Tuesday 29 March 2022

हाय रे शब्दबाण


जीवन के शुरुआती शिक्षापरक तत्वों में एक पृष्ठ था, जिसमें एक पागल व्यक्ति उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था। नीचे कुछ विद्वान पुरुष थे जो राजा विक्रमादित्य की कन्या राजकुमारी विद्योत्तमा से अपने विवाह हेतु शास्त्रार्थ करने गए थे और हारकर वापिस आए थे। विद्योत्तमा से बदला लेने हेतु उन्हें यह मूर्ख व्यक्ति उचित लगता है । बड़ी चालाकी से पुरुष विद्वान शास्त्रार्थ में उस पागल व्यक्ति को विजित करवाते हुए राजकुमारी से उसका विवाह करवा देते हैं। अंततोगत्वा विद्योत्तमा  के तिरस्कार से वो पागल व्यक्ति अपने सामाजिक जीवन में संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान बन जाता है। इस कहानी में भी विद्योत्तमा के शब्दबाणों ने विद्वानों को बदले की भावना से ग्रसित किया और विद्योत्तमा के ही शब्दबाणों से कालिदास का निर्माण हुआ। ऐसे ही तुलसीदास की कथा पढ़ी।  ऐसे ही कई लोग इन शब्दबाणों से घायल होकर प्रतिष्ठित हुए। 


शब्दबाण इसी ब्रह्माण्ड के भीतर चलते हैं। शब्दबाण की तीव्रता हृदयविदारक होती है। दिमाग़ का वो हिस्सा जो इंसान होने के कारण सूझ-बूझ का परिचायक है, वही हमें बार -बार संबल देकर उठाता है। शब्दबाण अनायास निकले या फिर जानबूझकर , सामने वाले के लिए बस महसूस करना आवश्यक होता है। चापलूसी या स्वार्थी प्रवृत्ति के लोग इसे अभ्यास में लेते हैं, इसलिए शब्दबाणों को अनुभूत करने में कमोबेश असक्षम ही होते हैं। वाणी में कठोरता होना और शब्दबाणों से भेदना दो भिन्न बातें हैं। कठोर वाणी , कटु वाणी सत्य हो सकती है और मृदु वाणी आपका झूठे अस्तित्व का गुणगान कर सकती है। हालाँकि मनुष्यता के आधारों में मृदु वाणी को औषधि का पर्याय ही माना गया है। मनुष्य के दिमागी तंतुओं की विहंगमता यह भली-भाँति समझ गयी है कि कहाँ-कहाँ मृदु बोलना चाहिए और कहाँ नहीं। बहुत सूक्ष्म तरीके के इस तत्व ने मृदुता को चापलूसी तक सीमित कर दिया है। आखिर 'डिप्लोमेसी' व 'स्वार्थ' जैसे शब्द भी तो अपना प्रभाव रखते हैं।


मैं बचपन से ध्रुव तारे को आसमान में ढूंढती हूँ। उसका अटल होना मुझे प्रभावित करता है। मेरी खोज इतनी कमज़ोर है कि आज तक उत्तर -दिशा में उसे दावे के साथ  स्थापित नहीं कर सकी। बचपन में मैंने ध्रुव की कहानी को सत्य माना था। मुझे लगता है कि राजा उत्तानपाद की गोद से यदि रानी सुरुचि ने ध्रुव को उतारा न होता तो ध्रुव का जन्म ही न होता। रानी सुरुचि के ईर्ष्या में डूबे शब्दबाणों ने उसका कायाकल्प कर दिया। धन्य है वो तारा, जिसका नामकरण ऐसे बच्चे के नाम हुआ। लेकिन दयनीय है वह बालक जो तिरस्कार देखकर भी विचलित नहीं हुआ।


यद्यपि मनुष्य के मूलरूपी स्वभाव में स्वार्थ की गहरी पैठ है। अधिकांश लोग स्वार्थपरक रहकर पूर्ण जीवन गुजार देते हैं ,जिस कारण वह शब्दबाणों की भेदन क्षमता से नहीं बिधते । शब्दबाणों से प्रभावित होने वाले मस्तिष्क भी इसी समाज का हिस्सा हैं।  शब्दबाण भावनात्मक रूप से कमज़ोर लोगों को प्रभावित कर सकते हैं। मनुष्य होने का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण संवेदना है । संवेदना से ही मनुष्य में प्रेम ,घृणा आदि भावों का निर्माण होता है। संवेदनहीनता भौतिक जगत की वस्तु है और भौतिक संपन्नता मनुष्यता के गुणों को लील लेती है।


संवेदना और शब्दबाण के भिज्ञ व्यक्ति संसारपरक भौतिकता से विलग रहते हैं। संवेदनशील व्यक्ति शब्दबाणों का प्रतिकार भिन्न स्वरूप में ले सकता है। इसकी सबसे सुंदर कल्पना सृजन है चाहे वह सामाजिक स्तर पर हो या स्वयं के स्तर पर। अनुभव की तिजौरी भरने के लिए जीवन में नैसर्गिक तत्वों के मृदु व कटु दोनों  गुणों की आवश्यकता है। 


