगल गीत), कनिका दानम (कन्यादान),कंकणा धारनम( दूल्हा व दुल्हन द्वारा एक धार्मिक व्रत से खुद को बाध्य करने के लिये हल्दी लगा एक धागा बांधना), मांगल्यधारनम(पूर्व निर्धारित शुभ घंटे में मंगल सूत्र बाँधना), सप्तपदि(सात फेरे) आदि रस्मों के द्वारा वैवाहिक संस्कार को मान्यता दी जाती है।



----------------क्रमशः
◆ सीमा बंगवाल

Sunday 7 June 2020

कोरोना वायरस-ज़िन्दगी या मौत?


कोरोना एक चर्बी युक्त मोटा सा दानव है । उसका सबसे आसान शिकार मानव ही है जिसकी फिराक में उसकी आँखें लगी हैं, जिसके लिए उसने सदियों से प्रयत्न किए। अब कहीं जाकर मानव को कैद करने में वह समर्थ हो सका।  इवानोवस्की को इस पृथ्वी का प्रथम वायरस खोजने का श्रेय प्राप्त है। हालाँकि वायरस का अस्तित्व पुरातन काल से रहा होगा बस वो तम्बाकू की पत्ती में सबसे पहले किसी वैज्ञानिक द्वारा खोजकर अभिलिखित कर दिया गया। सजीव व निर्जीव के बीच की कड़ी में उलझे इस कमज़ोर वायरस ने भी इंसान की तरह अपनी नस्लें बनाई। कई उत्परिवर्तन(म्युटेशन) हुए और वर्तमान वायरस का अस्तित्व सामने आया। कोरोना के म्युटेशन अचानक से नहीं हुए । वो उस वक़्त चुपचाप अपना काम करता रहा जब मानव अपने निजी एवं वैश्विक स्वार्थ की पूर्ति कर रहा था।

----------------------------

मानव के इस पृथ्वी पर आविर्भाव के बाद प्राकृतिक तरीके से कई बार गुणसूत्रों की हेरा फेरी हो जाने से कई प्रकार की विकृतियों से युक्त संतान के जन्म होते रहे हैं। भ्रूण में गुणसूत्रों के बदलाव से बाहरी दिखने वाले लक्षणों (फीनोटाईप) के आधार पर जेनेटिक संरचना से हमने ये सब समझा... किन्तु ये भी संभव है कि जेनेटिक ऐसे कई बदलाव अभी भी जारी हैं और कई के बारे में हम अनभिज्ञ हैं। कई प्रकार के जंतु 'कैरियर' ही बने रहते हैं किंतु किसी भी हद तक उत्परिवर्तन को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 

विश्व विजेता सिकंदर के समय की दुनिया सूक्ष्म सी थी जो कालांतर में बढ़ते बढ़ते समंदरों को पार करके नई दुनिया तक विस्तृत होती चली गयी। एतिहासिक प्रमाणों में मानव के समक्ष सदैव एक ही लक्ष्य रहा.... विजित होना। मानव में भी पुरुष का ही मुख्य योगदान रहा क्योंकि युद्ध की बागडोर विश्व स्तर पर उसके ही हाथों में रही। मंगोल जैसी क्रूर जनजातियों ने भी वैश्विक आतंक स्थापित किया और भूमध्य रेखा के अधिकतर निचले देशों ने यह प्रभाव महसूस किया। धरती धीरे धीरे बंट रही थी और योग्यतम की उत्तरजीवता के सिद्धांत इक्कीसवीं सदी के क्रीमिया पर अधिकार तक पहुंच चुके थे। याने पृथ्वी पर विजित होने की परिकल्पना पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रही कारण चाहे 'रेड इंडियंस' और 'अनार्य' की निरीह स्थिति हो या फिर मुहम्मद साहब का 'जिहाद' उद्घोष।

-----------------------------------

 अपने देश में महालनोबिस का मॉडल की असफलता व सोवियत रूस के विभाजन से इकानबे की मजबूरियां सामने आई। इंसान जिंदगी भर सीखता जाता है ये भी सीखने की ही बात रही जो हम पूँजीवाद की तरफ को झुकने लगे। इसके अलावा भी औद्योगिकीकरण बढ़ाने से कृषि क्षेत्र को सीमित कर दिया गया और उस छोटे से धरती क्षेत्र पर वैज्ञानिक आधार पर अधिकाधिक अन्न उपजाने का बोझ डाल दिया गया। भूमंडलीकरण के दौर में विकसित देश भारत जैसे जनाधिक्य वाले देशों में सिर्फ प्रयोग अधिक करते रहे हैं फिर चाहे 'जी एम फसलों' का उत्पादन हों या अपने सामान को बेचने हेतु बाज़ार तैयार करना । अंत मे होती है 'अम्बर बॉक्स' या 'ग्रीन बॉक्स' की राजनीति। अंतराष्ट्रीय स्तर पर सबसे पहले लोकलुभावन पृष्ठभूमि तैयार की जाती है बिल्कुल सुनियोजित तरीकों से...कई प्रकार की सौंदर्य प्रतियोगिताओं द्वारा, कुछ रियायतें देकर या फिर अन्य संगठनों के माध्यम से विभिन्न प्रकार से । उसके बाद आक्रमणों या अजेय बनने के हथियार निकाल दिए जाते हैं। चूँकि डार्विन का सिद्धांत विश्व में सर्वानुकरणीय देखा गया है तो इसे भी निंदित क्यों समझा जाए?

अब जब मानव का दिमाग़ इतना तेज़ गति से चल रहा है तो क्या वायरस को बढ़ने का अधिकार नहीं? इवानोवस्की के बाद कई वैज्ञानिकों ने इसके कई प्रकार खोजे। कई वायरस जनित रोग भी खोजे गए व उनके उपचार बना लिए गए। एंथ्रेक्स जैसे बैक्टीरिया के साथ मर्स, इबोला आदि कई प्रकार के वायरस प्रकार सामने आए...लेकिन जीवन चलता रहा...फिर भी हमने अपने स्तर पर इसके दुष्परिणामों हेतु नीति नहीं बनाई। वैसे भी गंभीर हम क्यों होंगे उसके बचाव, रिसर्च, दवा, व्यापार आदि के लिए तो 'वैश्विक प्रतिष्ठान' बने ही हैं ।  ओज़ोन की परत, प्रदूषण, बायोडाइवर्सिटी की चिंता करने के लिए भी वैश्विक फोरम हैं किंतु अभी कई ऐसे ज्ञात कारणों के कई दुष्परिणाम आने शेष हैं और उसके लिए भी कुछ मंच अपने अवतरित होने की प्रतीक्षा में हैं। 

---------------------------------

मानव समृद्धता होने पर उसका स्वभाव तो दुश्मनी की राजनीति करते ही चरितार्थ होता है। शक्ति परीक्षण मैदानों से अधिक दिमागों में होने लगे। अभी हाल ही में वर्चस्ववादी सोच के कारण सीरिया संकट पर पूरी धरती दो हिस्सों में बंटी हुई नज़र आई । फलीभूत किए गए ईरान से हथियार चलते रहे हैं। क्यूबा जैसा छोटा देश पुरानी फिएट गाड़ियों में सिमटकर अपने पड़ोसी पर विश्वास न कर सका और आज यूरोप व रूस की मदद करता दिखता है और यूरोप में ग्रीस जैसे छोटे देश की मदद उसके पड़ोसी नहीं कर पा रहे हैं। कितना भयावह है ऐसी राजनीति से मरना और मारना। अब कोरोना की राजनीति किसी ने देखी ही कहाँ थी पूरे वैश्विक स्तर पर तहलका मचा देने वाले इस उच्च स्तर जैसे वायरस को आम आदमी जानता ही कहाँ था...कोरोना ने कितनी आसानी से पूरी पृथ्वी से दोस्ती कर ली और इंसान नफ़रतों में जलता रहा। फिर वायरस ने इंसान से इतनी पीढ़ियों से कुछ तो सीखा ही होगा। 

परमाणु युद्ध, शीत युद्ध, बौद्धिक युद्ध जैसे कितने भी युद्ध हों लेकिन ये सब मानव जाति के लिए अभिशाप हैं। डार्विनवाद हर कसौटी पर सही नहीं हो सकता। मानव यदि किसी उपलब्धि को प्राप्त कर ले या न भी करे...तो भी मानव जीवन के उद्देश्य निराधार से हैं सोचिए यदि हज़ार वर्ष का जीवन होता तो हम सब दो सौ से अढ़ाई सौ वर्ष तक पढ़ रहे होते..... लेकिन अभी तो हम सौ वर्षों का जीवन भी नहीं देख पाते । ये सब आडंबर तो मानव चित्त की निरंतरता व जीवंतता हेतु ही अपने स्वरूप में हैं ताकि जीने का बहाना मिल सके।  

---------------------------------

बाहर प्रदूषण रहित आसमान है । लोग मास्क लगा कर ज़िन्दगी बचा रहे हैं। अरबों खरबों की रेल, बसें रुकी हैं। निम्न वर्ग की आजीविका संकटग्रस्त है। अपराध भी अभी स्थिर हैं। घर, राज्य, देश के साथ विश्व के पहिए रूक गए हैं इतनी बड़ी गाड़ी को चलाने वाली राजनीतियां भी हार चुकी है। धर्म हर कोने में मुँह छुपाए रोने लगे हैं। विज्ञान मौन मनन कर जीतने का प्रयास कर रहा है। पूरे 'विश्व का गाँव' एक ही समस्या से पीड़ित है। यूरोप के देश भी अन्य देशों की भाँति काफी पीछे के वर्षों में आ गए हैं। प्रकृति न्याय करने में सक्षम है। जंगल में बंद जानवर शहर में निकल कर सांस लेने लगे है...पक्षियों के कलरव के साथ कोयल को भी दिन रात के समय का मतिभ्रम हो गया है। हम विज्ञान या विवेक से इस बार भी ज़िन्दगी में आगे बढ़ जाएंगे किन्तु इतने बड़े विश्व स्तर की मशीनरी को रोक देने वाले ज्ञात इस वायरस के विभिन्न आयामों के संकटों को अनदेखा करने के बाद भी ऐसे कई अज्ञात कारण मानव पर आक्रमण करने को तैयार है। इंसानी साँसों के साथ विचारणीय है कि बंद अर्थव्यवस्था व खुली अर्थव्यवस्था में कौन इंसानी मुद्दों में बेहतर रहा अब ऐसा क्या खोजना शेष है जो मानव जीवन के हित में हो।

● सीमा बंगवाल

Saturday 30 May 2020

समय से आगे का समय


समय कभी नहीं रुकता ...न घड़ी में ...और न ही ज़िन्दगी में...। समय और ज़िन्दगी में एक फर्क होता है। समय पर उम्र की रेखाएं नहीं दिख पड़ती और ज़िन्दगी रेखाओं को जीकर दो ग़ज़ ज़मीन में समाती जाती है। समय की युवावस्था कभी ख़त्म नहीं होगी।वह मानव की उत्पत्ति से भी पूर्व बिग बैंग अवधारणा से समय से कितना जीवंत सा है। रामापिथेेकस , नियंडरथेलेंसिस जैसे कई मानवों के अवशेष हम इस समय की परिधि में खोल चुके है। अभी हम जैसे होमो सेपियंस के बाद जाने कौन सा जीव अवतरित हो। ये चिंता भी इंसान को कई पीढ़ियों के आगे ले जाएगी पर देखना ये समय जवां ही रहेगा। उस वक़्त चाहे ग्लोबल वार्मिंग से दुनिया धधक रही हो या सम्पूर्ण पृथ्वी ब्रह्मांड के उस डरावने से ब्लैक होल में समा जाने वाली हो। मेरे और आपके जैसे करोड़ो दिमाग़ भी समय के आगे अपनी आहुति दे देंगे पर समय न ही आपके इस बलिदान से द्रवित होगा और न ही उसके माथे पर झुर्रियां पड़ेंगी । सोचिए तो ज़रा....जब सारी पृथ्वी जर्जर हो सकती है....तारे , ग्रह काल के गर्भ में समा सकते है ...तो समय क्यों नहीं मरता ?



