Sunday 21 June 2020

इस्लाम व मुस्लिम समाज में स्त्री का अस्तित्व

'स्त्री' एक ऐसा शब्द है जिसकी अवस्थिति व उसके प्रति सोच हर समाज में कमोबेश एक सी ही रही। धरती के किसी भी मानवनिर्मित पंथ आज तक स्त्री समानता के कठोर मापदंड नहीं बना सका है और यदि कहीं अभिलिखित भी हों तो समाज का पुरुषार्थ उसका दमन कर देता है। 'स्त्री' की  स्थिति प्रत्येक समाज में एक 'जेंडर' की है, जिसे मात्र आरक्षण आधार पर मुख्यधारा में लाने का श्रीघोष करने मात्र से इतिश्री कर दी जाती है। 'स्त्री' शब्द बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समाज में भी कोई विशेष स्थान नहीं बना पाया। समाज के नीति नियंता आज की इक्कीसवीं सदी में भी 'चित्रगुप्त' नामक पुरुष की कलम लेकर 'स्त्री' भाग्य लिखने को आतुर हैं। 

प्राचीन समाज का काल लगभग एक ही चेतना के गलियारों से गुज़रा। पशुवत जीवन के उपरांत सभ्यता की नींव पड़ती गयी। इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ने भी क़ुरआन में स्त्री के अधिकारों की वकालत की और उस दौर में एक विधवा स्त्री से उनका विवाह भी हुआ। ये उस वक्त के तथ्य हैं जब भारत में मिताक्षरा व दायभाग के जुए को स्त्री के कांधे पर लादा गया था। सती प्रथा ढोल नगाड़ों से अभिमण्डित हो रही थी। जौहर में प्राण धधक रहे थे। चेतना का प्रवाह धीरे धीरे होता है। क़ुरआन के बारे में मुहम्मद साहब स्वयं हदीस लिख जाते तो शायद इस पर पूर्ण जानकारी संभव थी। कट्टरपंथियों द्वारा प्रत्येक धर्म में 'श्रेष्ठ' की उपाधि को प्राप्त किये जाने का प्रयास किया जाता है। किन्तु किसी भी धर्म में स्त्री को इंसान के रूप में दर्शाते हुए व्याख्यायित नहीं किया गया। 

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कबीलाई समाज के दौर में वर्चस्ववादी लड़ाईयां आम बातें हुआ करती थी जिसमें कई पुरुष मारे जाते और हज़ारों की संख्या में स्त्रियाँ व बच्चे यतीम हो जाते। भारत में तो ऐसी अवस्थाओं का निराकरण सती या जौहर प्रथाओं में निकाल लिया गया था। किंतु यदि तत्समय स्त्री की लावारिस अवस्था को देखा जाए तो एक पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्री से विवाह या निक़ाह उसके प्राण के बचने के लिहाज़ से प्रासंगिक था। हमारे समाज में स्त्री बड़ी संख्या में आज भी पुरुषों पर आश्रित है। उस दौर में तो और भी बुरा हाल रहा होगा। बहुविवाह के ज़रिए स्त्रियों को एक आसरा मिल जाता था, जो कि उस दौर में स्त्री जीवन की सबसे बड़ी ज़रूरत थी।

मुस्लिम समुदाय में विवाह को निक़ाह कहा जाता है । भारतीय संविधान में अनुछेद 44 समान नागरिक सिविल संहिता के पक्ष में खड़ा है किंतु आज तक भारत में अलग अलग धर्मो हेतु अलग-अलग सिविल कोड है। जिस कारण कहीं न कहीं तमाम सिविल कोड स्त्री को न्याय की परिधि में खड़ा नहीं करते। संविधान में हिन्दू स्त्री के अधिकार लिख देने के बाद भी समाज उसे कोई अधिकार नहीं देता क्योंकि ये तो हमारे समाज के जेनेटिक ढाँचे का आवश्यक तत्व है कि स्त्री पिता, पति, बेटे से अधिकार स्वरूप कुछ प्राप्त नहीं कर पाती। कुछ स्त्रियाँ यदि न्यायालय के द्वार पर अधिकार मांगने खड़ी हो तो भी समाज की आँखों की किरकिरी बन जाती हैं। जन्म के समय पर हो चुके इस लिंगात्मक भेदभाव ने स्त्री पक्ष को प्रभावित किया है। 