यद्यपि मेरा जन्म 1945 में नहीं हुआ था किंतु जापान में परमाणु बम से दहकते शहरों के विकिरण से मेरी हड्डियों में आज भी गलन महसूस होती है। मैं यदि ज़िंदा भी महसूस करूँ तो इतनी तपिश लगती है कि मेरे सिर पर कीलों जैसी सरंचनाएँ उभरती हैं ..... मेरी खाल के छिलके मांस के साथ उतरते हैं या फिर मेरी लम्बाई स्थिर हो जाती है और जेनेटिक ढाँचे बदलते जाते हैं....खत्म हो जाती है जिंदगी की तमन्ना, ख्वाहिशें। फिर भी राख से अलग कुछ बचता है तो वो है 'मन'। मन जो वास्तविक रूप में दिमाग़ की मानवीय संवेदना को जीवित करता है, जिससे दुनिया में इंसानियत जिंदा रहती है वो मन ही तो है जो हमें ऐसे विध्वंस से बचाता है। हिरोशिमा, नागासाकी से दहकता जापान आज तकनीकी दुनिया में अग्रणी है। मन की संवेदनाएं है तो व्यक्ति किसी प्रभुत्वसंपन्न देश प्रमुख के शब्दबाणों को अपने देश के वैश्विक उत्थान में परिवर्तित कर सकता है एवं देशप्रेम के नए कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। जापान व कालिदास अलग संज्ञारूप होने के बावजूद एक परिभाषा के भिन्न स्वरूप हैं।

Sunday 21 June 2020

इस्लाम व मुस्लिम समाज में स्त्री का अस्तित्व

'स्त्री' एक ऐसा शब्द है जिसकी अवस्थिति व उसके प्रति सोच हर समाज में कमोबेश एक सी ही रही। धरती के किसी भी मानवनिर्मित पंथ आज तक स्त्री समानता के कठोर मापदंड नहीं बना सका है और यदि कहीं अभिलिखित भी हों तो समाज का पुरुषार्थ उसका दमन कर देता है। 'स्त्री' की  स्थिति प्रत्येक समाज में एक 'जेंडर' की है, जिसे मात्र आरक्षण आधार पर मुख्यधारा में लाने का श्रीघोष करने मात्र से इतिश्री कर दी जाती है। 'स्त्री' शब्द बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समाज में भी कोई विशेष स्थान नहीं बना पाया। समाज के नीति नियंता आज की इक्कीसवीं सदी में भी 'चित्रगुप्त' नामक पुरुष की कलम लेकर 'स्त्री' भाग्य लिखने को आतुर हैं। 

प्राचीन समाज का काल लगभग एक ही चेतना के गलियारों से गुज़रा। पशुवत जीवन के उपरांत सभ्यता की नींव पड़ती गयी। इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ने भी क़ुरआन में स्त्री के अधिकारों की वकालत की और उस दौर में एक विधवा स्त्री से उनका विवाह भी हुआ। ये उस वक्त के तथ्य हैं जब भारत में मिताक्षरा व दायभाग के जुए को स्त्री के कांधे पर लादा गया था। सती प्रथा ढोल नगाड़ों से अभिमण्डित हो रही थी। जौहर में प्राण धधक रहे थे। चेतना का प्रवाह धीरे धीरे होता है। क़ुरआन के बारे में मुहम्मद साहब स्वयं हदीस लिख जाते तो शायद इस पर पूर्ण जानकारी संभव थी। कट्टरपंथियों द्वारा प्रत्येक धर्म में 'श्रेष्ठ' की उपाधि को प्राप्त किये जाने का प्रयास किया जाता है। किन्तु किसी भी धर्म में स्त्री को इंसान के रूप में दर्शाते हुए व्याख्यायित नहीं किया गया। 

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कबीलाई समाज के दौर में वर्चस्ववादी लड़ाईयां आम बातें हुआ करती थी जिसमें कई पुरुष मारे जाते और हज़ारों की संख्या में स्त्रियाँ व बच्चे यतीम हो जाते। भारत में तो ऐसी अवस्थाओं का निराकरण सती या जौहर प्रथाओं में निकाल लिया गया था। किंतु यदि तत्समय स्त्री की लावारिस अवस्था को देखा जाए तो एक पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्री से विवाह या निक़ाह उसके प्राण के बचने के लिहाज़ से प्रासंगिक था। हमारे समाज में स्त्री बड़ी संख्या में आज भी पुरुषों पर आश्रित है। उस दौर में तो और भी बुरा हाल रहा होगा। बहुविवाह के ज़रिए स्त्रियों को एक आसरा मिल जाता था, जो कि उस दौर में स्त्री जीवन की सबसे बड़ी ज़रूरत थी।

मुस्लिम समुदाय में विवाह को निक़ाह कहा जाता है । भारतीय संविधान में अनुछेद 44 समान नागरिक सिविल संहिता के पक्ष में खड़ा है किंतु आज तक भारत में अलग अलग धर्मो हेतु अलग-अलग सिविल कोड है। जिस कारण कहीं न कहीं तमाम सिविल कोड स्त्री को न्याय की परिधि में खड़ा नहीं करते। संविधान में हिन्दू स्त्री के अधिकार लिख देने के बाद भी समाज उसे कोई अधिकार नहीं देता क्योंकि ये तो हमारे समाज के जेनेटिक ढाँचे का आवश्यक तत्व है कि स्त्री पिता, पति, बेटे से अधिकार स्वरूप कुछ प्राप्त नहीं कर पाती। कुछ स्त्रियाँ यदि न्यायालय के द्वार पर अधिकार मांगने खड़ी हो तो भी समाज की आँखों की किरकिरी बन जाती हैं। जन्म के समय पर हो चुके इस लिंगात्मक भेदभाव ने स्त्री पक्ष को प्रभावित किया है। 