कई मानवीय सभ्यताएं हमने खंगाली हैं। हम सभी अवशेषों में इतिहास को जमा कर देखते रहने के आदी हैं। हम अदृश्य कथनों पर धर्म के नाम पर विश्वास करने की तरह अपने आस पास की हवा को महसूस करते हैं । हम ही वो लोग हैं जो समय को अपने जन्म और मृत्यु से महसूस करते हैं । किन्तु ये भी सत्य है कि हम बस महसूस करने में ही माहिर हैं । इंसान का समय उसके छोटे से जीवन काल में बदलता है । शुरुवाती जीवन जानवरों की तरह रेंगकर चलता है फिर जब खड़ा होकर चलने लगता है तो वो खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल कर बैठता है। किसी समय उसे दो जून की रोटियाँ भी नहीं मिलती, और कभी जब कुबेर महाराज की कृपा उस पर होने लगती है तो बस फिर तो दुनिया आपके कद से छोटी बन जाती है। ये साधारण सा हाड़ मांस का मनुष्य अपने जीवन के एक समय को खुशमय बनाने के लिए काफी लंबा समय अध्ययन काल के लिए सुरक्षित रखता है,लिखता -पड़ता है, अच्छी नोकरी या व्यवसाय करने के लिए या कहें अपने पैरों पर खड़े होने के लिए। जीवन को कर्मण्यशीलता से जीवंत रखने के लिए कितने ही लोगों ने सूक्त वाक्य लिखे परंतु मानव के जीवन का उद्देश्य मात्र कुछ वर्षों में सिमट कर कैसे रोचक रह सकता है।अपनी अपनी बौद्धिक क्षमताओं के आधार पर हर क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त होने के बाद मानव अपनी ढलती काया के खत्म होने का इंतज़ार करने को विवश हो जाता है। मानव के लिए बस यहीं तलक तो उद्देश्य है समय का फिर तो आत्म केंद्रित साध्यों की पूर्ति ही शेष रह जाती हैं।

       बरसों रामायण, महाभारत , पुराणों जैसे ग्रंथों से मनुष्य होने की योनि के प्रमाण इंसानी दिमाग ने स्वयं सिद्ध कर लिए । हिंदुओं की गीता ने आत्मा को अजर अमर घोषित किया। मुस्लिमों ने क़ुरान में स्वर्ग जाने की मेराज़ को बताया। ईश्वरवाद व अनीश्वरवाद की क्लिष्ट धरोहरों ने इसे अपने अपने तरीकों से और भी ज़्यादा व्याख्यात्मक कर डाला। हाय री इंसानियत ..जो हर काल निरंतर धराशायी होती रही और समय मानव की इस मूर्खता पर मंद मंद मुस्काता रहा , क्योंकि आदि व अंत में वो हो जीवित रहने वाला है जो एक अकाट्य सत्य है। 

ईसा मसीह के सलीब चढ़ने से समय ने बढ़ना शुरु किया।मानव जोड़ और घटाव के फेर तक ही सीमित रह गया। समय ने कितनी बार ग्रीन विच के वक़्त को भी धोखा दिया है...जाने कितनी बार समय के चार -चार सेकण्ड समय में समायोजित किए गए। मानव ने समय की पहेली को देशों में टाइम जोन में विभाजित किया किन्तु मानव समय को धोखा नहीं दे पाया।

मेरा मन भी कभी कभी बालक की हठ कर लेता है। मेरा दिल भावनाओं से भरता रहता है व दिमाग़ उन भावनाओं को पढ़ता है और मेरी ये कार्यशील उंगलियां मेरे  दिमाग को पढ़कर उसे पठनीय बनाती जाती हैं...है न  कंप्यूटर की गति से भी तेज़ , तो फिर समय की गति से आगे बढ़ उसे थामने में ये कुशलता कहाँ खो जाती है। पृथ्वी पर पाए जाने वाले प्रथम कोयसरवेट्स से होमोसेपियंस तक आ तो गए । कोई तो हो जो उस तेज़  समय के साथ दौड़ लगाने चले और उससे आगे निकल रोक ले उसे।

● सीमा बंगवाल

Thursday 28 May 2020

विवाह के पौराणिक आधारों में स्त्री का अस्तित्व (भाग-1)


कहा जाता है कि विवाह सात जन्मों का बंधन है। दरअसल ये बात हमारे संस्कारों से हममें समाहित होती गयी व इसे सफल बनाए जाने हेतु सारे धार्मिक कर्मकांडो को इसके पक्ष में स्थापित कर दिया गया। किसी भी स्थापित संस्था की प्रासंगिकता तब होती है जब आत्मिक स्तर पर किसी भी विचार को हमारा मन आत्मसात कर लेता है। यदि विवाह की संकल्पना में आदर्शवाद की भावना होती तो भारत देश में व्याभिचार की घटनाएं बहुतायत से न होती। माँ ,बहिन,बेटी के नाम पर गालियाँ देने वाले देश मे स्त्री संवेदनशीलता का नितांत अभाव है। ये स्थिति आज भी विकट है । हमारे परिवार की स्त्रियॉं भी अपने अस्तिव को जाने बिना इस दुनिया से देह त्याग जाती हैं। हम लोग धर्म की बात करते है, नियमो की बात करते है ...स्त्री के बारे मे सोचते तक नहीं है। स्त्री के प्रति वस्तुभाव रखते हुए धर्म नियमों के साँचे में ढालकर मन मुताबिक व्यवहार करवाने के उद्देश्य से विवाह संस्था को निर्मित किया गया। हालाँकि इसके अपने गुण दोष हैं। दक्षिण व उत्तर भारतीय खण्डों में पुरातन काल से विवाह संस्था की भिन्न परंपराएं स्थापित हुई हैं।

1. उत्तर भारत में विवाह के पौराणिक आधार-
============================

कहा जाता है कि आर्य यूरोपीय अथवा मध्य एशिया(अधिक मान्य) से भारत के सप्त सैंधव प्रदेश में बसे । वह इंडो-यूरोपियन भाषाएं बोलते थे। 'आर्य' भाषायी संदर्भ में प्रासंगिक है । यह किसी नस्ल के लिए (हिटलर या हिंदू दक्षिणपंथी) प्रयुक्त नहीं है। ख़ैर आर्य आगमन के उपरांत की व्यवस्थाओं में भारतीय स्तर पर महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। यहाँ पर चूँकि एक विषय मात्र पर लिखा जाना अपेक्षित है, तो उसी केंद्र पर हम हज़ारों साल पहले के पन्नों का सफ़र करेंगे।

ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर कहा जाता है कि मानव चेतना ने दिमाग़ के विकास व आकार को सुदृढ़ किया एवं परिणामस्वरूप किए गए श्रम ने उसके हाथों को दक्ष किया। समूह, कबीले, सगोत्र ...आदि व्यवस्थाएं सामने आई। स्त्री विचार पर यदि देखें तो मिश्र सभ्यता में प्रथम देवी को सिंहनी के आकार में अंकित कर दर्शाया गया। हालाँकि विश्व स्तर की किन्हीं सभ्यताओं में स्त्री का बंधन नैसर्गिक रूप से संतानोत्पत्ति का ही रहा। पुरुष के वर्चस्ववादी समाज में वह एक वस्तु की भाँति प्रयुक्त की जाती गई। अब चूँकि मानवीय बौद्धिक क्षमताओं के उन्नयन का स्तर तत्कालीन परिस्थितियों में पुरुष व स्त्री के मानवीय मूल्यों की तार्किकता को परिभाषित करने में सक्षम नहीं था, इसीलिए स्त्री के प्रति ऐसा भाव रखा जाना भी प्राकृतिक ही कहा जा सकता है। स्त्री के प्राकृतिक कर्तव्यों में शिशु पालन पोषण होने से भी उसका घरेलू अस्तित्व प्रगाढ़ होता गया। हालांकि इन प्राकृतिक व्यवस्थाओं को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता अपितु ये ही परंपराए ही कालांतर मे स्त्री के शारीरिक ; मानसिक व दैहिक अवनयन की आधारशिला रखने में सहायक सिद्ध हुई। 

शुरुवात में पुरुष या मातृ प्रधान जैसी कोई विचारधारा नहीं थी । यह एक प्राकृतिक रूप से गुजरने वाला जीवन था। जिसमें पुरुष व स्त्री भी अन्य जीव जंतुओं की तरह व्यवहार करते। ये न अच्छा था, न ही बुरा न नैतिक न अनैतिक। स्त्री को वस्तु की तरह देखने के कारण उसके साथ स्वतंत्र रूप से पशु-पक्षियों के समान यौनाचार करने की प्रवृत्ति रही और धीरे धीरे ये परंपरा का हिस्सा भी बनता गया। रामायण व महाभारत जैसी कथाओं में खीर खाने व देव आह्वान किए जाने से गर्भ धारण किया जाना भी उस समय स्त्री के प्रति ऐसी प्रवृत्ति को दर्शाता है। ऋग्वैदिक काल व उसके बाद में रचित ग्रंथों में गौतम ऋषि के वंशज ऋषि आरुणि (उद्दालक)पुत्र श्वेतकेतु का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि एक बार घर पर आए ऋषि की सेवा सुश्रुषा हेतु ऋषि आरुणि ने श्वेतकेतु की माता को आदेशित किया। अपनी माता को परपुरुष के साथ जाते देख श्वेतकेतु ने अपने पिता से इसका कारण जानना चाहा। ऋषि आरुणि द्वारा बताया गया कि "यह हमारी परंपराओं का हिस्सा है। स्त्री एक गाय की भाँति है और वह स्वतंत्र है।" उग्र व व्यथित श्वेतकेतु द्वारा पति व पत्नी हेतु पत्नीव्रत व पतिव्रत नियम बनाए गए एवं विवाह को धार्मिक आधार पर संस्थागत रूप से स्थापित किया गया।


एक अन्य मान्यता के आधार पर उत्तरी पांचाल की राजधानी कंपिला में पांचालों की परिषद हुई, जिसमें कई राज्यों के राजा, आर्यों व ब्राह्मणों के प्रतिनिधियों के साथ श्रोत्रिय भारद्वाज, शौनक, गौतम, जैमिनी, कणाद, वशिष्ठ, पाणिनि, औलूक जैसे कई धर्माचार्य भी सम्मिलित हुए। कई विद्वजन समझे जाने वाले लोगों के बीच विचार विमर्श के बाद निम्न मर्यादाएं/ नियम प्रतिपादित किए गए।

अथर्व आंगिरस ने प्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित करते हुए युवती के वरण का अधिकार समाप्त करते हुए गृह कृत्यों व एक पति के साथ वृद्धावस्था तक कर्तव्य स्थापित कर दिए व स्त्री का दायभाग समाप्त करते हुए पुत्र के अधिकार सुनिश्चित करके उसे पुरुष के अधीन करने का विचार रखा। ऐतरेय ने पुरुष के द्वारा कई स्त्रियां रखे जाने का समर्थन किया व स्त्री को एक पति तक सीमित करने की बात पर बल दिया गया। सगोत्रीय विवाह निषेध करने का प्रस्ताव भी परिषद में रखा गया।

सोलह महाजनपद काल में स्त्री विहीन परिषद में पुरुषों के स्वार्थ ने उक्त प्रस्ताव को पारित करते हुए आर्य, अनार्य, अनुलोम, संकर सभी जातियों पर लागू करा दिया गया। देश के कई जनपदों यथा आंध्र, सौराष्ट्र, चोल, चेर, पाण्डेय, अंग, बंग, कलिंग सभी पर यह नियम लागू कर दिए गए। अनार्य को शुद्ध वर्ण से त्याज्य मान असवर्ण विवाह से उत्पन्न संतानों को दायभाग से वंचित कर दिया गया। इसके साथ ही अनुलोम व प्रतिलोम की पृथक जाति स्थापित कर दी गयी।

तत्पश्चात गौतम ऋषि द्वारा छः प्रकार के विवाह परिषद में घोषित किए गए। 
1. ब्रह्म विवाह(ब्राह्मण का ब्राह्मण के लिए), 
2.दैव विवाह(क्षत्रिय का ब्राह्मण के लिए), 
3.आर्ष विवाह(जनपद के लिए), 
4.गांधर्व विवाह(वयस्क वरण आधारित), 
5.क्षात्र विवाह(क्षत्रिय का क्षत्रिय के लिए),
6.मानुष विवाह(क्षत्रिय,ब्राह्मण का शूद्र के लिए)।