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भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 अंतर्गत "कानून के समक्ष समता एवं कानून के समान संरक्षण" को पारिभाषित किया गया है। चूँकि मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत (मुहम्मद साहब के कुरान के प्रावधान) 
पर आधारित है। मुस्लिम शादी, तलाक़,विरासत, बच्चों की कस्टडी आदि "कानून के समान संरक्षण के अनुसार मुस्लिम पर्सनल लॉ के अधीन आते हैं। इसकी स्थापना वर्ष 1937 में की गई। इस्लामिक लॉ की चार संस्थाएं हैं, जो कि कुरान की आयतों और इस्लामिक समाज के नियमों की अलग-अलग तरह से व्याख्या करते हैं। चार संस्थाएं ( इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम शाफ़ई, इमाम हंबल, इमाम मालिक) चार अलग-अलग सदियों में विकसित हुई। मुस्लिम देशों ने अपने मुताबिक इन संस्थाओं के कानूनों को अपनाया।

 मुस्लिम समुदाय में शिया व सुन्नी हेतु विवाह (निक़ाह)के कुछ प्रावधान भिन्न हैं। मुस्लिम विवाह(निक़ाह) मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) के तहत होता है । मुस्लिम विवाह में एक पक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है और दूसरा उसे स्वीकार करता है जिन्हें क्रमशः इजब व कबूल कहते हैं। यह  स्वीकृति लिखित और मौखिक दोनों प्रकार की हो सकती है । भारत में मुस्लिम धर्म के दो समुदाय प्रमुख हैं शिया एवं सुन्नी। ये तीन समूहों में विभाजित हैं। अशरफ (सैयद, शेख, पठान आदि), अजलब (मोमिन, मंसूर, इब्राहिम आदि) और अरजल (हलालखोर) ये सभी समूह अंतर्विवाही माने जाते है तथा इनके बीच बर्हिर्विवाह को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता।

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मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार मुस्लिम विवाह में चार भागीदारों का होना आवश्यक है :-
क) दूल्हा
ख) दुल्हन
ग) काजी
घ) गवाह (दो पुरुष या चार स्त्री गवाह) जो निक़ाह के साक्षी होते हैं। दूल्हा तथा दुल्हन को क़ाज़ी औपचारिक रूप से पूछता है कि वे इस निक़ाह के लिए स्वेच्छा से राजी है या नहीं। यदि वे इस निक़ाह के लिए स्वेच्छा से राजी होने की औपचारिक घोषणा करते हैं तो निक़ाहनामा पर समझौते की प्रक्रिया पूरी की जाती है। इस निक़ाहनामे में 'मेहर' की रकम शामिल होती है जिसे विवाह के समय या बाद में दूल्हा-दुल्हन को देता है। #मेहर एक प्रकार का स्त्री-धन है। भारत में हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों समुदायों में विवाह दुल्हन के घर पर ही करने की प्रथा है। एक स्थान के हिन्दुओं तथा मुसलमानों में कई प्रथाएँ समान रूप से मानी जाती हैं। जैसे केरल के मोपला मुसलमानों में 'कल्याणम' नामक हिन्दू कर्मकाण्ड पारंपरिक निक़ाह का आवश्यक अंग माना जाता है।(हालाँकि कल्याणम प्रथा सऊदी से दख्खिन आने वाले व्यापारी/ सौदागर द्वारा अधिक प्रचलन में लायी गयी। अपने दख्खिन प्रवास के दौरान यहाँ की स्थानिक स्त्री से इस निक़ाह के नाम पर व्यभिचार किया जाता था फिर वापिस अपने देश जाने पर उस स्त्री को तलाक दे दिया जाता था) चचेरे भाई बहनों का विवाह मुसलमानों में पसंदीदा विवाह माना जाता है। पुनर्विवाह मुस्लिम समुदाय में स्वीकार्य है। मुसलमानों में दो प्रकार के विवाह की अवधारणा है। 'सही' या नियमित विवाह तथा 'फसीद' या अनियमित विवाह। अनियमित विवाह निम्नलिखित स्थितियों में हो सकता है :

1.यदि प्रस्ताव या स्वीकृति के समय गवाह अनुपस्थित हो,
2.एक पुरुष का पांचवाँ विवाह
3.एक स्त्री का 'इद्दत' की अवधि में किया गया विवाह।
4.पति और पत्नी के धर्म में अंतर होने पर।

1. सुन्नी समुदाय में निक़ाह
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हनीफी विचारधारा के मुताबिक सुन्नी मुस्लिमों में दो मुसलमान गवाहों (महिलाएं भी मान्य) की मौजूदगी में होना जरुरी है । मुस्लिम विवाह की वैधता के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है । कोई पुरुष अथवा महिला 15 वर्ष की उम्र होने पर विवाह कर सकते हैं ।15 साल से कम उम्र का पुरुष या महिला निक़ाह नहीं कर सकते हैं।हालांकि उसका अभिभावक (पिता या दादा अथवा पिता का रिश्तेदार, ऐसा संभव नहीं होने पर मां या मां के पक्ष का रिश्तेदार) उसकी शादी करा सकता है । लेकिन बाल विवाह होने की वजह से यह कानूनी रुप से दंडनीय है। लड़की का निकाह यदि 15 साल से कम उम्र में उसके पिता अथवा दादा के अलावा अन्य किसी ने कराया हो तो वह उस निक़ाह से इनकार कर सकती है।
 