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भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 अंतर्गत "कानून के समक्ष समता एवं कानून के समान संरक्षण" को पारिभाषित किया गया है। चूँकि मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत (मुहम्मद साहब के कुरान के प्रावधान) 
पर आधारित है। मुस्लिम शादी, तलाक़,विरासत, बच्चों की कस्टडी आदि "कानून के समान संरक्षण के अनुसार मुस्लिम पर्सनल लॉ के अधीन आते हैं। इसकी स्थापना वर्ष 1937 में की गई। इस्लामिक लॉ की चार संस्थाएं हैं, जो कि कुरान की आयतों और इस्लामिक समाज के नियमों की अलग-अलग तरह से व्याख्या करते हैं। चार संस्थाएं ( इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम शाफ़ई, इमाम हंबल, इमाम मालिक) चार अलग-अलग सदियों में विकसित हुई। मुस्लिम देशों ने अपने मुताबिक इन संस्थाओं के कानूनों को अपनाया।

 मुस्लिम समुदाय में शिया व सुन्नी हेतु विवाह (निक़ाह)के कुछ प्रावधान भिन्न हैं। मुस्लिम विवाह(निक़ाह) मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) के तहत होता है । मुस्लिम विवाह में एक पक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है और दूसरा उसे स्वीकार करता है जिन्हें क्रमशः इजब व कबूल कहते हैं। यह  स्वीकृति लिखित और मौखिक दोनों प्रकार की हो सकती है । भारत में मुस्लिम धर्म के दो समुदाय प्रमुख हैं शिया एवं सुन्नी। ये तीन समूहों में विभाजित हैं। अशरफ (सैयद, शेख, पठान आदि), अजलब (मोमिन, मंसूर, इब्राहिम आदि) और अरजल (हलालखोर) ये सभी समूह अंतर्विवाही माने जाते है तथा इनके बीच बर्हिर्विवाह को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता।

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मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार मुस्लिम विवाह में चार भागीदारों का होना आवश्यक है :-
क) दूल्हा
ख) दुल्हन
ग) काजी
घ) गवाह (दो पुरुष या चार स्त्री गवाह) जो निक़ाह के साक्षी होते हैं। दूल्हा तथा दुल्हन को क़ाज़ी औपचारिक रूप से पूछता है कि वे इस निक़ाह के लिए स्वेच्छा से राजी है या नहीं। यदि वे इस निक़ाह के लिए स्वेच्छा से राजी होने की औपचारिक घोषणा करते हैं तो निक़ाहनामा पर समझौते की प्रक्रिया पूरी की जाती है। इस निक़ाहनामे में 'मेहर' की रकम शामिल होती है जिसे विवाह के समय या बाद में दूल्हा-दुल्हन को देता है। #मेहर एक प्रकार का स्त्री-धन है। भारत में हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों समुदायों में विवाह दुल्हन के घर पर ही करने की प्रथा है। एक स्थान के हिन्दुओं तथा मुसलमानों में कई प्रथाएँ समान रूप से मानी जाती हैं। जैसे केरल के मोपला मुसलमानों में 'कल्याणम' नामक हिन्दू कर्मकाण्ड पारंपरिक निक़ाह का आवश्यक अंग माना जाता है।(हालाँकि कल्याणम प्रथा सऊदी से दख्खिन आने वाले व्यापारी/ सौदागर द्वारा अधिक प्रचलन में लायी गयी। अपने दख्खिन प्रवास के दौरान यहाँ की स्थानिक स्त्री से इस निक़ाह के नाम पर व्यभिचार किया जाता था फिर वापिस अपने देश जाने पर उस स्त्री को तलाक दे दिया जाता था) चचेरे भाई बहनों का विवाह मुसलमानों में पसंदीदा विवाह माना जाता है। पुनर्विवाह मुस्लिम समुदाय में स्वीकार्य है। मुसलमानों में दो प्रकार के विवाह की अवधारणा है। 'सही' या नियमित विवाह तथा 'फसीद' या अनियमित विवाह। अनियमित विवाह निम्नलिखित स्थितियों में हो सकता है :

1.यदि प्रस्ताव या स्वीकृति के समय गवाह अनुपस्थित हो,
2.एक पुरुष का पांचवाँ विवाह
3.एक स्त्री का 'इद्दत' की अवधि में किया गया विवाह।
4.पति और पत्नी के धर्म में अंतर होने पर।

1. सुन्नी समुदाय में निक़ाह
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हनीफी विचारधारा के मुताबिक सुन्नी मुस्लिमों में दो मुसलमान गवाहों (महिलाएं भी मान्य) की मौजूदगी में होना जरुरी है । मुस्लिम विवाह की वैधता के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है । कोई पुरुष अथवा महिला 15 वर्ष की उम्र होने पर विवाह कर सकते हैं ।15 साल से कम उम्र का पुरुष या महिला निक़ाह नहीं कर सकते हैं।हालांकि उसका अभिभावक (पिता या दादा अथवा पिता का रिश्तेदार, ऐसा संभव नहीं होने पर मां या मां के पक्ष का रिश्तेदार) उसकी शादी करा सकता है । लेकिन बाल विवाह होने की वजह से यह कानूनी रुप से दंडनीय है। लड़की का निकाह यदि 15 साल से कम उम्र में उसके पिता अथवा दादा के अलावा अन्य किसी ने कराया हो तो वह उस निक़ाह से इनकार कर सकती है।
 