आपस्तम्ब ने उपरोक्त मर्यादा स्वीकार करते हुए क्षात्र विवाह को राक्षस और मानुष विवाह को आसुर घोषित किया। ऐसे विवाह भारत के दक्षिण भागों में प्रचलित हुए। वशिष्ठ द्वारा शुल्क दे ली गयी असुर कन्याओं व मोल ली गयी नीच जाति की कन्याओं (दासी) को विवाहित का दर्जा न देकर उनसे हुई संतानों के अधिकार
समाप्त कर दिए गए।

आपस्तम्ब द्वारा दैत्यों के आर्यकुल व देवकुल में विवाह संबंध होने के उदाहरण दिए गए। उन्होंने पुलोमा दैत्य की पुत्री शची इंद्र विवाह, वृषपर्वा की कन्या से ययाति के विवाह जैसे उदाहरण सबके सम्मुख प्रस्तुत किए और राक्षस एवं असुर विवाहों को आर्य परिपाटी अंतर्गत स्वीकृत करने की मांग की। तत्पश्चात गौतम द्वारा विवाह के छः प्रकारों को बढ़ाते हुए 

7.प्रजापत्य (कन्या के पिता द्वारा आदेशित)और 
8.पिशाच (बलात हरण)

प्रकार (कुल आठ) का समावेश किया गया। प्रश्नगत दोनों मूलतः विवाह नहीं थे किंतु कांबोजों को आर्य संघ में लाने हेतु उनकी परंपराओं को विवाह में शामिल कर लिया गया। आर्यों को अपने विरुद्ध षड्यंत्र न झेलने पड़े इस कारण भी यह अपरिहार्य था।

गौतम व आपस्तम्ब द्वारा माता व पिता की छः पीढ़ियों तक सगोत्र विवाह अमान्य घोषित किए गए। गौतम ने विवाह हेतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र हेतु क्रमशः चार,तीन,दो,एक स्त्री की स्वीकृति दी व पुरुष के केवल अपने वर्ण की स्त्री से उत्पन्न संतति को ही पिता के शुद्ध वर्ण से होने के संपत्ति अधिकार दिए जाने की सहमति दर्शायी। अन्य संताने कुल सेवा हेतु प्रतिबद्ध की गई। इस प्रकार वैश्य व शूद्र में निम्न वर्ण रक्त अधिकायत से होने के कारण ये वर्ग हीन माने जाने के कथ्य स्थापित किए गए।

उक्त 'शुद्ध वर्ण' के अलावा निम्नलिखित जातीय संताने अस्तित्व में आई-
1. पारशव- ब्राह्मण पुरुष व शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतान

2. अम्बट- ब्राह्मण पुरुष व वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान

3. उग्र- क्षत्रिय पुरुष व शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतान

4. वैश्य- इनके द्वारा शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतानों को वैश्य ही माना गया।

हालाँकि आपस्तम्ब द्वारा वर्णसंकर जातियों के अनेक प्रकार होने से आर्यों के विरुद्ध विद्रोह किए जाने की शंका की गई किन्तु गौतम द्वारा रक्त की शुद्धता को वरीयता में रखते हुए आर्य विवाह हेतु पाँच विधियाँ प्रतिपादित की।

क) अग्निप्रदक्षिणा,
ख) सप्तपदी लाजहोम,
ग) शिलारोहण,
घ) कन्यादान,
ङ्ग) गोत्रों का बचाव।

वशिष्ठ द्वारा क्षेत्रज पुत्र को दायभाग में द्वितीय स्थान दिए जाने का विचार रखा गया। विमर्श के बाद बोधायन के तृतीय स्थान पर क्षेत्रज हेतु दायभाग दिए जाने को संस्तुति की गई।

आपस्तम्ब द्वारा नियोग प्रथा पर आपत्ति की गई। गौतम द्वारा विधवा स्त्री को गुरु की आज्ञा से  देवर से ऋतुगमन की मर्यादा स्थापित की। देवर के अभाव में सपिण्ड, सगोत्र,समान प्रवर, स्वर्ण पुरुष से स्वीकार किया गया व दो बच्चों तक नियत किया गया।(ऋतुगम्य पुरुष का संतान पर अधिकार नहीं होता था।)

इसके अलावा किसी भी परिस्थिति में कर्मकांडीय विवाह होने तक कन्या माने जाने पर संस्तुति की गई (ताकि वस्तु समान स्त्री उपयोग करने के कारण सामाजिक ढांचे पर नकारात्मक प्रभाव न आए) एवम इन्हें भी भिन्न नाम दिए गए। मर्यादित पुरुष के प्रकार इस सभा में नहीं रखे गए किन्तु वशिष्ठ द्वारा छः प्रकार की कन्याएं घोषित की गई-

1.अक्षत अविवाहिता
2.क्षत अविवाहिता
3.अक्षत विवाहिता
4.साधारण स्त्री
5.विशिष्ट स्त्री
6.मुक्तभोगिनी

गौतम द्वारा पति के एकाएक बाहर देश जाने पर छः वर्ष प्रतीक्षा कर स्त्री को पुनर्विवाह किए जाने हेतु सहमति दी किन्तु पति के विद्या अध्धयन की स्थिति में ये अवधि बारह वर्षों तक मानी गयी।
कात्यायन द्वारा नपुंसक या पतित पति की स्त्री के दूसरे विवाह से उत्पन्न पुत्र (पौनर्भव) को प्रथम पति के दाय से भोजन वस्त्र के अधिकार दिए गए। वशिष्ठ द्वारा पुनर्भवा स्त्री व पौनर्भव स्त्री के मापदंड रखे गए। हारीत (औरस,क्षेत्रज,पौनर्भव,कानीन, पुत्रिकपुत्र और गूढज) को क्रम से दायभागी माना गया।

इस प्रकार भरे पुरुष समाज के स्त्रीविहीन दरबार में स्त्री के लिए नियम बनाए गए और स्त्रियों ने इसे स्वीकार कर कई युग पर कर लिए। 

जब भी नई परंपराओं व नियमों को समाज के ऊपर थोपा जाता है तो अधिकतर ये स्वीकार्य नहीं होता। लेकिन भारतीय स्तर पर धर्म के अतिरेक ने इसे कुछ स्वीकार्य बना दिया क्योंकि स्त्री को देवी बना शोषण करने वाले ऋषि मुनि साक्षात ईश्वर का पर्याय माने जाते थे। वेदों में भारद्वाज,विश्वामित्र, कश्यप,अगस्त्य जैसे कई ऋषियों का उल्लेख मिलता है, जो हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में स्वर्ग के राजा इंद्र एवं अप्सराओं के साथ सीधे संपर्क करते दिखते रहे हैं। आज इक्कीसवीं सदी में भी साधारण जनमानस में धर्म की अंधता के द्वारा सब कुछ स्वीकार कराया जा सकता है। 

विश्व के विभिन्न स्थानों पर धर्म का उद्देश्य तत्कालीन परिस्थितियों में जीवन शैली के नियम बनाने से प्रारंभ हुआ। वेद, बाइबिल, क़ुरआन मेरे नज़रिए से दैवीय/आसमानी किताबें नहीं हैं...किसी मनुष्य के द्वारा इनको धर्म के आवरण में संभवतः इसलिए जड़ा गया होगा ताकि लोगों के मन में भय उत्पन्न हो व वह सही आचरण कर सके, उस समय लोगों ने ये सही मार्ग समझा होगा किन्तु आज वैज्ञानिक युग की दैवीय सोच में ऐसे प्रयोग प्रासंगिक नहीं हो सकते । यह आरंभिक ग्रंथ साधन व साध्य दोनों की पवित्रता का प्रतीक है। इन ग्रंथों में मानववादी दृष्टिकोण कमोबेश एक सा है... किंतु धीरे धीरे धर्म के अंध प्रचारकों द्वारा द्वेष, भेदभाव के इतने खाके खींच डाले कि आज करोड़ो लोग इसका शिकार हो गए हैं। जिसका सबसे ज़्यादा दर्द स्त्रियों ने बर्दाश्त किया है।

● सीमा बंगवाल 
                                               क्रमशः   .......

Wednesday 27 May 2020

आदिकाल से कोरोनाकाल तक उत्परिवर्तन के आयाम



आहार, निद्रा, भय (प्रतिवर्ती क्रियाएं) व मैथुन/परागण सजीव की नैसर्गिक प्रवृतियां हैं। मनुष्य उत्पत्ति के उपरांत सर्वप्रथम अनुभव के आधार पर खाद्य व अखाद्य आहार को वर्गीकृत किया गया। उसने अपनी दृष्टि अनुभवों से पशु को पशु का वध कर आहार बनते देखा होगा फिर उसकी बुद्धि ने मछली, छोटे जीवों से बड़े जीवों का शिकार कर आहार बनाया होगा। उस समय मांसाहार को चुनने व खाने में धार्मिक आधार नहीं था। संभवतः जिस जानवर की उपलब्धता अधिक या कम रही वह जानवर उस कबीले / मनुष्य का 'टोटेम'(गणचिह्न) बन गया होगा।



विश्व के सारे धर्मों से पूर्व आदिवासी संस्कृति व्याप्त थी जिसमें 'टोटेम' की अवधारणा थी जो धीरे धीरे सभ्यताओं व संस्कृतियों में समाती चली गयी। ये स्मृति चिह्नों के रूप में मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की सभ्यता में मुहरों, कलाकृतियों आदि के रूप अभिसारित हुई...मिस्र व मेसोपोटामिया के साथ ग्रीक व चीन सभ्यताओं में भी ऐसी समानता देखी गयी।

कालांतर में 'टोटेम' को विभिन्न धर्मों में कुलदेवता का दर्जा मिल गया। इसी प्रकार आदिवासियों में वृक्षों की उपयोगिता के आधार पर पीपल, बरगद, महुआ आदि को कुलवृक्ष का दर्जा मिला और वो कई आगामी कई  परंपराओं में पूजनीय हो गए।



धर्मों के स्थापन के उपरांत ये 'टोटेम' धर्म के अंदर समाहित किए गए। अधिकतर गणचिह्नों को सनातनी धर्म में भी पूजनीय माना गया है। सर्प नाग जाति का गण चिह्न था। अफ्रीका व युगांडा आदि देशों  में भी सर्प से कटवाकर न्याय किए जाने के उल्लेख मिलते हैं। इसी प्रकार मछली के रूप भी पूजनीय हुए। विष्णु का मत्स्य अवतार हो या फिर बंगाल में मछली की पवित्रता।
 मछली के सेवन को बंगाल व गोवा के ब्राह्मण परिवार शाकाहार मानते हैं। वैदिक काल की बात करें तो उस काल में बड़े दुधारू जानवरों को खाना वर्जित नहीं था। 

विश्व के विभिन्न भागों में उपलब्ध खाद्य के आधार पर जीवन शैलियां विभाजित हैं। फ्रांस जैसे देश में लगभग 1400 प्रकार के कीट खाए जाते हैं। विभिन्न धर्मों में बलि को भी मान्यतायें प्राप्त हैं कहीं वास्तविक व कहीं सांकेतिक। मक्का मदीना में ऊँट एवं ठण्डे प्रदेशों में याक आदि की बलि दी जाती है। वर्तमान में बलि हेतु मुर्गा, बकरा, भैंस आदि के साथ सांकेतिक रूप में नारियल, कद्दू के भी प्रमाण मिलते हैं। 
 

धरती बनने के बाद जीव जंतु व पेड़-पौधे कई प्रकार से प्रभावित हुए। 1984 में भोपाल गैस काण्ड में मनुष्यों के साथ ज़हरीली गैस मिथाइल आइसो साइनाइट से आस- पास के पौधे भी झुलस गए। हिरोशिमा व नागासाकी में मनुष्य, जानवर व पौधों में जेनेटिक उत्परिवर्तन(म्युटेशन) हुए। पृथ्वी पर ऐसे उत्परिवर्तन  चिरकाल से हो रहे हैं । यद्यपि अधिकाधिक कारणों के पीछे मानवजन्य विकास व कुंठाएँ है किंतु प्रकृति जन्य कारण को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।  

 ये पृथ्वी अनंत में सूर्य की परिक्रमा की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर घूर्णन कर रही है....सूर्य भी अनंत में स्थिर नहीं है वह भी जाने कितने दूरस्थ पिण्डों का चक्र पूर्ण करता होगा। पृथ्वी  जाने कितने अनंत में अपनी अवस्था से गुजरती होगी। पृथ्वी पर अमेज़ॉन और अफ्रीका के घने जंगल ग्लोबल वार्मिग को नहीं रोक पा रहे हैं .... अभी तक प्रकृति और मानव ने मिलकर ओज़ोन पर कितना कहर बरपाया है। प्रकृति तो सभ्यताओं को लीलकर दोबारा विकसित होने में सक्षम है किंतु मानव दोबारा विकसित नहीं हो सकता। 