नोट-अवयस्क मुस्लिम लड़कियों के विवाह के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि उक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि रजस्वला होने पर 15 वर्ष की उम्र में मुस्लिम लड़की विवाह कर सकती है. इस तरह का विवाह निष्प्रभावी नहीं होगा. बहरहाल, उसके वयस्क होने अर्थात् 18 वर्ष की होने पर उसके पास इस विवाह को गैरकानूनी मानने का विकल्प भी है

सुन्नी पुरुष का दूसरे धर्म की महिला से विवाह पर पाबंदी है । लेकिन सु्न्नी पुरुष यहूदी अथवा ईसाई महिला से विवाह कर सकता है । मुसलमान महिला गैर मुसलमान से विवाह नहीं कर सकती । 

2. शिया समुदाय में निक़ाह
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 वर्जित नजदीकी रिश्तों में निकाह नहीं हो सकता है । मुस्लिम पुरुष अपनी मां या दादी, अपनी बेटी या पोती,अपनी बहन,अपनी भांजी,भतीजी या भाई अथवा पोती या नातिन से,अपनी बुआ या चाची या पिता की बुआ चाची से , मुंह बोली मां या बेटी से , अपनी पत्नी के पूर्वज या वंश से शादी नहीं कर सकता है । कुछ शर्तें पूरी नहीं होने पर मुस्लिम विवाह अनियमित माना जाता है । इसे बाद में नियमित अथवा समाप्त किया जा सकता है पर यह अपने आप रद्द नहीं होता है ।

शिया मुसलमान गैर- मुस्लिम महिला से अस्थाई ढंग से विवाह कर सकता है । जिसे मुताह कहते हैं । शिया महिला गैर मुसलमान पुरुष से किसी भी ढंग से विवाह नहीं कर सकती है ।

3. संवैधानिक प्रावधान-
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1. स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 के तहत मुसलमान व गैर मुसलमान में विवाह हो सकता है । एक मुसलमान की चार पत्नियां हो सकती हैं । यह कानूनन स्थिति है। साथ ही धार्मिक आदेश है कि पति को सभी पत्नियों के साथ एक सा व्यवहार करना होगा और यदि यह संभव नहीं है तो उसे एक से अधिक पत्नी नहीं रखनी चाहिए।मुसलमान महिला के एक से अधिक पति नहीं हो सकते हैं ।
2. चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेन एक्ट 1929 के अंतर्गत 21 वर्ष से कम आयु के लड़के तथा 18 वर्ष से कम आयु की लड़की का विवाह संपन्न कराना अपराध है , इस निषेध के भंग होने का विवाह की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं है।

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 उपरोक्त के अतिरिक्त यह ध्यान देने योग्य बात है कि कबीलाई समाज के दौर में पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्रियों के साथ किया गया विवाह बेसहारा स्त्री व बच्चे को अपनाने का प्रयोजन मात्र था जो कालांतर में पुरुष के लिए सेक्स कामना पूर्ति के साधन बनता गया। मानव चिंतन स्त्री विषय पर कभी नहीं सोच सका वरना आज तक किसी सबल स्त्री के लिए शरीयत में अधिक विवाह का प्रावधान क्यों नहीं किया जा सका? या फिर पुरुष के अधिक विवाह के प्रावधान क्यों नहीं हटाए जा सके? ये हमारे समाज का दृष्टिकोण है जिसने स्त्री पुरुष के मध्य एक खाई बनाई हुई है .... जो एक दूसरे से इक्कीसवीं सदी में भी वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ये परिवर्तन धीरे धीरे होते हैं धर्म के ठेकेदार अपनी सुविधा के अनुसार इसे व्याख्यित करते रहे हैं। ये व्याख्यारूपी कोपलें पुरुष तैयार करता है व स्त्री के दिमाग़ में रूप देता है। ये कोपलें फसलें बनती हैं फिर अपने आप बीज बनते हैं बिखरते हैं .....पैदावार इतनी हो जाती है कि पुरुष की लगाई एक कोंपल कोई नहीं देख पाता। हालाँकि प्रगतिशीलता की दिशा में देखा जाए तो क़ुरआन की इजाज़त के बावजूद तुर्की, अज़रबेजान व ट्यूनीशिया जैसे मुल्कों में एक से ज़्यादा शादियों की कानूनन मनाही है। ईरान, पाकिस्तान और मलेशिया जैसे देशों में भी कमोबेश ऐसे प्रावधान किए गए हैं। भारत समेत कुछ देशों में, स्त्रियों के पास अपने निकाहनामे में पुरुष के दूसरी शादी न करने का प्रावधान रखने का विकल्प रहता है हालांकि ये व्यवहार में नहीं दिखाई देता।