नोट-अवयस्क मुस्लिम लड़कियों के विवाह के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि उक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि रजस्वला होने पर 15 वर्ष की उम्र में मुस्लिम लड़की विवाह कर सकती है. इस तरह का विवाह निष्प्रभावी नहीं होगा. बहरहाल, उसके वयस्क होने अर्थात् 18 वर्ष की होने पर उसके पास इस विवाह को गैरकानूनी मानने का विकल्प भी है

सुन्नी पुरुष का दूसरे धर्म की महिला से विवाह पर पाबंदी है । लेकिन सु्न्नी पुरुष यहूदी अथवा ईसाई महिला से विवाह कर सकता है । मुसलमान महिला गैर मुसलमान से विवाह नहीं कर सकती । 

2. शिया समुदाय में निक़ाह
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 वर्जित नजदीकी रिश्तों में निकाह नहीं हो सकता है । मुस्लिम पुरुष अपनी मां या दादी, अपनी बेटी या पोती,अपनी बहन,अपनी भांजी,भतीजी या भाई अथवा पोती या नातिन से,अपनी बुआ या चाची या पिता की बुआ चाची से , मुंह बोली मां या बेटी से , अपनी पत्नी के पूर्वज या वंश से शादी नहीं कर सकता है । कुछ शर्तें पूरी नहीं होने पर मुस्लिम विवाह अनियमित माना जाता है । इसे बाद में नियमित अथवा समाप्त किया जा सकता है पर यह अपने आप रद्द नहीं होता है ।

शिया मुसलमान गैर- मुस्लिम महिला से अस्थाई ढंग से विवाह कर सकता है । जिसे मुताह कहते हैं । शिया महिला गैर मुसलमान पुरुष से किसी भी ढंग से विवाह नहीं कर सकती है ।

3. संवैधानिक प्रावधान-
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1. स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 के तहत मुसलमान व गैर मुसलमान में विवाह हो सकता है । एक मुसलमान की चार पत्नियां हो सकती हैं । यह कानूनन स्थिति है। साथ ही धार्मिक आदेश है कि पति को सभी पत्नियों के साथ एक सा व्यवहार करना होगा और यदि यह संभव नहीं है तो उसे एक से अधिक पत्नी नहीं रखनी चाहिए।मुसलमान महिला के एक से अधिक पति नहीं हो सकते हैं ।
2. चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेन एक्ट 1929 के अंतर्गत 21 वर्ष से कम आयु के लड़के तथा 18 वर्ष से कम आयु की लड़की का विवाह संपन्न कराना अपराध है , इस निषेध के भंग होने का विवाह की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं है।

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 उपरोक्त के अतिरिक्त यह ध्यान देने योग्य बात है कि कबीलाई समाज के दौर में पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्रियों के साथ किया गया विवाह बेसहारा स्त्री व बच्चे को अपनाने का प्रयोजन मात्र था जो कालांतर में पुरुष के लिए सेक्स कामना पूर्ति के साधन बनता गया। मानव चिंतन स्त्री विषय पर कभी नहीं सोच सका वरना आज तक किसी सबल स्त्री के लिए शरीयत में अधिक विवाह का प्रावधान क्यों नहीं किया जा सका? या फिर पुरुष के अधिक विवाह के प्रावधान क्यों नहीं हटाए जा सके? ये हमारे समाज का दृष्टिकोण है जिसने स्त्री पुरुष के मध्य एक खाई बनाई हुई है .... जो एक दूसरे से इक्कीसवीं सदी में भी वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ये परिवर्तन धीरे धीरे होते हैं धर्म के ठेकेदार अपनी सुविधा के अनुसार इसे व्याख्यित करते रहे हैं। ये व्याख्यारूपी कोपलें पुरुष तैयार करता है व स्त्री के दिमाग़ में रूप देता है। ये कोपलें फसलें बनती हैं फिर अपने आप बीज बनते हैं बिखरते हैं .....पैदावार इतनी हो जाती है कि पुरुष की लगाई एक कोंपल कोई नहीं देख पाता। हालाँकि प्रगतिशीलता की दिशा में देखा जाए तो क़ुरआन की इजाज़त के बावजूद तुर्की, अज़रबेजान व ट्यूनीशिया जैसे मुल्कों में एक से ज़्यादा शादियों की कानूनन मनाही है। ईरान, पाकिस्तान और मलेशिया जैसे देशों में भी कमोबेश ऐसे प्रावधान किए गए हैं। भारत समेत कुछ देशों में, स्त्रियों के पास अपने निकाहनामे में पुरुष के दूसरी शादी न करने का प्रावधान रखने का विकल्प रहता है हालांकि ये व्यवहार में नहीं दिखाई देता।

विवाह का उद्देश्य विभिन्न धर्मों या परंपराओं में संतान उत्पत्ति रहा है। विवाह का स्वरूप अवश्य पुरोहित/ मौलवी वर्ग ने परिभाषित किए । सात जन्मों का बंधन हो या कॉन्ट्रैक्ट विवाह। स्त्री की भूमिका वस्तु से अधिक नहीं दिखती ।स्त्री की वस्तुपरक भूमिका का ही परिणाम है 'हलाला प्रथा' । मैंने जब 'निक़ाह' फ़िल्म देखी तो मुझे हलाला के बारे में प्रथम जानकारी प्राप्त हुई। फ़िल्म में भी इसे स्वीकारोक्ति के स्वरूप में बताया गया किन्तु इन सब उच्चकोटि के दृष्टिकोण में स्त्री की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ती।