मैंने 1945 के फेटमैन व लिटिल बॉय का कहर महसूस नहीं किया, साठ के दशक का अकाल नहीं देखा, भुखमरी नहीं देखी... गाँधी के समय प्लेग की महामारी भी नहीं लेकिन मैनें अभाव देखे, नफ़रतें देखी, अपमान देखे, ईर्ष्या देखी.....एंथ्रेक्स का खौफ़ दूर से जाना किन्तु आज कोरोना की वजह से प्रथम बार मृत्यु का भय व मानवता का अंत महसूस किया जो धर्म ,जाति, लिंग आदि किसी आधार पर विभेद नहीं करता। एक मामूली सा वायरस पूरे जगत को खत्म करने की क्षमता रखता है।  काफी इंसान मौत की नींद सो गए ओर काफी लोग मृत्यु की दहलीज़ पर खड़े हैं। हम लोग सैनिटाइजर व साफ सफाई पर केंद्रित हैं किंतु हम त्रासदियों से नहीं सीखते । कोरोना सबके प्रति समान व्यवहार रखता है ये तो उसका विशेष गुण है उसकी महानता है जो इंसान शायद ही सीखे । मरने व मारने के तो बहुत सारे तरीके हैं। हम लोग जो इस दुनिया मे शेष बचेंगे वो फिर इंसानों को बांटेंगे, नफ़रतों को पालेंगे। धरती की उर्वरता कब तक रहेगी? अपनी ही पृथ्वी से खनिज, तेल, अन्न सब कुछ तो छीन कर मैला करते रहे । 'हम लोग'....आसमान में इंसानी घुसपैठ से कितने वैज्ञानिक कचरे फैल गए । इन सभी विभिन्न मुद्दों के लिए इंसान होना ज़रूरी है।

   कोरोना से बचना व वैक्सीन बनाना एक अलग बात है किन्तु धरती की लहलहाती फसलें उर्वरकों के कारण कुछ क्षेत्रों तक सीमित हो गयी हैं और जनसंख्या आधिक्य वाले देश मांसाहार की और उन्मुख हुए हैं। कोरोना के कारण मांस मुफ़्त बंटने की कगार तक आ गए। मुर्गों के समस्त परिवार बेफिक्र हो सर उठा चलने लगे और हम लोग मास्क लगा घर में मृत्यु के भय को जीने को मजबूर...


मांसाहार कोई धार्मिक विरोध का कारण नहीं हो सकता...चुने हुए जानवरों के मांस खाना भी कोई आदर्श नहीं।  हम आपकी तरह जानवरों के शरीर के मांस में विभिन्न बीमारियां उत्पन्न हुई व मृत्यु का कारण बनी। मर्स , स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियों से भी हम बच गए किन्तु अब ये चिंतन का विषय है कि कितने काल से उत्परिवर्तन को अपनी कोशिकाओं में ढोते हुए जानवर के मांस बीमारी के वाहक तो नहीं या फिर हमारे शरीर मे किसी प्रकार के वायरस के प्रति एंटीबाडी बनाने में सक्षम तो नहीं हो रहे। हालाँकि शाक वर्ग में भी गुच्छी व मशरूम के अतिरिक्त कई प्रकार हैं जो कई उत्परिवर्तन के बाद आज ज़हरीले हैं। विडंबना है कि हम शाकाहार के प्रति तो इतने सजग हैं किंतु मांसाहार सिर्फ स्वाद व धार्मिक कवच के लिए करते हैं। 


ज़रूरत इस बात की है कि अपनी सोंच में इंसानियत को महत्व दे। हिन्दू व मुस्लिम लोग भविष्य के लिए अपना अच्छा इतिहास बनाए। हम सभी 'म्युटेटेड' लोग सब मिलकर म्युटेटेड मांस व म्युटेटेड शाक को खाने पर चिंतन करें। धरती को उर्वर और आसमान को फिर से साफ बनाए जाने की दिशा में प्रयत्नशील हो।

● सीमा बंगवाल

Monday 25 May 2020

साहब,साहबियत और साहिबा....भाग -3



साहिबा.... साहिबा के ऊपर बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ हैं , ढेर से संस्कारों की रक्षक बनने की मजबूरी है। इनमें से बहुत कुछ जन्मजात प्रदत्त सामाजिक देन हैं। अब साहिबा आखिरकार है तो एक 'स्त्री' ही। 'स्त्री' जिसका जन्मजात आधार पर 'अधिकार' हनन कर उसे 'देवी' बना दिया जाता है और वो पुरातन काल से अपनी सामाजिक पहचान को ढोते हुए 'देवी' का रूप स्वेच्छा से स्वीकार भी कर लेती है । फिर भारत मे धर्म की प्रबलता मानव धर्म से श्रेष्ठ श्रेणी में रही है।



      ये समाज स्त्री को 'देवी' घोषित कर देता है किंतु 'पुरुष' को देवता बनाने में अक्षम रहा है। याने 'पुरुष' सिर्फ एक पुरुष है...और 'स्त्री' 'देवी' की दोहरी जिम्मेदारियों से अभिप्रेरित सर्वगुणसम्पन्न प्रतिमा........यद्यपि जो भी सामाजिक नियम बनाये गए वो स्त्री को वस्तुपरक रूप में रखकर बनाये गए। पीढ़ी दर पीढ़ी ये सोंच स्त्री के 'जीन' में समाहित हो चली और आज हर 'पुरुष' कहता है कि "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है।" स्त्री को 'संपत्ति' बनाने की सोंच व उसका प्रभावी कर्म मौलिक स्तर पर पुरुषजन्य रहा और सदियों ऐसा करके अब ये ज़िम्मेदारी भी स्त्री को सौंप दी गयी। स्त्री में लंबे समय से ये जेनेटिक बदलाव इस प्रकार से हुआ जैसे सदियों सर्कस के जानवरों को अभ्यस्त बनाते बनाते एक दिन वो स्वतः ही वो जानवर अनुकूल व्यवहार करने लगते हैं। लेमार्क ने भी 'विकासवाद के सिद्धांत' में जीवन के कायिक लक्षणों या अर्जित गुणों का अगली पीढ़ी में संचरित होना बताया है । ये वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हो या न हो ,किन्तु 'स्त्री' के लिए इसे पूर्णरूपेण सत्य कहा जा सकता है।

स्त्री जन्म उपरांत भी कई विचारधाराएं हैं। लड़की बदसूरत जन्मी तो भी समस्या। 'दिव्यांग' जन्मे तो भी समस्या...खूबसूरत जन्मे तो भी उत्साह कहीं सोया सा रहता है। यही स्त्रियाँ 'साहिबा' बनती है...कोई घर के अंदर ..और कोई कार्यक्षेत्रों में। अब 'साहिबा' चाहे कितने ही उच्च पद को क्यों न विराजे या अपने अस्तित्व को पारिवारिक जिम्मेदारियों और संस्कारों की सीमा में कैद करके बिन अधिकारों की 'मालकिन' बने, लेकिन उसका प्रखर होना माफ़ी योग्य नहीं होता..और यदि ये वर्ण व्यवस्था आधारित निरीह स्त्री हो तब तो समस्या और भी विकट हो जाती है। उसके कई सपने तो जन्मजात रूप से मार दिए जाते है। कमोबेश स्त्री होना लगभग एक सा ही है।

अब खूबसूरत 'साहिबा' हो तब तो 'साहिबा' अपने कार्यो से उल्लिखित नहीं की जाती । समाज का सभ्रांत व चरित्र कसौटी पर स्थापित रूप से खरा उतरने वाला 'पुरूष'  'साहिबा' को खूबसूरती के आधार पर कलंकित करने का हर संभव प्रयास भी करता है और यह प्रयास उसकी अकर्मण्यता का परिचायक अधिक है। हालाँकि 'स्त्री' के प्रति उसकी ऐसी सोंच दोषी नहीं है। 'पुरुष' जब अतीत साहित्य पढ़ता है तो 'स्त्री' के प्रति एक दैहिक व अधिकार योग्य वस्तु की सोंच रखता है और जब एक 'स्त्री' अपने सदियों के व्यवहार को देखती है तो इतने निम्न व्यवहार से उसका हृदय रुदित होता है लेकिन ये सब बातें 'साहिबा' अधिक बेहतर समझती है। भुक्तभोगी विश्लेषण ज़्यादा विश्वासपरक होता है।

अब भारतीय समाज मे लड़की के जन्म पर अक्सर उत्साह का माहौल नहीं आता। न कोई जनमासा होता न कोई जलसा...और भी बहुत .....लेकिन झूठे मुँह हम बड़ी मुश्किल से लोगों को कहते हैं कि "आजकल लड़के से बढ़िया लड़की है।" पता नहीं ......शायद सच भी हो लेकिन प्रत्यक्ष दर्शिता से ऐसा बेहद ही कम या न के बराबर ही होता है जहाँ मात्र एक या दो लड़कियों को ही बेहद अच्छी शिक्षा देकर काबिल बनाया गया हो। हमारे समाज में लिंगात्मक आधार पर ही भाग्य विश्लेषण घोषित कर दिया जाता है। कर्तव्य,संस्कार व ज़िम्मेदारियाँ लड़की के हिस्से आते हैं और लड़के को मिलते हैं जन्मजात अधिकार। अब लड़की , जो एक स्त्री है, वो सामाजिक रूप से काबिल भी बन जाये तो उन्हें बनना तो आखिरकार 'साहिबा' ही है। 'साहब' के विभिन्न स्वरूपों की अधिकारी 'साहिबा' हो भी तो भी 'अधिकार' को मानवरूपी गुणों के आधार पर बिन किसी पूर्वाग्रह के ये 'पुरुषप्रधान मानसिकता' की परंपराएं स्वीकार्यता की सकारात्मक सोंच नहीं रखती फिर इन परंपराओं की बेड़ियाँ किसी औज़ार से नहीं कट सकती।

हमारे सामने सदियों से बहुत से मुद्दे रहे। कभी धरती के क्षेत्र को हड़पना उद्देश्य रहा। कभी अर्थव्यवस्था के बदलाव पर परिवर्तन अनिवार्य से हुआ किन्तु स्त्री के प्रति कभी वस्तुजन्यता से ऊपर सोंच विकसित करने में हम असहाय रहे। कतिपय सेमेटिक परंपराओं में विधवा विवाह व स्त्री अधिकारों को 'आसमानी किताब' में लेखबद्ध भी किया। सनातनी परंपराएं, सती व जौहर प्रथा में स्त्री का शील स्थापित करने में गौरव अनुभूति करते रहे। आज के समाज के अनुरूप विश्लेषण करने में हम कतई कमतर नहीं हैं। किसी भी समाज मे जो लेखबद्ध हुआ , वो उस समय निश्चित तौर पर क्रांतिकारी विचार से प्रेरित कहा जा सकता है...उसके रूप अलग हो सकते हैं जैसे 'मुहम्मद' के समय का विधवा विवाह हो या 'चंद्रगुप्त' का गणिका सम्मान। सदियों बाद भी स्त्री 'विमर्श' के जाल में फंसी हुई मछली सी है और हज़ार कानून लेखबद्ध होने पर भी अधिकारों से वंचित व सामाजिक तिरस्कार की भोगिनी। लेखबद्ध आधार पर स्त्री उन्नति को विश्व पटल पर उत्कीर्ण नहीं किया जा सकता जब तक कि सामाजिक रूप से स्त्री के अस्तित्व को स्वीकार न कर लिया जाए।

एक ग़ुलामी भारत ने लंबे अरसे तलक झेली लेकिन कभी कभी मानसिक ग़ुलामी हमारे ज़हन से दूर नहीं हो पाती। वैसे ही 'साहिबा' के प्रति एक सामाजिक सोंच उसे असल तौर पर 'साहब' नहीं बना पाती।'साहिबा' में 'साहबियत के लाख गुण हों लेकिन 'साहिबा' एक स्त्री के प्रति एक पुरातनी सोंच से हार जाती है ओर जहाँ 'साहिबा' न हारे वहाँ हरा दी जाती है और 'किरण' साहब रूपी ज़िम्मेदारियों को अंततः छोड़ जाती है लेकिन इस स्वाभिमान से 'साहिबा' के प्रति सोंच कहाँ खत्म होती है?