विवाह का उद्देश्य विभिन्न धर्मों या परंपराओं में संतान उत्पत्ति रहा है। विवाह का स्वरूप अवश्य पुरोहित/ मौलवी वर्ग ने परिभाषित किए । सात जन्मों का बंधन हो या कॉन्ट्रैक्ट विवाह। स्त्री की भूमिका वस्तु से अधिक नहीं दिखती ।स्त्री की वस्तुपरक भूमिका का ही परिणाम है 'हलाला प्रथा' । मैंने जब 'निक़ाह' फ़िल्म देखी तो मुझे हलाला के बारे में प्रथम जानकारी प्राप्त हुई। फ़िल्म में भी इसे स्वीकारोक्ति के स्वरूप में बताया गया किन्तु इन सब उच्चकोटि के दृष्टिकोण में स्त्री की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ती।


-----------------------क्रमशः

Tuesday 9 June 2020

2. पौराणिक आधारों में स्त्री का अस्तित्व / सीमा बंगवाल


क्रमशः.....….
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विवाह के संस्थागत रूप में मात्र कर्तव्य ही समाहित होते गए व व्यक्ति द्वारा परिवार नामक संस्था को मानते हुए समाज में अपने अस्तित्व को स्थापित किया गया। फिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता समाज में निंदनीय ही रही इसीलिए विवाह के अस्तित्व को धारण करना आज भी एक आवश्यक मापदंड बना हुआ है। 'नैतिकता' नामक शब्द सिर्फ़ समाज के दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा का विषय है। विवाह बंधन की नैतिकता मात्र वैध संतानों तक सीमित रही है। यह विवाह एवं स्त्री के प्रति घरेलू दुर्व्यवहार का दुरूह परिणाम है कि 'लिव इन रिलेशन' को ज्यादा स्वीकार्य माना जा रहा है जहाँ कर्तव्य, बंधन जैसी बातें गौण हैं। मेरे विचार से वैवाहिक कर्मकाण्ड व लिव इन रिलेशन में सर्वप्रथम है 'मानसिक विवेचन'। हकीकत की ज़मीन पर हर व्यक्ति एक दूसरे के प्रति ईमानदार नहीं हो पाता....हालाँकि ये ईमानदारी किसी भी रिश्ते के प्रति हो सकती है किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 'विवाह' एक आडम्बर बन चला है, जो मात्र एक परिवार के अस्तित्व में होने का आभास कराने हेतु मानसिक सम्बल है व सामाजिक ढाँचे को पूर्ण करने कवायत और 'लिव इन' की स्वेच्छाचारिता मात्र बंधन मुक्त जीवन को जीने का उपक्रम। वर्तमान में दोनों में कोई साम्य नहीं व दोनों में कोई श्रेष्ठ या उत्तम भी नहीं। इसीलिए किसी भी परंपरा का माने जाने या न माने जाने के अपने अपने गुण व दोष हैं व ये भी नितातं रूप से व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर आधारित है ।

2. दक्षिण भारत में विवाह की प्रासंगिकता
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कई विद्वानों द्वारा दक्खिन भूखण्ड की भौगोलिक अवस्थिति को भारतीय मुख्य भूमि से अलग माना गया है और दक्खिन भूखण्ड के भारतीय मुख्य भूमि में जुड़ने के आधार भी विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए हैं। विश्लेषकों द्वारा भारतीय उत्तर भाग को आर्यों के आगमन व उनके द्वारा मौलिक जातियों के साथ की गई नृशंसता के कारण आर्यों को मौलिक जाति से अलग माना जाता है एवं दक्खिन भाग अनार्य होने का दावा कर भारतभूमि के मौलिक संतति के रूप में स्थापित जाते हैं । 

              यदि हम उपरोक्त वर्णन का संदर्भ न भी लें तो भी दक्षिण भारतीय लोगों को भाषा, श्यामल रंग व परंपराओं आदि के आधार पर विभेदीकृत किया जा सकता है। अब चूंकि यहाँ पर मुख्य विषय विवाह पद्यति का है तो सिर्फ़ विवाह के संबंध में ही कहा जाना श्रेयकर होगा।यदि स्त्री की स्थिति का संज्ञान लिया जाए तो उसकी स्थिति पितृसत्तात्मक नियमों के अधीन लगभग एक सी ही रही है। फिर भी दक्षिण भारतीय समाज में पुरातन काल से मातृसत्तात्मक अंशों का समावेश भी मिलता है।