-----------------------क्रमशः

Tuesday 9 June 2020

2. पौराणिक आधारों में स्त्री का अस्तित्व / सीमा बंगवाल


क्रमशः.....….
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विवाह के संस्थागत रूप में मात्र कर्तव्य ही समाहित होते गए व व्यक्ति द्वारा परिवार नामक संस्था को मानते हुए समाज में अपने अस्तित्व को स्थापित किया गया। फिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता समाज में निंदनीय ही रही इसीलिए विवाह के अस्तित्व को धारण करना आज भी एक आवश्यक मापदंड बना हुआ है। 'नैतिकता' नामक शब्द सिर्फ़ समाज के दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा का विषय है। विवाह बंधन की नैतिकता मात्र वैध संतानों तक सीमित रही है। यह विवाह एवं स्त्री के प्रति घरेलू दुर्व्यवहार का दुरूह परिणाम है कि 'लिव इन रिलेशन' को ज्यादा स्वीकार्य माना जा रहा है जहाँ कर्तव्य, बंधन जैसी बातें गौण हैं। मेरे विचार से वैवाहिक कर्मकाण्ड व लिव इन रिलेशन में सर्वप्रथम है 'मानसिक विवेचन'। हकीकत की ज़मीन पर हर व्यक्ति एक दूसरे के प्रति ईमानदार नहीं हो पाता....हालाँकि ये ईमानदारी किसी भी रिश्ते के प्रति हो सकती है किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 'विवाह' एक आडम्बर बन चला है, जो मात्र एक परिवार के अस्तित्व में होने का आभास कराने हेतु मानसिक सम्बल है व सामाजिक ढाँचे को पूर्ण करने कवायत और 'लिव इन' की स्वेच्छाचारिता मात्र बंधन मुक्त जीवन को जीने का उपक्रम। वर्तमान में दोनों में कोई साम्य नहीं व दोनों में कोई श्रेष्ठ या उत्तम भी नहीं। इसीलिए किसी भी परंपरा का माने जाने या न माने जाने के अपने अपने गुण व दोष हैं व ये भी नितातं रूप से व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर आधारित है ।

2. दक्षिण भारत में विवाह की प्रासंगिकता
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कई विद्वानों द्वारा दक्खिन भूखण्ड की भौगोलिक अवस्थिति को भारतीय मुख्य भूमि से अलग माना गया है और दक्खिन भूखण्ड के भारतीय मुख्य भूमि में जुड़ने के आधार भी विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए हैं। विश्लेषकों द्वारा भारतीय उत्तर भाग को आर्यों के आगमन व उनके द्वारा मौलिक जातियों के साथ की गई नृशंसता के कारण आर्यों को मौलिक जाति से अलग माना जाता है एवं दक्खिन भाग अनार्य होने का दावा कर भारतभूमि के मौलिक संतति के रूप में स्थापित जाते हैं । 

              यदि हम उपरोक्त वर्णन का संदर्भ न भी लें तो भी दक्षिण भारतीय लोगों को भाषा, श्यामल रंग व परंपराओं आदि के आधार पर विभेदीकृत किया जा सकता है। अब चूंकि यहाँ पर मुख्य विषय विवाह पद्यति का है तो सिर्फ़ विवाह के संबंध में ही कहा जाना श्रेयकर होगा।यदि स्त्री की स्थिति का संज्ञान लिया जाए तो उसकी स्थिति पितृसत्तात्मक नियमों के अधीन लगभग एक सी ही रही है। फिर भी दक्षिण भारतीय समाज में पुरातन काल से मातृसत्तात्मक अंशों का समावेश भी मिलता है।

            भारतीय परंपराओं में गोत्र का अत्यंत महत्व है । गोत्र का शाब्दिक अर्थ है, "गाय से जन्म" । मुख्यतः सात प्रकार के गोत्र माने गए हैं यथा भारद्वाज, विश्वामित्र, कश्यप, वशिष्ठ, अत्रि, जमदाग्नि व गौतम। गोत्र की उत्पत्ति काल्पनिक पूर्वज के आधार पर पशु पक्षी, भेद बकरी आधार को मानते हुए की गई है । गोत्र के बारे में सर्वप्रथम उल्लेख बौद्धायन ग्रंथ में मिलता है। यदि हिंदुओं की बात करें तो गोत्र द्विज वर्णों में पाया जाता है।
भारतीय कई जनजातियों में (राजगोण्ड व बोंडो) गोत्र का दो बराबर भागों में विभाजन पाया जाता है,जिसे अर्द्धांश कहते हैं। इसी प्रकार प्रवर व पिण्ड (एक ही व्यक्ति को सामान्य पूर्वज मानते हुए अर्पण ) को भी परिभाषित किया गया है।

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       गोत्र व्यवस्था संभवतः आर्यों के द्वारा ही प्रतिपादित की गई। वस्तुतः धीरे-धीरे इसका विस्तार भारत राज्य क्षेत्रों में प्रसारित हुआ होगा क्योंकि यदि परंपराओं के स्तर पर देखा जाए तो दक्षिण भारत में कतिपय स्थानों पर एक ही परिवार में विवाह के उद्देश्य से लड़की का आदान- प्रदान होता है । यह संबंधों में एक प्रकार की पुनः सुदृढ़ता का प्रयास मात्र है जो परिवारों के मध्य बंधुता स्थापित करती है व संपत्ति विभाजन को रोकती है। यदि गोत्र स्तर के गुण-दोष को छोड़ दिया जाए तो ऐसी परंपराओं में संबंधों को तरजीह दी जाती है तथा वर व वधू पक्ष बराबर के संबंधी माने जाते हैं। इन परंपराओं में ग्राम गोत्र विवाह की संकल्पना भी मान्य है।