'साहिबा' अपने जीवन की किसी बात से विचलित नहीं होती। यद्यपि वो साहिबा है, अपितु उसका मन , उसका दिमाग़ एक लंबे काल चरण से गुज़र कर एक मजबूत से खोल में समा चुका है। 'साहिबा' साहबियत में विश्व समुदाय से टक्कर लेकर पोखरण के विस्फोट कर सकती है। 'साहिबा' खूबसूरती में 'ब्रह्माण्ड सुंदरी' बन सकती है। अंतरिक्ष में रहने का रिकॉर्ड बना सकती है.... यही नहीं विश्व जगत की 'सेरेना' , 'सानिया' व 'संधू'बन सकती हैं, लेकिन 'साहब' की सहाबियत सिर्फ 'गुलज़ार' में समाहित नहीं होती...साहबियत साँसे लेती है हमारी सोंच में...तर्कहीन को तर्कशील बताते हुए।

● सीमा बंगवाल

Saturday 23 May 2020

साहब, साहबियत और साहिबा- भाग 2

वैलेजली साहब का राज्य हड़प सिद्धान्त एकदम साहब की वर्चस्ववादी सोंच और कार्यप्रणाली से श्रेष्ठ उदाहरण रहा है। साहब के नाम की मर्यादा को वैलेजली ने धूमिल नहीं किया बल्कि भारतीय राजशाही को धूल चटा देने वाली इस साहबियत ने उसके नाम को भी रोशन किया। 1857 का विद्रोह न होता तो साहबियत का रूप और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता। हालाँकि कंपनी में  'साहिबा' कोहिनूर को अपने मुकुट में सजा चुकी थी। ये साहिबा वाक़ई साहब से ज़्यादा महत्वपूर्ण रही। अब साहिबा के वेश में साहिबा साहब ही तो थी। वरना देखिये अधिकृत देशों के नागरिकों को झुका उनकी गर्दन पर तलवार रखकर उपाधियाँ देना एक वर्चस्व की कहानी बयां करता है। भारतीय साहिबा के बारे में यदि देखा जाए तो रज़िया सुल्तान याद  आती है। लेकिन विश्व के विभिन्न परिवेशों में ब्रितानी साहिबा का स्थान ही सर्वोत्कृष्ट श्रेणी में रहा है ,क्योंकि उन्होनें साहबियत को स्वयं में धारित किया। रजिया साहिबा तो एक स्त्री ज़्यादा थी, साहबियत को समझने में थोड़ी चूक कर गयी और प्रेम कर बैठी, तुर्कानो से लड़ बैठी। उसकी हत्या कर दी गयी किन्तु साहबियत की साँसे ज़िंदा रही।





भारतीय मूल्यों में अनुसरण करना पहले सीखा जाता है। चूँकि हमारा इतिहास लंबे वक्त से विदेशी शासकों द्वारा शासित होता रहा, तो साहबियत का गुण कैसे पीछे रह जाता? साहब के गुण होने पर व्यक्ति का आत्मविश्वास दस गुना बढ़ जाता है। अब आप साहब बनने पर ही रिसर्च मत करने लगना , क्योंकि ये सिविल सर्विसेज की परीक्षा से भी कठिन है। पहले तो आप सफ़ल होंगे नहीं, लेकिन यदि आप सफ़ल हो गए ,तो आप कभी भी साहब के दर्ज़े से नीचे नहीं गिर सकते। साहबियत के लिए सिर्फ़ ऊंचाईयों पर पहुंचना ज़रूरी नहीं ... न इसके लिए कोई खास कद काठी का प्रावधान है और न ही किसी विशेष अंदाज़ का। लेकिन देखिये ये अंदाज़े बयाँ का कितना स्पष्ट उदाहरण है कि साहेब...साहिब...साहिबा। सारे शब्द 'साहब' के दूसरी और ही दिखते हैं। अब कुछ देर के लिए गुलज़ार 'साहब' को भूल जाइए। साहब की कल्पना करके मुझे राजशाही याद आ जाती है। 'राजा' और 'प्रजा'.....अब राजा भी ऋग्वैदिक काल की समानता से ऊपर उठकर अशोक के कलिंग विजय उपरांत निरंकुश पितृसत्तात्मक स्तर तक पहुंच ही गया था। रुहेला में इब्नबतूता की लिखावट सुल्तान की क्रूरता याद दिलाती है और फिर मेरा मन 1857 की क्रांति में ब्रिटिश अत्याचारों से भी रुदन करता है। कई संस्कृतियाँ मिट्टी में दफन हो गयी लेकिन ये साहबियत नहीं मरती। जाने कौन सा आब ए हयात पी कर साहबियत आयी है जो इंसान से बढ़कर खुद के वजूद पर इतराती है। अब साहबियत की सोहबत में रहे तब ही आब ए हयात की कुछ बूंदें मिलने की संभावना बढ़ सकती है।

#ख़्याल_ए_साहिबा

Friday 22 May 2020

साहब, साहबियत और साहिबा- भाग 1



'साहब' होना बड़े गर्व की बात होती है। 'साहब' बनने का पहला पायदान होता है अफ़सर होना लेकिन आप ज़ुबाँ से बोल कर देखिये तो 'साहब' में ज़्यादा वज़न लगता है।  'साहब' से मिलता जुलता एक अल्फ़ाज़ और है।'साहेब' जिसमें प्रेम, आदर की प्रबलता है। हालांकि 'साहेब' बहुत से लोग हो सकते हैं लेकिन 'साहेब' और 'साहब' में एक अंतर होता है । 'साहेब' का मान कमाकर मिलता है और 'साहब' का छीनकर। 'साहब' बनना भी सबके बस में नहीं।'साहब' बनने में विशिष्ट गुण अर्जित करने होते है, ये 'साहब' किसी भी प्रकार से ज़माने में कहीं भी 'साहब' बने लेकिन इनकी बात का समर्थन करने वाले कुछेक लोग इनके हृदयप्रिय होते हैं। जहाँ हृदय की प्रसन्नता का प्रश्न होता है वहाँ 'साहब' समझौता क्यों करे भला?
             

साहब की पहचान भी आसान सी होती है। जब आप साहब के समक्ष हों तो साहब फोन पर अपनी रौबदार प्रशंसा कर रहे होते है और शायद उनसे भी बड़े साहब से बात करते हुए आपको ये ज़रूर संकेत दे देते हैं कि वो बड़े ही विशिष्ट श्रेणी से ताल्लुक रखते है। वो आपको नज़रअंदाज़ करते हुए लम्बी बाते करेंगे और आपको बिन कहे जता देंगे कि आप 'सर्वहारा' के पर्याय हैं। साहब का हाड़ मास का शरीर काले कोट में छिपा हुआ सा रहता है। ओह्ह...अब इसमें ये जो काला रंग है उसकी भी अपनी खास विशेषता है। किसी भी रंग को अवशोषित करने की शक्ति उसे दूसरों से अलग पहचान देती है और ये विशिष्ट गुण भी साहब ही रखते हैं।खैर साहब होना खास है, ये तो अकाट्य सत्य है लेकिन साहब के परिवार का हिस्सा होना भी सौभाग्य की बात है क्योंकि साहब के पूर्ण संबंधियों को भी साहब की जेड श्रेणी के लाभ प्राप्त होते हैं या कहें कि साहब का पूर्ण परिवार भी साहब का ही द्वितीय रूप है, तो अतिशयोक्ति न होगी।

बड़ी बड़ी परीक्षाओं से आए ईमानदार अफसरों को भी साहब कुछ नहीं समझते। साधारण जनता तो बहुत दूर की बात है। वैसे एक तरह से साहब होने का ये गुण है अवगुण नहीं क्योंकि साहब की प्रतिष्ठा स्थापन के मानकों पर इनका वर्चस्व होता है,जिसमें ये खरे उतरते हैं। ये मानक आला बड़े दर्ज़े के अफसर भी पूर्ण नहीं कर पाते। यद्यपि कई बार आपको आला अफसरों में भी साहेब मिल सकते हैं और निम्न अफसरों में साहब।

अब साहब की कोई सीमित सीमाएं तो नहीं हैं कि साहब विशिष्ट जगहों पर ही मिलेंगे।ये साहब गलियों के नुक्कड़ों पर भारतीय अर्थव्यवस्था की कुरीतियों पर मंथन करते हुए, बाज़ारों की दुकानों पर चिंताग्रस्त होते..सार्वजनिक स्थानों पर अर्चन करते हुए ....कहीं भी नज़र आ सकते हैं बशर्ते आपकी नज़र कमज़ोर न हो।


गुलज़ार के अल्फाजों की मधुवर्षिणी ने उन्हें भी 'साहब' बना दिया लेकिन जिसका हृदय मानवीय संवेदनाओं की स्याह कलम से कागज़ पर दृष्टि चित्र बनाता रहे वो साहब नहीं हो सकता । ये लोगों की असीम मुहब्बत की पराकाष्ठा है कि वो साहेब से साहब बना दिये गए। ये साहब शब्द के विशिष्ट गुणों से रहित होने पर भी लोगों की धड़कनों के साहब हैं। इस प्रकार के उदाहरणों में साहब व साहेब का घालमेल सा है या कहें कि असल साहब की विवेचना ऐसे साहब से करना तर्कसंगत नहीं।साहिबा शब्द कभी लोकलुभावन नहीं बन सका जिसके बहुत से आयाम हो सकते हैं याने साहिबा की तुलना साहब से नहीं हो सकती और ये ज़िम्मा मेरे ही सर पर क्यों हो?

मुझे वाक़ई यदि अल्लाह या ईश्वर की दृष्टि प्राप्त होती , तो यकीनन इस धरती के तैरते भूखण्ड की पूर्ण जानकारी दिल व दिमाग़ में होती लेकिन इंसानी उम्र भी एक सज़ायाफ्ता सी है जो सबको अलग अलग मुकर्रर है। सभी इंसानी दिमाग़ , कुछ लोगों के परीक्षणों, अनुभवों, विचारों के आधार को मानकर बनाई गई किताबों से पढ़कर आधार बनाते रहे हैं और इन बने बनाये आधारों से जीवन में लोग बुद्धिजीवी भी कहलाते है। वरना दो से तीन पीढ़ीयों तक हुए संसूचन तक सीमित ये इंसान इतना तार्किक नहीं हो सकता। अंग्रेज़ भारत में आये और भारतीय संस्कृति में अपनी जड़ें छोड़ चले गए। हमने उनके शासन को तिरोहित कर दिया लेकिन ये जो दिल है उसने ये ग़ुलामी नहीं छोड़ी और ज़माना साहब लोगों से भरता गया। गाँधी जी ने देश के लिए जो भी काम किया हम उस दौर में उनकी बराबरी नहीं कर सकते। गाँधी जी के साथ देशव्यापी जनसमूह होने पर भी गाँधी जी , गाँधी साहब नहीं बन सके। 'सर' जैसे मानको को वो पहले ही छोड़ आये थे लेकिन इतना लोकप्रिय किरदार साहब क्यों नहीं बन सका?