            भारतीय परंपराओं में गोत्र का अत्यंत महत्व है । गोत्र का शाब्दिक अर्थ है, "गाय से जन्म" । मुख्यतः सात प्रकार के गोत्र माने गए हैं यथा भारद्वाज, विश्वामित्र, कश्यप, वशिष्ठ, अत्रि, जमदाग्नि व गौतम। गोत्र की उत्पत्ति काल्पनिक पूर्वज के आधार पर पशु पक्षी, भेद बकरी आधार को मानते हुए की गई है । गोत्र के बारे में सर्वप्रथम उल्लेख बौद्धायन ग्रंथ में मिलता है। यदि हिंदुओं की बात करें तो गोत्र द्विज वर्णों में पाया जाता है।
भारतीय कई जनजातियों में (राजगोण्ड व बोंडो) गोत्र का दो बराबर भागों में विभाजन पाया जाता है,जिसे अर्द्धांश कहते हैं। इसी प्रकार प्रवर व पिण्ड (एक ही व्यक्ति को सामान्य पूर्वज मानते हुए अर्पण ) को भी परिभाषित किया गया है।

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       गोत्र व्यवस्था संभवतः आर्यों के द्वारा ही प्रतिपादित की गई। वस्तुतः धीरे-धीरे इसका विस्तार भारत राज्य क्षेत्रों में प्रसारित हुआ होगा क्योंकि यदि परंपराओं के स्तर पर देखा जाए तो दक्षिण भारत में कतिपय स्थानों पर एक ही परिवार में विवाह के उद्देश्य से लड़की का आदान- प्रदान होता है । यह संबंधों में एक प्रकार की पुनः सुदृढ़ता का प्रयास मात्र है जो परिवारों के मध्य बंधुता स्थापित करती है व संपत्ति विभाजन को रोकती है। यदि गोत्र स्तर के गुण-दोष को छोड़ दिया जाए तो ऐसी परंपराओं में संबंधों को तरजीह दी जाती है तथा वर व वधू पक्ष बराबर के संबंधी माने जाते हैं। इन परंपराओं में ग्राम गोत्र विवाह की संकल्पना भी मान्य है।

 भारतीय परंपराओं में यदि हम उत्तर भारत के युगपुरुषों द्वारा लिखे गए ग्रंथो या महाकाव्यों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि प्राचीनकाल से गोत्र व्यवस्था के बावजूद रक्त संबंध विवाह प्रचलन में रहे। महाभारत में सुभद्रा व अर्जुन का प्रसंग हो या फिर अकबर शासन के पारिवारिक विवाह।

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सगोत्रीय विवाह के पक्ष में या फिर विपक्ष में भिन्न मत हो सकते हैं किंतु यदि वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर तार्किक रूप से मनन किया जाए तो हम पाएंगे कि खास नज़दीकी संबंधों में जेनेटिक मटेरियल के ढाँचे की एकरूपता की संभावना कुछ प्रतिशत तक हो सकती है, जिससे विभिन्न प्रकार के 'जीनोटाइपिक' व 'फीनोटाइपिक' विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। हालाँकि अन्य धर्मों में भी नज़दीकी रिश्तों के भाई बहनों में भी वैवाहिक संबंध होते रहे हैं ,जिससे वर्तमान में बाहरी रूप से शारीरिक सौष्ठव का अभाव भी रहता है। इस पर देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विस्तृत निर्णय दिए हैं। चूंकि ये सामाजिक आधार पर वैवाहिक संबंध की मान्यता का विषय है तो भी जेनेटिक समुच्चय की तार्किकता पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। समय के साथ आधुनिक परंपराओं में दूरस्थ विवाह होने लगे हैं।

ब्रिटिश भारत में सीमित रूप से समाज के धार्मिक व सांस्कृतिक ढाँचे में हस्तक्षेप किया गया, जिसके कारण सती प्रथा उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह अधिनियम एवं शारदा अधिनियम द्वारा कतिपय सुधारों के प्रयास किए गए। स्वतंत्रता के उपरांत सन 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम पारित करते हुए कई प्रकार के विविध विवाहों को समाप्त कर एकरूपेण व्यवस्था को स्थापित किया गया। सन 1953 में विवाह के मानकों में माता की और तीन पीढ़ियों तक व पिता की और छः पीढ़ियों तक आपस में वैवाहिक संबंधों को निषेध किया गया(परंपराओं आधार पर से विलग )। सन 1954 में विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह हेतु लड़के की आयु 21 व लड़की की आयु 18 निर्धारित की गई। इसके साथ ही अंतरजातीय व अन्तरसांस्कृतिक संबंधों को वरीयता दी गयी।