 भारतीय परंपराओं में यदि हम उत्तर भारत के युगपुरुषों द्वारा लिखे गए ग्रंथो या महाकाव्यों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि प्राचीनकाल से गोत्र व्यवस्था के बावजूद रक्त संबंध विवाह प्रचलन में रहे। महाभारत में सुभद्रा व अर्जुन का प्रसंग हो या फिर अकबर शासन के पारिवारिक विवाह।

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सगोत्रीय विवाह के पक्ष में या फिर विपक्ष में भिन्न मत हो सकते हैं किंतु यदि वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर तार्किक रूप से मनन किया जाए तो हम पाएंगे कि खास नज़दीकी संबंधों में जेनेटिक मटेरियल के ढाँचे की एकरूपता की संभावना कुछ प्रतिशत तक हो सकती है, जिससे विभिन्न प्रकार के 'जीनोटाइपिक' व 'फीनोटाइपिक' विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। हालाँकि अन्य धर्मों में भी नज़दीकी रिश्तों के भाई बहनों में भी वैवाहिक संबंध होते रहे हैं ,जिससे वर्तमान में बाहरी रूप से शारीरिक सौष्ठव का अभाव भी रहता है। इस पर देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विस्तृत निर्णय दिए हैं। चूंकि ये सामाजिक आधार पर वैवाहिक संबंध की मान्यता का विषय है तो भी जेनेटिक समुच्चय की तार्किकता पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। समय के साथ आधुनिक परंपराओं में दूरस्थ विवाह होने लगे हैं।

ब्रिटिश भारत में सीमित रूप से समाज के धार्मिक व सांस्कृतिक ढाँचे में हस्तक्षेप किया गया, जिसके कारण सती प्रथा उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह अधिनियम एवं शारदा अधिनियम द्वारा कतिपय सुधारों के प्रयास किए गए। स्वतंत्रता के उपरांत सन 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम पारित करते हुए कई प्रकार के विविध विवाहों को समाप्त कर एकरूपेण व्यवस्था को स्थापित किया गया। सन 1953 में विवाह के मानकों में माता की और तीन पीढ़ियों तक व पिता की और छः पीढ़ियों तक आपस में वैवाहिक संबंधों को निषेध किया गया(परंपराओं आधार पर से विलग )। सन 1954 में विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह हेतु लड़के की आयु 21 व लड़की की आयु 18 निर्धारित की गई। इसके साथ ही अंतरजातीय व अन्तरसांस्कृतिक संबंधों को वरीयता दी गयी।

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यद्यपि दक्षिण भारत में भी पितृवंशीय वैवाहिक संबंधों की मान्यता है किन्तु इनका स्वरूप रक्त संबंध व विवाह संबंधों में अंतर नहीं करता अपितु ये संबंध समानता पर आधारित होते हैं व वर व वधू में विभेदीकरण का अभाव होता है। संबंधों में पुत्र या पुत्री के लड़के को 'पेरहन', पुत्र या पुत्री की लड़की को 'पेती', दादा व नाना को 'ताता', दादी व नानी को 'पाटी' कहा जाता है। इस प्रकार पति व पत्नी पक्ष की समानता भी दृष्टिगोचर होती है। काफी हद तक इसे स्त्री के प्रति एक सकारात्क दृष्टिकोण समझा जा सकता है।

यहाँ मुख्यतः विवाह के तीन नियम पाए जाते हैं--

1.  मामा-भांजी विवाह-  
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                             नायरों में मातृवंशीय परिवार मिलते हैं किंतु ये विवाह प्रचलित नहीं।

2. ममेरे-फुफेरे भाई -बहिन बीच विवाह-
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                                  दक्षिण के सगोत्रीय विवाह में मामा की लड़की या बुआ की लड़की के साथ विवाह की परंपरा है, किन्तु मौसी व चाचा की लड़की को बहिन माना जाता है। 

3. ग्राम गोत्र विवाह- 
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                      छोटे नाते समूह या ग्राम अंदर वैवाहिक संबंध

 कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश जैसे कतिपय राज्यों की परंपराओं में किसी व्यक्ति के माता-पिता के माता-पिता भाई बहिन ही होते हैं...और चूँकि यह परंपरा का भाग है तो इसे वैध करार दिया जाता है। इसके साथ ही यह मत स्थापित है कि यदि लड़की का विवाह एक बार कहीं हो जाता है तो उस लड़की को मायके पक्ष में सम्मिलित नहीं माना जाता (हालाँकि सम्पत्ति की हिस्सेदारी में भागीदार माना जाता है।)। इस प्रकार से भाई-बहिन की संतानों में सहमति होने पर विवाह की मान्यताएं हैं। ऐसे विवाहों का प्राचीनकाल से चलन रहा है ताकि परिवार स्तर पर किसी भी बाहरी व्यक्ति के साथ संपत्ति को साझा न करना पड़े ।

मलयाली आदमी अपनी बहिन की बेटी से विवाह नहीं कर सकता  क्योंकि यह हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 एवं विशेष विवाह अधिनियम ,1954 द्वारा अयोग्य घोषित की गई हैं जब तक कि ऐसा होने के लिए उस संबंधित समुदाय की परंपराओं में सम्मिलित न हो या संबंधित को ऐसा विवाह करने की अनुमति न दी गयी हो।