कहीं ये साहब शब्द अंग्रेज़ी हुकूमत की रहनुमाई में तो नहीं पल रहा था। फिर गुलज़ार साहब और गाँधी जी की लोकप्रियता के मानक अलग अलग मानो में क्यों आकलित किये जायें। अंग्रेज़ी हुकूमत के बाद काफी जगह साहब शेष रहे। उस सूखी हुई साहब लता से कई हरित कलियाँ प्रस्फुटित हुई और साहबियत कि जमात कई गुना बढ़ गयी। इस स्वतंत्र हुए लोककल्याणकारी देश मे पहले नाम से साहब बन गए .... फिर नकलियत के लिबास को बदलते बदलते अपने आपको एक बार फिर से पराधीन कर दिया। एक दिमाग़ की सोंच आदमी को कभी कभी लिंकन, मंडेला, गाँधी बना देती है और कभी इंसानियत भी छीन लेती है। आप कौन साहब या साहेब हैं , वो नज़र साहबियत नहीं देख सकती।




4. हैदराबाद.....राजा और निज़ाम


                        हैदराबाद...निज़ामियत याद आ जाती है न? कभी निज़ाम का शहर हुआ करता था।आज किलेशाही के अवशेष अपने अस्तित्व को बयां कर रहे हैं। अब चूँकि हैदराबाद की निज़ामत मशहूर है तो गोलकोण्डा जैसे भव्य किले को देखना मजबूरी बन ही जाती है। दक्खिन के छोटे पठार तत्कालीन शासकों के सांस्कृतिक व कलात्मक रुझान के चलते खूबसूरत विश्व विरासतों में तब्दील हो गए। चाहे मुंबई की एलीफेंटा हों या औरंगाबाद की एलोरा.....चंदेल, पांडेय, चोल, पह्लव शासकों ने इन अद्भुत कृतियों के द्वारा अपने वंशजों के नामों को जीवंत किया है। चलिए वापिस निज़ाम के शहर लौटते हैं..गोलकोण्डा। गोल मतलब राउंड और कोंडा याने किला। ऐसा भी कहा जाता है कि किसी गड़रिये ने काकतीय राजा को इस पहाड़ी पर किला बनाने की सलाह दी थी इसीलिये ये 'गड़रिये की पहाड़ी' भी कहलाता है। सबसे साधारण अर्थ 'ऐसा किला जो गोल हो'।

शुरुवाती दौर में काकतीय राजाओं ने इस पहाड़ पर विशालकाय किले को निर्मित कर शासन किया। सन् १६६३ में इसी वंश के राजा कृष्णदेवराय ने, एक संधि के अनुसार 'गोलकोण्डा' किले को बहमनी वंश के राजा मोहम्मद शाह को दे दिया। बहमनी वंश की अलोकप्रियता को देखते हुए इन्ही के सूबेदारों में से एक कुतुबशाह ने अपनी सल्तनत कुतुबशाही को स्थापित कर दिया। काफी लंबे समय तक गोलकोण्डा का तख्त शासकों की मौजूदगी का साक्षी रहा। कितने ही घोड़ों की चापों में सैनिकों की सुरक्षा का घेरबन्द था और किले के दूसरी और जाता रास्ता , जिसमें पालकी द्वारा शासक जाते थे। पालकी ले जाने वाले लोगों में भी दो लंबे व दो बौने लोग होते थे ताकि पालकी का साम्य स्थिर रहे। कुतुबशाही राजाओं ने महल के कई हिस्सों के निर्माण करवाया और कहते हैं कुतुबशाही की रानी के लिए ही हैदराबाद शहर बसाया गया। कितनी खुशनसीब होती थी वो रानियां जिनके नाम से पूरा शहर ही बसा दिया जाता रहा होगा। आज तो कल्पना करना भी गुनाह हो जाएगा।ऊपर से संपत्ति पर आयकर विभाग की नज़र...खैर रानी को ही खुशनसीब कहा जा सकता है। खुशनसीबी व वैभव ज्यादा समय तक स्थायी नहीं रह करते। जब दक्खिन ऐश्वर्य में विलीन था तब औरंगज़ेब ने हैदराबाद और गोलकोण्डा पर आक्रमण कर दिया। शहर तहस नहस हो गया। गोलकोण्डा खून के आँसू रोने लगा।किले की दीवारें नेस्तनाबूत हो गईं और ऐसे में बादशाह ने मेलजोल को बढ़ावा देने हेतु औरंगजेब के बेटे मोहम्मद सुल्तान से अपनी बेटी की शादी की शर्त पर संधि कर ली किन्तु उसके बाद भी कुतुबशाही पर औरंगजेब ने दोबारा आक्रमण किया। अपनो के दगा के कारण कुतुबशाही का अंत हो गया। कुतुबशाही के अंत के बाद निज़ाम के तख्त हथिया लिया और नई व्यवस्थाओं ने जन्म लिया।

                                    किले के अंदर जाने पर कुछ महत्वपूर्ण विशाल संरचनाएं थी जिनकी छत पर हीरे की नक्काशी जैसी कारीगरी उकेरी गई हैं। यदि इस संरचना के मध्य में ताली बजाए या कोई भी आवाज़, जो महल में दूर तलक गूंज जाती थी। अंदर के कुछ कक्षों में तो दासियों की कानाफूसी सीधे राजकक्ष में सुनाई देने की व्यवस्था थी। कितनी अजीब बात है न...कि वो प्राकृतिक विज्ञान जो इतना रक्षात्मक था। आज नहीं दिखता। इस किले को बाहरी 7 घेरों से सुरक्षित किया गया होगा, जिसके अवशेष शहर के बीच बीच आकर अपने वजूद को पुख़्ता करते हैं।

किले के अंदर जाने पर दायीं और एक बंद बावड़ी जैसी संरचना थी, जिसमें मरणोपरांत बादशाह को सुवासित द्रव्यों से स्नान कराकर महल के दूसरे रास्ते से बाहर निकाला जाता था।किले के ऊपरी टीलों से 8 गुम्बदनुमा संरचनाएं अपने अंदर राजा के अवशेषों को शांति से सहेजे व्यक्त करती दिखती थी। गोलकोण्डा के ऊपरी भाग पर दुर्गा व काली का मंदिर स्थापित था। जब मैं ऊपर की और बढ़ी तो किले के नीचे से ऊपरी भाग पर जाने वाली सीढ़ियों पर स्थानिक महिलाएं टीका लगाती हुई मंदिर की और आगे बढ़ती जा रही थीं। अद्भुत संगम दिखा। हिन्दू व मुस्लिम समाज एक किले के अंदर पोषित होता रहा और एकता जीवंत रही , जिसे मैं ध्यान से देख रही थी । दूसरी और से नीचे उतरते वक़्त मेरी नज़र रानियों के सौंदर्य कक्ष पर पड़ी,जहाँ कभी आईने लगे होंगे, रानियों के अगिनत कक्षों के अवशेष अपने साथ हुए अत्याचार को दर्शा रहे थे।एक बड़ा प्रांगण जिसमें तारामती जैसी कलाकार नृत्य करती थी। राजा व रानी के बैठने के स्थान के पास एक शीशे को देखकर कोहिनूर मुस्कुराता था और इस तरह सारा रंगमहल रोशन होता रहा होगा। अलग से पड़े दो भण्डार कक्षों में  तत्कालीन हथियारों को रखा गया था। सब कुछ कितना व्यवस्थित था। पानी की आपूर्ति की व्यवस्था पूर्ण किले में जगह जगह पर अपनी सफल कार्यप्रणाली को सुना रही थी। वार्ता वहाँ पर मौन होती है जहाँ एक और आवाज़ का अभाव रहता है..फिर यहाँ तो मौन भी बहुत कुछ कहता था।

         कितनी पीढ़ियाँ बीत जाती हैं किन्तु संरचनाएं उन्हें याद रखती हैं और हम लोग संरचनाओं को देखते हैं लेकिन जो लोग इन संरचनाओं को जीते हैं उनका हृदय इन खंडहरों के विलाप को ज़रूर सुन पाता होगा,जो बरसों से किसी अपने के मिलने की आस में आज भी खड़े हैं।

हम कितनी यात्राएं करते हैं,जीवन भी एक यात्रा है। साथियों का कारवां हो तो यात्राएं सफल हो जाती हैं। इतिहास जब सामने खड़ा होकर अपनी पहचान बताता है ,तो सभी को उससे सीखना चाहिए। पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर इतिहास का बदला अब लेने की कामना करना कहाँ तक सही है? आज के कृत्य भी कल का इतिहास बनेंगे। भारत देश की विभिन्नता से ही देश की मौलिकता है और  भारत अलग अलग परिधानों से सजा अच्छा लगता है । बस भारत को अलंकृत करने की ज़िम्मेदारी हम सबकी है।

Thursday 21 May 2020

3. बैंगलोर.... वाडियार और सुल्तान का शहर....


             बंगलुरू... जिसे पहले बैंगलोर कहा जाता था, मैंने आई टी कंपनियों के शहर के नाम से उसे जाना था। जब मैंने इस शहर को प्रथम बार देखा तो उस शहर के मौसम ने मुझे मोह लिया। सड़के भोपाल की तरह साफ दिखी। दुकानों पर ऊंची ऊंची मेजों पर आदमी खड़े होकर खाना खाते दिखे। वड़ा, उत्तपम, डोसा, रसम को स्वाद की लड़ाई से लड़ते देखा। फूलों को डोर में बंधते और फिर गजरों में महकते देखा। बड़ी बड़ी इमारतों में जीवन को गुज़रते देखा और फिर शहर भी तो अपनी पहचान रखता था। इतिहास कितना मजबूत होता है जो शहर को याद दिलाता है उसकी पहचान....वाडियार का शहर कहूँ या टीपू सुल्तान का ? इतना धार्मिक आकलन करने की बजाय इसकी प्रासंगिकता पर ध्यान देना चाहिए, जिसे मैंने स्वयं के विवेक से तथा वहाँ के जन मानस के हृदय से महसूस किया। पूर्व सत्ता का केंद्र मैसूर था। मैसूर यदु वंश के वाडियार शासन का तकरीबन  550 वर्षों तलक साक्षी रहा । फिर हैदर अली ने राजवंश के अधीन रहकर सत्ता काबिज़ की। इसका एक ही कारण नज़र आता है कि हैदर व टीपू सुल्तान अपनी मातृभूमि पर ब्रिटिश सत्ता का परचम नही फहराने देना चाहते थे। खैर ...सत्ता परिवर्तन होने पर रॉकेट जैसे हथियार अस्तित्व में आये और भी कई प्रेरणाएं मिल सकती हैं। मैं भी कहाँ तथ्यात्मक हो चली। चलिए वो बात कहती हूँ जो मैंने देखा व महसूस किया।
               
              बंगलुरू के पैलेस के द्वार पर कर्ण ढापन एक स्वचालित यंत्र पकड़ कर मैं महल के हर एक खंड पर छपी बिंदु संख्या के नम्बर को दबाते हुए सुनते हुए आगे बढ़ती रही। लगभग 1 से 22 बिंदुओं पर मैंनेे जानकारियां हासिल की। उसमें एक जगह पर कहा गया कि... 'कृष्णराज वाडियार द्वितीय के काल में हैदर अली ने उनके नाम से शासन किया तदोपरांत टीपू ने स्वयं के नाम से सत्ता संभाली।'
                 
              मुझे कहीं महसूस नहीं हुआ कि हिन्दू या मुस्लिम जैसी कोई विरोधात्मकता मेरे समक्ष आयी हो। स्थानिक लोग भी वाडियार या टीपू सुल्तान के गौरव को उल्लिखित करते हैं। मुझे ये एकता दिखाई दी और यहाँ पर इंसानियत जीतती हुई प्रतीत हुई। अंग्रेजों ने भारत के साथ क्या किया? उसके परिणाम सार्थक थे या नहीं।अभी ये परिचर्चा का विषय नहीं। हम इतिहास पढ़ते हैं...क्यों? ताकि हम परिवर्तन देख पाएँ और भविष्य को उसकी प्रेरणा लेकर उन्नति की और अग्रसर हों। पर मुझे बड़ा अफसोस होता है कि भारतीय समाज अपने ही घर में बंटा हुआ सा दिखता है...और जो बाँट कर गए उनके प्रति तो कोई सोंच ही स्थापित नहीं हो पाती। खैर, मैं फिर से वाडियार पैलेस से कहाँ चली गयी..वापिस आती हूँ, उन आलीशान आलियों की नक्काशियों पर जो दीवारों, छतों और ज़मीन के रंगीन पत्थरों की सजावट से मुस्कुराती हुई इतराती थी। वो बड़ी नायाब पेंटिंग्स जो आज भी दीवारों पर उस कलाकार के हाथों की तारीफ करते नहीं थकती थी। वो कई कमरे , जिसमें शाही परिवार रहते थे। वो सुनसान रनिवास, जो पर्दा प्रथा के कारण महल के सबसे अंदर के हिस्से में अवस्थित था, उसमें साजो सामान व मनभावन आईने आज भी अपनी रानियों का मुख देखने को तरसते दिखे। वो खूबसूरत सी कुर्सियाँ आज भी स्वागत तत्पर दिखी। इतने वर्षों के बाद भी वो वाडियार पैलेस दर्शकों से लबरेज़ है। वाडियार शासक अंग्रेजों की कृपा पर रहे और शानोशौकत शीर्ष तक पहुँच गयी । वाडियार खानदान की पीढ़ियाँ फ़ोटो फ्रेमों में सजकर अपने स्वर्णिम काल को दर्शाती रही। आँखे थकने लगी किन्तु दीवार अभी भी बहुत कुछ दिखाने को तत्पर दिखी।
     
                  बंगलुरू शहर में ही मैंने टीपू का ग्रीष्मकालीन महल देखा। 11 वर्ष तक ये उसका ग्रीष्मकालीन आवास रहा। वो लकड़ी का बना हुआ था..साधारण सा, जिसमे टीपू के कुछ चित्र बने थे। कुछेक चित्रों से अंग्रेजों के प्रति उसका बैर परिलक्षित होता था लेकिन महसूस किया कि उस आँगन में कितने सैनिक रहते होंगे, वो छोटा सा महल कितनी आवाज़ों से गूँजता होगा..यह सोंचते हुए सोपान से नीचे उतरते हुए रेलिंग के हिलने को महसूस किया।
वाडियार और सुल्तान ने बंगलुरू को एक पहचान दी। आज मैसूर, श्रीरंगपट्टनम , बंगलुरू इतिहास दिखाते हैं ..लेकिन इतिहास की सफलता इसी में है कि हम क्या देखते हैं?