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यद्यपि दक्षिण भारत में भी पितृवंशीय वैवाहिक संबंधों की मान्यता है किन्तु इनका स्वरूप रक्त संबंध व विवाह संबंधों में अंतर नहीं करता अपितु ये संबंध समानता पर आधारित होते हैं व वर व वधू में विभेदीकरण का अभाव होता है। संबंधों में पुत्र या पुत्री के लड़के को 'पेरहन', पुत्र या पुत्री की लड़की को 'पेती', दादा व नाना को 'ताता', दादी व नानी को 'पाटी' कहा जाता है। इस प्रकार पति व पत्नी पक्ष की समानता भी दृष्टिगोचर होती है। काफी हद तक इसे स्त्री के प्रति एक सकारात्क दृष्टिकोण समझा जा सकता है।

यहाँ मुख्यतः विवाह के तीन नियम पाए जाते हैं--

1.  मामा-भांजी विवाह-  
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                             नायरों में मातृवंशीय परिवार मिलते हैं किंतु ये विवाह प्रचलित नहीं।

2. ममेरे-फुफेरे भाई -बहिन बीच विवाह-
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                                  दक्षिण के सगोत्रीय विवाह में मामा की लड़की या बुआ की लड़की के साथ विवाह की परंपरा है, किन्तु मौसी व चाचा की लड़की को बहिन माना जाता है। 

3. ग्राम गोत्र विवाह- 
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                      छोटे नाते समूह या ग्राम अंदर वैवाहिक संबंध

 कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश जैसे कतिपय राज्यों की परंपराओं में किसी व्यक्ति के माता-पिता के माता-पिता भाई बहिन ही होते हैं...और चूँकि यह परंपरा का भाग है तो इसे वैध करार दिया जाता है। इसके साथ ही यह मत स्थापित है कि यदि लड़की का विवाह एक बार कहीं हो जाता है तो उस लड़की को मायके पक्ष में सम्मिलित नहीं माना जाता (हालाँकि सम्पत्ति की हिस्सेदारी में भागीदार माना जाता है।)। इस प्रकार से भाई-बहिन की संतानों में सहमति होने पर विवाह की मान्यताएं हैं। ऐसे विवाहों का प्राचीनकाल से चलन रहा है ताकि परिवार स्तर पर किसी भी बाहरी व्यक्ति के साथ संपत्ति को साझा न करना पड़े ।

मलयाली आदमी अपनी बहिन की बेटी से विवाह नहीं कर सकता  क्योंकि यह हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 एवं विशेष विवाह अधिनियम ,1954 द्वारा अयोग्य घोषित की गई हैं जब तक कि ऐसा होने के लिए उस संबंधित समुदाय की परंपराओं में सम्मिलित न हो या संबंधित को ऐसा विवाह करने की अनुमति न दी गयी हो।

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अय्यर दक्षिण भारत के तमिल ब्राहमण हैं। इस विवाह को तमिल में कल्याणम् या तिरूमनम् कहते हैं। यदि दक्षिण में कर्मकाण्डीय पक्ष देखा जाए तो यह इस भाग में मंत्रोच्चारण व तत्सम्बन्धी नियम उत्तर भारत से कहीं सबल है व विवाह को दिन में पूर्ण कराया जाता है क्योंकि विवाह के दिवस पर दम्पति की लौकिकाग्नि प्रारम्भ कराने का विधान है और कोई भी अग्नि कार्य सूर्य की उपस्थिति में ही होने की मान्यता है। यह शादी दो से तीन दिवसों के लिए चलती है। परम्परागत रूप से दुल्हन के परिवार वाले विवाह हेतु योजना बनाते हैं। व्रुथम: , पालिका (नौ तरीके के अनाज से दुल्हे और दुल्हन के ऊपर छिड़काव कर पूजा), जानावसन (बारात)  , निश्चयाथर्थम समारोह (सगाई), काशी यात्रा, मलय मात्रल(दूल्हा व दुल्हन को कंधों पर उठाकर वरमाल रस्म), ओंजल( वैवाहिक जोड़े को झूले पर बिठाकर मंगल गीत), कनिका दानम (कन्यादान),कंकणा धारनम( दूल्हा व दुल्हन द्वारा एक धार्मिक व्रत से खुद को बाध्य करने के लिये हल्दी लगा एक धागा बांधना), मांगल्यधारनम(पूर्व निर्धारित शुभ घंटे में मंगल सूत्र बाँधना), सप्तपदि(सात फेरे) आदि रस्मों के द्वारा वैवाहिक संस्कार को मान्यता दी जाती है।



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◆ सीमा बंगवाल

Sunday 7 June 2020

कोरोना वायरस-ज़िन्दगी या मौत?