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अय्यर दक्षिण भारत के तमिल ब्राहमण हैं। इस विवाह को तमिल में कल्याणम् या तिरूमनम् कहते हैं। यदि दक्षिण में कर्मकाण्डीय पक्ष देखा जाए तो यह इस भाग में मंत्रोच्चारण व तत्सम्बन्धी नियम उत्तर भारत से कहीं सबल है व विवाह को दिन में पूर्ण कराया जाता है क्योंकि विवाह के दिवस पर दम्पति की लौकिकाग्नि प्रारम्भ कराने का विधान है और कोई भी अग्नि कार्य सूर्य की उपस्थिति में ही होने की मान्यता है। यह शादी दो से तीन दिवसों के लिए चलती है। परम्परागत रूप से दुल्हन के परिवार वाले विवाह हेतु योजना बनाते हैं। व्रुथम: , पालिका (नौ तरीके के अनाज से दुल्हे और दुल्हन के ऊपर छिड़काव कर पूजा), जानावसन (बारात)  , निश्चयाथर्थम समारोह (सगाई), काशी यात्रा, मलय मात्रल(दूल्हा व दुल्हन को कंधों पर उठाकर वरमाल रस्म), ओंजल( वैवाहिक जोड़े को झूले पर बिठाकर मंगल गीत), कनिका दानम (कन्यादान),कंकणा धारनम( दूल्हा व दुल्हन द्वारा एक धार्मिक व्रत से खुद को बाध्य करने के लिये हल्दी लगा एक धागा बांधना), मांगल्यधारनम(पूर्व निर्धारित शुभ घंटे में मंगल सूत्र बाँधना), सप्तपदि(सात फेरे) आदि रस्मों के द्वारा वैवाहिक संस्कार को मान्यता दी जाती है।



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◆ सीमा बंगवाल

Sunday 7 June 2020

कोरोना वायरस-ज़िन्दगी या मौत?


कोरोना एक चर्बी युक्त मोटा सा दानव है । उसका सबसे आसान शिकार मानव ही है जिसकी फिराक में उसकी आँखें लगी हैं, जिसके लिए उसने सदियों से प्रयत्न किए। अब कहीं जाकर मानव को कैद करने में वह समर्थ हो सका।  इवानोवस्की को इस पृथ्वी का प्रथम वायरस खोजने का श्रेय प्राप्त है। हालाँकि वायरस का अस्तित्व पुरातन काल से रहा होगा बस वो तम्बाकू की पत्ती में सबसे पहले किसी वैज्ञानिक द्वारा खोजकर अभिलिखित कर दिया गया। सजीव व निर्जीव के बीच की कड़ी में उलझे इस कमज़ोर वायरस ने भी इंसान की तरह अपनी नस्लें बनाई। कई उत्परिवर्तन(म्युटेशन) हुए और वर्तमान वायरस का अस्तित्व सामने आया। कोरोना के म्युटेशन अचानक से नहीं हुए । वो उस वक़्त चुपचाप अपना काम करता रहा जब मानव अपने निजी एवं वैश्विक स्वार्थ की पूर्ति कर रहा था।

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मानव के इस पृथ्वी पर आविर्भाव के बाद प्राकृतिक तरीके से कई बार गुणसूत्रों की हेरा फेरी हो जाने से कई प्रकार की विकृतियों से युक्त संतान के जन्म होते रहे हैं। भ्रूण में गुणसूत्रों के बदलाव से बाहरी दिखने वाले लक्षणों (फीनोटाईप) के आधार पर जेनेटिक संरचना से हमने ये सब समझा... किन्तु ये भी संभव है कि जेनेटिक ऐसे कई बदलाव अभी भी जारी हैं और कई के बारे में हम अनभिज्ञ हैं। कई प्रकार के जंतु 'कैरियर' ही बने रहते हैं किंतु किसी भी हद तक उत्परिवर्तन को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 

विश्व विजेता सिकंदर के समय की दुनिया सूक्ष्म सी थी जो कालांतर में बढ़ते बढ़ते समंदरों को पार करके नई दुनिया तक विस्तृत होती चली गयी। एतिहासिक प्रमाणों में मानव के समक्ष सदैव एक ही लक्ष्य रहा.... विजित होना। मानव में भी पुरुष का ही मुख्य योगदान रहा क्योंकि युद्ध की बागडोर विश्व स्तर पर उसके ही हाथों में रही। मंगोल जैसी क्रूर जनजातियों ने भी वैश्विक आतंक स्थापित किया और भूमध्य रेखा के अधिकतर निचले देशों ने यह प्रभाव महसूस किया। धरती धीरे धीरे बंट रही थी और योग्यतम की उत्तरजीवता के सिद्धांत इक्कीसवीं सदी के क्रीमिया पर अधिकार तक पहुंच चुके थे। याने पृथ्वी पर विजित होने की परिकल्पना पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रही कारण चाहे 'रेड इंडियंस' और 'अनार्य' की निरीह स्थिति हो या फिर मुहम्मद साहब का 'जिहाद' उद्घोष।