क्रमशः....


राजा भोजपाल का भोपाल.....क्रमशः



पत्थर दिल इन्सान की उपमा जब दी जाती है तो मानव स्वभाव की कठोरता को ज्यादा प्रभावी माना जाता है। ये पत्थर की स्वयंसिद्ध कौशलता ही है , जो उसे साबित नही करनी पड़ती। क्या पत्थर जैसा भी कोई दिल होता है?पत्थर कठोर कैसे हो गया भला? जबकि उस पर हथौड़े की मार करके वो टूट ही जाता है । फिर पत्थर का दिल भावना विहीन कैसे हो सकता है?
  आज विंध्याचल पर्वत की श्रेणियों में बसे भीमबेटका की चट्टानों को देखा। कोई चट्टान आदि मानव की कुशल कलाकृतियों का बयान करती थी और कोई अपने सागर विलीन होने का। वो पहली चट्टान भी बड़ी चीखती थी...उस बचपन की आवाज़ से, जिसका एक नन्हा मासूम हाथ भी उन कलाकृतियों के मध्य अपनी उपस्थिति दर्ज कराता था। समय कितना ही पुराना हो, अपने जैसी भावनाओं से अभिप्रेत कलाकृतियां बड़ी अपनी से लगी और वो मासूम आंखों के आगे चलने लगा। मुझे पत्थरों से बड़ा प्रेम रहा और पत्थरों ने भी मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा। विंध्याचल श्रेणियों के बाद उदयगिरि को देखा । साँची स्तूप व बौद्ध विहार परिमालाओं को देखा। बड़ी व्यवस्थित संरचनाएं मौन थी किन्तु मौन होने पर भी वो इतना कैसे मोह लेती थी?कितने वर्षों से इशारों में बात करती ये पत्थर की संरचनाएं । बस पुरातात्विक सर्वेक्षण के रखरखाव पर निर्भर हो चली। खुद उनका बचा ही कौन? कंक्रीट और आधुनिक जीवन शैली ने तो इन पत्थरों के जीवन को ही लील लिया। साँची स्तूप , जिसके लिए बौद्ध धर्म या अशोक सम्राट के बारे में किताबों की सैकड़ो फेहरिस्त हैं। साँची के चित्र बोलते बोलते थक जाते हों किन्तु मेरी आँखें उन हाथों की कर्जदार हैं जो इतने बरसों बरस के बाद भी उन नक्काशियों के तराशने को प्रतिबिंबित करती हैं। ये लोगों से बोलते पत्थर अकेले सुनसान में जीने को मजबूर से हैं। पत्थरों के दिल भी टूटकर कितना रोते हैं। ये तो पत्थर का दिल ही बता सकता है। पत्थर जैसा दिल हो या पत्थर का दिल....तन्हाई में विलाप तो करता ही होगा । इन पत्थरों से हम इतिहास देखते हैं, ये हमारी आँखे हैं और जीवन आँखों के साथ जीना भी बड़े सौभाग्य की बात है और मैं सचमुच गर्वित हूँ कि मैंने एक बार फिर इतिहास के एक पन्ने को जिया और मेरे जीवन का एक दिन और सफल हो गया...पर मैं उन पत्थरों के दिल को चुप न करा पायी...वो अपने वर्तमान पर रो रहे था और मैं अपने इतिहास को जी रही थी। शुक्र है कि उनके पास अपने दर्द की कराह को सुनाने के लिए सुख दुख के साथी .....गिलहरियाँ , वृक्ष , कलरव करते पक्षी शेष हैं।
             जब मैंने कर्क रेखा को पार किया लगा आसमान छू लिया। यूँ तो धरती पर कई रेखा हैं और यदि मेरे मन की बात कहूँ तो मुझे तो सिनेतारिका 'रेखा' का ही ध्यान आता है। देखने का नज़रिया अलग है सबका   "रेखा के पास कुछ नहीं और रेखा के पास सब कुछ है।" अब लोगों के पास कुछ तो काम होना चाहिए लेकिन ज़मीनी खींची रेखाओं की भी अपनी हक़ीक़त है, कोई रेखा धरती बाँट कर देश का निर्माण कर देती है और कोई न कहते हुए भी धरती के देशों को बाँध देती है ताकि बंटे हुए धरती के टुकड़े अंतरिक्ष मे बिखर न जाएं । ओह...मैंने भी अपनी सीमा रेखा तोड़ डाली कहाँ पहुँच गयी। वापिस धरती पर आती हूँ।
        धरती का एक टुकड़ा भारत और उसके अंदर का एक टुकड़ा मध्य प्रदेश। मध्य प्रदेश के 14 जिलों से ये रेखा गुज़रती है। लगता है कर्क रेखा को मध्य प्रदेश को ज्यादा संभालना पड़ता है। रतलाम से शहडोल तक की रेखा में मैं तो विदिशा की ही बात करूँगी क्योंकि मैंने तो पहली बार यहीं पर इस रेखा का प्रकटीकरण देखा। लगा जैसे पूर्ण ग्लोब पर खींची रेखा को पकड़ लिया हो। रेखा पार करने पर भी मेज़ पर रखा हुआ ग्लोब याद आया। कभी कभी अहसास हमें जोड़ देते हों, ये नियम ,कानून, देश, धर्म , जाति जैसी बड़ी बड़ी परंपराएं और हज़ारों खण्डों में विभक्त हमारा छोटा सा जीवन...पर हम जीवन को छोटा नहीं मानते तभी तो मानवीय जीवन मे भी इतनी बड़ी दीवारें बना दी गयी हैं। हकीक़त तब नज़र आती है जब हम आसमान से धरती को देखते हैं। अपना अस्तित्व कितना बौना नज़र आने लगता है। सोंचिये अगर कल्पना चावला की तरह हम अंतरिक्ष के सफर पर होते तो धरती जैसे कितने टुकड़े दिखते। हज़ारों हज़ार टुकड़ों के बीच एक 'मानव' जीवित होता होगा। दिल चाहता है कि टुकड़ों के इस संसार में मानवीय मूल्यों के टुकड़े न हों। क्या कर्क रेखा से जोड़ने का गुण नही सीखा जा सकता।

क्रमशः......

Wednesday 20 May 2020

2.राजा भोजपाल का भोपाल.....भीमबैठका ,साँची व संस्कृति की मिसाल।


          भोपाल....झीलों का शहर । मैंने राजा भोज के बारे में अपनी प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ा था कि भोजपत्र का वृक्ष विंध्याचल श्रेणी में पाया जाता था । हिंदी की किताब में लिखा था कि राजा भोज भोजपत्र पर लिखते थे सो राजा भोज आगे चलकर राजा भोजपाल कहे जाने लगे। एक धुँधली सी तस्वीर है आँखों में.... एक राजकुमार की जो भोजपत्र पर लिखते हुए एक पन्ने पर दर्शाया गया था। कालांतर में भोजपाल नाम ही अपभ्रंश रूप में भोपाल कहलाया। स्मृतियाँ मरती कहाँ हैं ? बस दिमाग एक कंप्यूटर की तरह मेमोरी में सुरक्षित करता जाता है। भोपाल की उस बड़ी झील में , जिसे भोजताल भी कहते हैं। राजा भोज प्रतिमा के रूप में अपने राजसी भंगिमा में खड़े थे मानो आने वाले के स्वागत को तत्पर हों। मैंने तो अपनी स्मृति में राजकुमार देखा था, यहाँ मैंने मूँछो से सुसज्जित पुरुष को देखा। इस प्रतिमा को देखकर विश्वास हो चला कि मैं अब भोपाल में हूँ.. भोपाल में हिन्दू व मुस्लिम संस्कृतियों के शासन के कारण एक मिली जुली सभ्यता के दर्शन हो जाते हैं। कहा जाता है कि 11 वी सदी में भोजपाल ने भोपाल को स्थापित किया फिर अफगान योद्धा दोस्त मोहम्मद खान ने इसे बसाया....देखिए न यहाँ भी संस्कृतियां बहुत मिलती थी।

           दर्शनीय स्थलों के बारे में लिखने से ज्यादा प्रासंगिक बातों को लिखना चाहूँगी। मैं काफी पहले हाजी अली की दरगाह पर गयी थी और एक बार जामा मस्जिद लखनऊ में जाते वक्त मुझे मालूम हुआ कि स्त्री होने के कारण मैं अंदर नही जा सकती। भोपाल में भी मैंने चाहा कि एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद ताजुल को मैं देखूँ। इस बार आश्चर्य हुआ कि स्त्रियों के देखने के लिए ये खुली थी। बस सिर्फ नमाज़ के वक़्त और शाम 5 बजे बाद मदरसे के कारण स्त्रियों पर प्रतिबंध था।जो भी हो महिलाएँ कम से कम य यहाँ इसे खुलेपन को देख पा रही थीं, ये एक अच्छी बात थी। शौकत महल, सदर मंज़िल, मोती मस्ज़िद ....खंडहरों सी जान पड़ती थी। गौहर महल में अंदर जाने का मौका मिला। कहते हैं किसी रानी का पहला महल था, जिसके ऊपरी हिस्से से शहर को देखा जा सकता था। सबसे ऊपर के कमरे के दरवाज़ों पर शीशे की नक्काशी को निगाहें खोजती सी रही। नीचे के आँगन से ही उस कमरे को देख पा रही थी। निगाहों ने उस दृश्य को हल्के से छुवा।वो खंडहर बड़ा शांत था अब शायद प्रदर्शनी लगाने के काम मे लाया जाता है।


 भोपाल की सड़कें आईने के समान होती प्रतीत हुई किनारों पर मध्य प्रदेश की चित्रकला के नमूनों से जनजातीय समाज की प्रतिभा झलकती थी...खैर ये तो राजधानी की सड़कें थी । कुछ आगे चलते हैं। मैंने गौर किया कि सरकार के द्वारा वहाँ की कला व संस्कृति के पुनर्जीविकरण हेतु कई केंद्र स्थापित किये गए थे।जनजातीय समाज के रहन सहन, उनकी अलग अलग कृतियों को दर्शाता संग्रहालय। मेरे शब्दकोश में ऐसी व्यवस्था हेतु शब्द नहीं रहे। मध्य प्रदेश में गोड, भील, बैंगा,सहरिया, कोल जैसी लगभग 46 जनजातियाँ हैं, जिनकी जनसंख्या भी कुल जनसँख्या की लगभग 20 प्रतिशत होगी। मैं उन जनजातियों को उन कलाकृतियों द्वारा महसूस कर पा रही थी।


जनजातीय संग्रहालय के बाद भारत भवन देखा, जो राज्य के मुख्यमंत्री आवास करीब ही था। शायद मैं मिट्टी को आकृतियों में ढालते वो हाथ न देख पाती यदि मेरे मित्र अनिल जी मुझे देवीलाल पाटीदार जी से न मिलाते। कितने पढ़े लिखे लोग....भारत भवन के एक खंड में जगमग दुनिया से दूर तराश रहे थे, मेरे भारत की मिट्टी को....वो मिट्टी से बर्तन बना रहा था...मैं एकटक देखती थी..लगता था कोई अपने बच्चे को संस्कार दे रहा हो। कच्ची माटी को चाक के पहिये पर घुमाते घुमाते देखना सुखद था। न उसके हाथ थके और न उसकी निराशा बढ़ी। मिट्टी के बर्तन भी कई हाथों की करिश्माई का नतीजा होते हैं। कितनी कला होती है इन हाड़ मांस की उंगलियों में....फिर एक खण्ड में एक पेंटिंग उकेरने की मशीनों को भी देखा, जिसे कई लोग बनाते होंगे। कितनी सारी पेंटिंग्स ...सिर्फ चित्र ही तो थे मेरे लिए। जब देवीलाल जी ने कुछ पेंटिंग्स के अर्थ समझाए तो मेरा व्यवहारिक ज्ञान भी जवाब दे गया। कुछ लोग ज्ञान के सरोवर होते हैं और उनमें ये कला होती है कि वो कबीरदास की एक पंक्ति की तरह राई को पर्वत कर सकते हैं व पर्वत को राई। खैर पेंटिंग्स के क्षेत्र में पारंगत न होने पर भी मुझे उन पेंटिंग्स को समझने की चेष्टा हुई जिसे देवीलाल जी ने बताया ।