कोरोना एक चर्बी युक्त मोटा सा दानव है । उसका सबसे आसान शिकार मानव ही है जिसकी फिराक में उसकी आँखें लगी हैं, जिसके लिए उसने सदियों से प्रयत्न किए। अब कहीं जाकर मानव को कैद करने में वह समर्थ हो सका।  इवानोवस्की को इस पृथ्वी का प्रथम वायरस खोजने का श्रेय प्राप्त है। हालाँकि वायरस का अस्तित्व पुरातन काल से रहा होगा बस वो तम्बाकू की पत्ती में सबसे पहले किसी वैज्ञानिक द्वारा खोजकर अभिलिखित कर दिया गया। सजीव व निर्जीव के बीच की कड़ी में उलझे इस कमज़ोर वायरस ने भी इंसान की तरह अपनी नस्लें बनाई। कई उत्परिवर्तन(म्युटेशन) हुए और वर्तमान वायरस का अस्तित्व सामने आया। कोरोना के म्युटेशन अचानक से नहीं हुए । वो उस वक़्त चुपचाप अपना काम करता रहा जब मानव अपने निजी एवं वैश्विक स्वार्थ की पूर्ति कर रहा था।

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मानव के इस पृथ्वी पर आविर्भाव के बाद प्राकृतिक तरीके से कई बार गुणसूत्रों की हेरा फेरी हो जाने से कई प्रकार की विकृतियों से युक्त संतान के जन्म होते रहे हैं। भ्रूण में गुणसूत्रों के बदलाव से बाहरी दिखने वाले लक्षणों (फीनोटाईप) के आधार पर जेनेटिक संरचना से हमने ये सब समझा... किन्तु ये भी संभव है कि जेनेटिक ऐसे कई बदलाव अभी भी जारी हैं और कई के बारे में हम अनभिज्ञ हैं। कई प्रकार के जंतु 'कैरियर' ही बने रहते हैं किंतु किसी भी हद तक उत्परिवर्तन को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 

विश्व विजेता सिकंदर के समय की दुनिया सूक्ष्म सी थी जो कालांतर में बढ़ते बढ़ते समंदरों को पार करके नई दुनिया तक विस्तृत होती चली गयी। एतिहासिक प्रमाणों में मानव के समक्ष सदैव एक ही लक्ष्य रहा.... विजित होना। मानव में भी पुरुष का ही मुख्य योगदान रहा क्योंकि युद्ध की बागडोर विश्व स्तर पर उसके ही हाथों में रही। मंगोल जैसी क्रूर जनजातियों ने भी वैश्विक आतंक स्थापित किया और भूमध्य रेखा के अधिकतर निचले देशों ने यह प्रभाव महसूस किया। धरती धीरे धीरे बंट रही थी और योग्यतम की उत्तरजीवता के सिद्धांत इक्कीसवीं सदी के क्रीमिया पर अधिकार तक पहुंच चुके थे। याने पृथ्वी पर विजित होने की परिकल्पना पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रही कारण चाहे 'रेड इंडियंस' और 'अनार्य' की निरीह स्थिति हो या फिर मुहम्मद साहब का 'जिहाद' उद्घोष।

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 अपने देश में महालनोबिस का मॉडल की असफलता व सोवियत रूस के विभाजन से इकानबे की मजबूरियां सामने आई। इंसान जिंदगी भर सीखता जाता है ये भी सीखने की ही बात रही जो हम पूँजीवाद की तरफ को झुकने लगे। इसके अलावा भी औद्योगिकीकरण बढ़ाने से कृषि क्षेत्र को सीमित कर दिया गया और उस छोटे से धरती क्षेत्र पर वैज्ञानिक आधार पर अधिकाधिक अन्न उपजाने का बोझ डाल दिया गया। भूमंडलीकरण के दौर में विकसित देश भारत जैसे जनाधिक्य वाले देशों में सिर्फ प्रयोग अधिक करते रहे हैं फिर चाहे 'जी एम फसलों' का उत्पादन हों या अपने सामान को बेचने हेतु बाज़ार तैयार करना । अंत मे होती है 'अम्बर बॉक्स' या 'ग्रीन बॉक्स' की राजनीति। अंतराष्ट्रीय स्तर पर सबसे पहले लोकलुभावन पृष्ठभूमि तैयार की जाती है बिल्कुल सुनियोजित तरीकों से...कई प्रकार की सौंदर्य प्रतियोगिताओं द्वारा, कुछ रियायतें देकर या फिर अन्य संगठनों के माध्यम से विभिन्न प्रकार से । उसके बाद आक्रमणों या अजेय बनने के हथियार निकाल दिए जाते हैं। चूँकि डार्विन का सिद्धांत विश्व में सर्वानुकरणीय देखा गया है तो इसे भी निंदित क्यों समझा जाए?