  आज सोंचती हूँ भोपाल शहर को यदि भोजपाल ने देखा होता तो शायद उसे निराशा न होती बल्कि कला व संस्कृति के इस उन्नयन को देखकर उसे गर्व की अनुभूति हो रही होती उस झील के अंदर भोजपाल की मूर्ति ऐसे ही गौरवपूर्ण अंदाज़ में सबको अपनी  पहचान बता रही है।


                ...........क्रमशः

Tuesday 19 May 2020

भारत भ्रमण......ऐतिहासिक सफ़र के साथ।



  यही शीर्षक उपयुक्त लगता है। हालाँकि शीर्षक का अपना एक महत्व होता है। मैंने भ्रमण पूर्व में भी किये। जब पंतनगर से हम सारे बैच के लोग मुंबई, रत्नागिरी, मंगलुरु, केरल, तमिलनाडु गये थे। उस समय की भी अपनी यादें थी, जो मेरी डायरी के पन्नों में कहीं दबी सी हैं। उस समय सोशल मीडिया भी नही था और प्रोजेक्ट रिपोर्ट जैसे कृत्यों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता था। वहाँ की पढ़ाई ही अपने आप में इतनी महत्वपूर्ण थी कि सुबह से शाम हो जाती थी और कक्षाओं के दौर खत्म नहीं होता था। आज व्यक्ति सोशल मीडिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में स्वतंत्र है । वो कहते हैं न....ज़माना बदलते देर नहीं लगती....
                           
             जीवन में कई अनुभव अनायास ही हो जाते हैं। अनुभवों से व्यक्ति सीखता चला जाता है। मैं भ्रमण अनुभवों के हृदय स्पंदन आपसे साझा करना चाहती हूँ।आशा करती हूँ कि आपको पसंद आएं....
             

 1. कानपुर..1857..कंपनी बाग़..और वो बूढ़ा बरगद....बड़ा मॉल .....मेस्टन रोड.....और आखिर में ठग्गू के लड्डू तक का सफर......


             RBI से लौटते हुए कंपनी बाग़ देखा। लोगों के लिए कुछ खास नहीं था, सब लोग घूम रहे थे, लेकिन वो बूढ़ा बरगद खड़ा था .....बूढ़े बरगद की ही संतति है ये पेड़, जिसने खून की नदियां देखी, नृशंस हाथों को खून से सनते देखा । वो सिर्फ रोता रहा। आज भी शायद सिसकियाँ लेता दिखाई दिया।1857 में मेरठ में विद्रोह की आग सुलगते सुलगते कानपुर तक पहुंच गई। आज़ादी का मतलब पता हो या न हो, अंग्रेज़ों के अत्याचार पर एक चेतना तो विकसित हो ही गयी थी और इस चेतना के प्रस्फुटन से तो ईस्ट इंडिया शासन घुटनों पर आ गिरा था और इसी मजबूत चेतना से घबराकर अंग्रेजों ने कानपुर छोड़ने का फैसला लिया। 27 जून 1857 में अंग्रेज अफसर और उनके परिवार सतीचौरा घाट से नाव से होकर इलाहाबाद के लिए रवाना हो रहे थे। तात्या टोपे, बाजीराव पेशवा के साथ अन्य लोगों का जमावड़ा भी वहां था..
।नानाराव पेशवा करीब दो किलोमीटर दूर थे। सकपकाए अंग्रेजों ने गलतफहमी में कुछ गोलियां चला दीं। भारतीय थे न...सो उनका अधिकार था ये और गोलियां क्रांतिकारियों को लग गई। इसके बाद क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। काफ़ी अंग्रेज मारे गए।क्रांतिकारी अंग्रेज अफसर और सैनिकों को मौत के घाट उतारने के बाद महिलाओं की तरफ बढ़े । महिलाओं की स्थिति तो हर काल मे बुरी ही रहीं। मुझे वो अंग्रेज़ो से ज्यादा 'महिलाएं' लगी । असहाय ....खैर जब क्रांतिकारियों की भीड़ उन महिलाओं की और बढ़ी तो नानाराव पेशवा ने उन्हें रोक कर अंग्रेज महिला-बच्चों को बंदी बनाकर सुरक्षित बीबीघर (वर्तमान में नानाराव पार्क और तत्कालीन कंपनी बाग) भेज दिया।
                  बीबीघर एक अंग्रेजी अफसर का बंगला था। यहां बंदी अंग्रेज महिला-बच्चों की जिम्मेदारी हुसैनी खानम नाम की महिला को दी गई। कहा जाता है कि जुलाई में अंग्रेज सेना फिर कानपुर में प्रवेश कर गई और फिर वही खून का खेल खेलने लगे। कहीं तो लावा फूटना ही था। कहा जाता है कि इसकी हुसैनी खानम ने 16-17 जुलाई की आधी रात को गंगू, इतवरिया और एक जल्लाद को बुलाकर लगभग 125 बंदी अंग्रेज़ महिला-बच्चों की हत्या करवा दी और लाशें पास के कुएं में फेंकवा दीं। उस कुएं को पाट दिया गया, जहां नानाराव पार्क की स्केटिंग है । फिर ये कानपुर सुलगता रहा और इस आग की लपटों में कितने ही निर्दोषों को मारा गया। बूढ़े बरगद पर भी इसी गुस्से में अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी पर लटका दिया। 1857 से पहले भारत सर सैयद अहमद खान की उस पंक्ति में बसा था, जिसमें लिखा था " हिन्दू व मुसलमान नववधू की दो आँखें हैं , जो एक साथ हँसती हैं और एक साथ रोती हैं।"इस घटना के बाद अंग्रेजों ने भारत के अंदर खाई पैदा कर दी और 'हम'...जो आज भी सभ्य नही कहलाते, उस समय अंग्रेजों की योजना को सफल बनाते हुए बर्बरता की सीमाएं लांघ गए और आज़ादी के बाद भी अपनों में द्वेष बना रहा। चाहे 1947 के दंगे हों या फिर 2002 के गुजरात की हिंसा।चलो इस पेड़ के सामने खड़े होकर हम अपना इतिहास तो समझ ही सकते हैं। मैंने मिट्टी में ख़ाक हुए लोगों की ज़मीन पर बनाये इस कंपनी बाग़ में चमगदाड़ो को उड़ते देखा और बच्चों को खेलते हुए देखा.....कुछ सफ़ेद टोपियों में थे और कुछ तिलक लगाए थे। ये बचपन सबसे हसीन लम्हा है जो सिर्फ भाईचारा समझता है...बूढ़े बरगद को कम से कम इनको देखकर संतोष होता होगा.....
                 कानपुर बड़ा गर्म सा है, यूँ तो अगस्त की शुरुवात है, पर गर्मी का अपना कहर है। गूगल पर खोजनेपर कई स्थान नज़र आ जाएंगे। मैं जहाँ जहाँ गयी, वहीं का वर्णन लिख रही हूँ...कानपुर के गोल चौक के पास एक बड़ा...और खूबसूरत सा मॉल है.... जेड स्क्वायर। मॉल को फूल, बेलोें जैसी वस्तुओं से काफी मेहनत से सजाया गया था....वहाँ से बाहर कुछ दूरी पर मेस्टन रोड थी। पैर आराम तो चाहते थे किंतु कुछ साथी पैदल चलने के शौकीन थे तो मैंने भी चमड़े के सामानों की दुकानें देखी । चमड़े के बारे में भी एक इतिहास है।
                           चमड़े की वस्तुओं के लिए प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका कानपुर आज भारत के प्रदूषित स्थानों में से एक है....कानपुर का लंबा इतिहास है । 1773 में जाजमऊ की संधि के पश्चात कानपुर का सम्बन्ध ब्रिटिश राज से स्थापित हुआ। इसके बाद अंग्रेजों ने 24 मार्च 1803 को कानपुर जिला घोषित कर विश्व मानचित्र पर ला खड़ा किया। अमेरिकी गृहयुद्ध (1861-1865) के दौरान कानपुर का प्रादुर्भाव उत्तर भारत में औद्योगिक नगर के रूप में हुआ। जिसके तहत सबसे पहले यहां पर अंग्रेजों ने चमड़ा के उत्पाद बनाने के लिए फैक्ट्री खोली। इसके बाद सूती मिलें सरकारी व निजी क्षेत्र की बहुतायत में खुली। जिनमें लाल इमली, म्योर मिल, एल्गिन मिल, कानपुर कॉटन मिल और अथर्टन मिल काफी प्रसिद्ध हुईं। जिससे यह शहर मैनचेस्टर ऑफ द ईस्ट के रूप में विश्व में विख्यात हो गया। गंगा के किनारे बसे इस शहर को अंग्रेजों ने औद्योगिक हब बनाने का सिलसिला शुरू किया और  1863 में चमड़ा सिझाने के लिए एक सरकारी फैक्ट्री की स्थापना का प्रस्ताव किया गया। फिर बाद में अश्वसेना से संबंधित चमड़े का साजोसामन बनने लगे, जिसके बाद से अतिथि तक कानपुर के चमड़ा उद्योग ने देश ही नहीं विदेशों में भी अपनी धूम मचा दी। हमने कपास से कपड़े तक का सफर देखा था अंग्रेज़ो के राज में....चमड़े का भी सफर कुछ ऐसे ही था। यूरोपियन देशों में चमड़े के कितने उद्योग होंगें , ये तो नहीं जानती किन्तु भारत को दूषित करने में भी अंग्रेज़ पीछे नही रहे। हमारी गंगा में शुद्धिकरण हेतु बक्टेरियोफेज वायरस भी मरणासन्न हो गए और धार्मिक व जीवनदायिनी गंगाऔद्योगिकरण के कचरे के कारण आचमन योग्य भी न रही और उसे बाद आर ओ जैसे यंत्रों की बाढ़ आ गयी। इतना ही नहीं , अब तो हालात और भी बदतर हो चले, कई कई घर चमड़ा उद्योग के कारण चल रहे हैं। बात करने पर पता चला कि कुछ जनसँख्या महंगा मांस नही खरीद पाती तो यही मांस खाने के काम आ जाता है। कानपुर में चमड़े का कारोबार लगभग 20 हजार करोड़ रूपये का होता है। इनमें पांच हजार करोड़ रूपये का चमड़े का निर्यात होता है और 15 हजार करोड़ का घरेलू व्यापार होता है। इसके अलावा यह उद्योग सात लाख लोगों को रोजगार भी प्रदान कर रहा है।सोंचती हूँ ऐसे हालात भारत जैसे देशों में ही बनाये जा सकते हैं। विगत कुछ वर्षों से यहां का प्रसिद्ध चमड़ा उद्योग धीरे-धीरे दम तोड़ने लगा। लेकिन अब उत्तर प्रदेश की सरकार ने एक जिला एक उत्पाद योजना शुरू करने जा रही है। इस योजना के तहत कानपुर को चमड़ा उद्योग के लिए चिन्हित किया गया है.......पर मेरे दिमाग़ को दूर तक " समाधान " नही दिखा।
          मेस्टन रोड से बाहर आकर कुछ ही दूरी पर ठग्गू की दुकान थी...जी हाँ ठग्गू की दुकान । देखिए ठग खुलेआम दुकानों में भी रहते हैं। दुकान का शीर्षक था "ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हम ठगा नहीं।" कुल्फी पर भी कुछ स्लोगन उस छोटी सी दुकान में थे....पर वाक़ई लड्डू और कुल्फ़ी का ऐसा बेहतरीन स्वाद कहीं नहीं आ सकता। सचमुच ठग लिया अपने स्वाद से।

क्रमशः........