अब जब मानव का दिमाग़ इतना तेज़ गति से चल रहा है तो क्या वायरस को बढ़ने का अधिकार नहीं? इवानोवस्की के बाद कई वैज्ञानिकों ने इसके कई प्रकार खोजे। कई वायरस जनित रोग भी खोजे गए व उनके उपचार बना लिए गए। एंथ्रेक्स जैसे बैक्टीरिया के साथ मर्स, इबोला आदि कई प्रकार के वायरस प्रकार सामने आए...लेकिन जीवन चलता रहा...फिर भी हमने अपने स्तर पर इसके दुष्परिणामों हेतु नीति नहीं बनाई। वैसे भी गंभीर हम क्यों होंगे उसके बचाव, रिसर्च, दवा, व्यापार आदि के लिए तो 'वैश्विक प्रतिष्ठान' बने ही हैं ।  ओज़ोन की परत, प्रदूषण, बायोडाइवर्सिटी की चिंता करने के लिए भी वैश्विक फोरम हैं किंतु अभी कई ऐसे ज्ञात कारणों के कई दुष्परिणाम आने शेष हैं और उसके लिए भी कुछ मंच अपने अवतरित होने की प्रतीक्षा में हैं। 

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मानव समृद्धता होने पर उसका स्वभाव तो दुश्मनी की राजनीति करते ही चरितार्थ होता है। शक्ति परीक्षण मैदानों से अधिक दिमागों में होने लगे। अभी हाल ही में वर्चस्ववादी सोच के कारण सीरिया संकट पर पूरी धरती दो हिस्सों में बंटी हुई नज़र आई । फलीभूत किए गए ईरान से हथियार चलते रहे हैं। क्यूबा जैसा छोटा देश पुरानी फिएट गाड़ियों में सिमटकर अपने पड़ोसी पर विश्वास न कर सका और आज यूरोप व रूस की मदद करता दिखता है और यूरोप में ग्रीस जैसे छोटे देश की मदद उसके पड़ोसी नहीं कर पा रहे हैं। कितना भयावह है ऐसी राजनीति से मरना और मारना। अब कोरोना की राजनीति किसी ने देखी ही कहाँ थी पूरे वैश्विक स्तर पर तहलका मचा देने वाले इस उच्च स्तर जैसे वायरस को आम आदमी जानता ही कहाँ था...कोरोना ने कितनी आसानी से पूरी पृथ्वी से दोस्ती कर ली और इंसान नफ़रतों में जलता रहा। फिर वायरस ने इंसान से इतनी पीढ़ियों से कुछ तो सीखा ही होगा। 

परमाणु युद्ध, शीत युद्ध, बौद्धिक युद्ध जैसे कितने भी युद्ध हों लेकिन ये सब मानव जाति के लिए अभिशाप हैं। डार्विनवाद हर कसौटी पर सही नहीं हो सकता। मानव यदि किसी उपलब्धि को प्राप्त कर ले या न भी करे...तो भी मानव जीवन के उद्देश्य निराधार से हैं सोचिए यदि हज़ार वर्ष का जीवन होता तो हम सब दो सौ से अढ़ाई सौ वर्ष तक पढ़ रहे होते..... लेकिन अभी तो हम सौ वर्षों का जीवन भी नहीं देख पाते । ये सब आडंबर तो मानव चित्त की निरंतरता व जीवंतता हेतु ही अपने स्वरूप में हैं ताकि जीने का बहाना मिल सके।  

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बाहर प्रदूषण रहित आसमान है । लोग मास्क लगा कर ज़िन्दगी बचा रहे हैं। अरबों खरबों की रेल, बसें रुकी हैं। निम्न वर्ग की आजीविका संकटग्रस्त है। अपराध भी अभी स्थिर हैं। घर, राज्य, देश के साथ विश्व के पहिए रूक गए हैं इतनी बड़ी गाड़ी को चलाने वाली राजनीतियां भी हार चुकी है। धर्म हर कोने में मुँह छुपाए रोने लगे हैं। विज्ञान मौन मनन कर जीतने का प्रयास कर रहा है। पूरे 'विश्व का गाँव' एक ही समस्या से पीड़ित है। यूरोप के देश भी अन्य देशों की भाँति काफी पीछे के वर्षों में आ गए हैं। प्रकृति न्याय करने में सक्षम है। जंगल में बंद जानवर शहर में निकल कर सांस लेने लगे है...पक्षियों के कलरव के साथ कोयल को भी दिन रात के समय का मतिभ्रम हो गया है। हम विज्ञान या विवेक से इस बार भी ज़िन्दगी में आगे बढ़ जाएंगे किन्तु इतने बड़े विश्व स्तर की मशीनरी को रोक देने वाले ज्ञात इस वायरस के विभिन्न आयामों के संकटों को अनदेखा करने के बाद भी ऐसे कई अज्ञात कारण मानव पर आक्रमण करने को तैयार है। इंसानी साँसों के साथ विचारणीय है कि बंद अर्थव्यवस्था व खुली अर्थव्यवस्था में कौन इंसानी मुद्दों में बेहतर रहा अब ऐसा क्या खोजना शेष है जो मानव जीवन के हित में हो।

● सीमा बंगवाल