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 अपने देश में महालनोबिस का मॉडल की असफलता व सोवियत रूस के विभाजन से इकानबे की मजबूरियां सामने आई। इंसान जिंदगी भर सीखता जाता है ये भी सीखने की ही बात रही जो हम पूँजीवाद की तरफ को झुकने लगे। इसके अलावा भी औद्योगिकीकरण बढ़ाने से कृषि क्षेत्र को सीमित कर दिया गया और उस छोटे से धरती क्षेत्र पर वैज्ञानिक आधार पर अधिकाधिक अन्न उपजाने का बोझ डाल दिया गया। भूमंडलीकरण के दौर में विकसित देश भारत जैसे जनाधिक्य वाले देशों में सिर्फ प्रयोग अधिक करते रहे हैं फिर चाहे 'जी एम फसलों' का उत्पादन हों या अपने सामान को बेचने हेतु बाज़ार तैयार करना । अंत मे होती है 'अम्बर बॉक्स' या 'ग्रीन बॉक्स' की राजनीति। अंतराष्ट्रीय स्तर पर सबसे पहले लोकलुभावन पृष्ठभूमि तैयार की जाती है बिल्कुल सुनियोजित तरीकों से...कई प्रकार की सौंदर्य प्रतियोगिताओं द्वारा, कुछ रियायतें देकर या फिर अन्य संगठनों के माध्यम से विभिन्न प्रकार से । उसके बाद आक्रमणों या अजेय बनने के हथियार निकाल दिए जाते हैं। चूँकि डार्विन का सिद्धांत विश्व में सर्वानुकरणीय देखा गया है तो इसे भी निंदित क्यों समझा जाए?

अब जब मानव का दिमाग़ इतना तेज़ गति से चल रहा है तो क्या वायरस को बढ़ने का अधिकार नहीं? इवानोवस्की के बाद कई वैज्ञानिकों ने इसके कई प्रकार खोजे। कई वायरस जनित रोग भी खोजे गए व उनके उपचार बना लिए गए। एंथ्रेक्स जैसे बैक्टीरिया के साथ मर्स, इबोला आदि कई प्रकार के वायरस प्रकार सामने आए...लेकिन जीवन चलता रहा...फिर भी हमने अपने स्तर पर इसके दुष्परिणामों हेतु नीति नहीं बनाई। वैसे भी गंभीर हम क्यों होंगे उसके बचाव, रिसर्च, दवा, व्यापार आदि के लिए तो 'वैश्विक प्रतिष्ठान' बने ही हैं ।  ओज़ोन की परत, प्रदूषण, बायोडाइवर्सिटी की चिंता करने के लिए भी वैश्विक फोरम हैं किंतु अभी कई ऐसे ज्ञात कारणों के कई दुष्परिणाम आने शेष हैं और उसके लिए भी कुछ मंच अपने अवतरित होने की प्रतीक्षा में हैं। 

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मानव समृद्धता होने पर उसका स्वभाव तो दुश्मनी की राजनीति करते ही चरितार्थ होता है। शक्ति परीक्षण मैदानों से अधिक दिमागों में होने लगे। अभी हाल ही में वर्चस्ववादी सोच के कारण सीरिया संकट पर पूरी धरती दो हिस्सों में बंटी हुई नज़र आई । फलीभूत किए गए ईरान से हथियार चलते रहे हैं। क्यूबा जैसा छोटा देश पुरानी फिएट गाड़ियों में सिमटकर अपने पड़ोसी पर विश्वास न कर सका और आज यूरोप व रूस की मदद करता दिखता है और यूरोप में ग्रीस जैसे छोटे देश की मदद उसके पड़ोसी नहीं कर पा रहे हैं। कितना भयावह है ऐसी राजनीति से मरना और मारना। अब कोरोना की राजनीति किसी ने देखी ही कहाँ थी पूरे वैश्विक स्तर पर तहलका मचा देने वाले इस उच्च स्तर जैसे वायरस को आम आदमी जानता ही कहाँ था...कोरोना ने कितनी आसानी से पूरी पृथ्वी से दोस्ती कर ली और इंसान नफ़रतों में जलता रहा। फिर वायरस ने इंसान से इतनी पीढ़ियों से कुछ तो सीखा ही होगा। 

परमाणु युद्ध, शीत युद्ध, बौद्धिक युद्ध जैसे कितने भी युद्ध हों लेकिन ये सब मानव जाति के लिए अभिशाप हैं। डार्विनवाद हर कसौटी पर सही नहीं हो सकता। मानव यदि किसी उपलब्धि को प्राप्त कर ले या न भी करे...तो भी मानव जीवन के उद्देश्य निराधार से हैं सोचिए यदि हज़ार वर्ष का जीवन होता तो हम सब दो सौ से अढ़ाई सौ वर्ष तक पढ़ रहे होते..... लेकिन अभी तो हम सौ वर्षों का जीवन भी नहीं देख पाते । ये सब आडंबर तो मानव चित्त की निरंतरता व जीवंतता हेतु ही अपने स्वरूप में हैं ताकि जीने का बहाना मिल सके।  

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बाहर प्रदूषण रहित आसमान है । लोग मास्क लगा कर ज़िन्दगी बचा रहे हैं। अरबों खरबों की रेल, बसें रुकी हैं। निम्न वर्ग की आजीविका संकटग्रस्त है। अपराध भी अभी स्थिर हैं। घर, राज्य, देश के साथ विश्व के पहिए रूक गए हैं इतनी बड़ी गाड़ी को चलाने वाली राजनीतियां भी हार चुकी है। धर्म हर कोने में मुँह छुपाए रोने लगे हैं। विज्ञान मौन मनन कर जीतने का प्रयास कर रहा है। पूरे 'विश्व का गाँव' एक ही समस्या से पीड़ित है। यूरोप के देश भी अन्य देशों की भाँति काफी पीछे के वर्षों में आ गए हैं। प्रकृति न्याय करने में सक्षम है। जंगल में बंद जानवर शहर में निकल कर सांस लेने लगे है...पक्षियों के कलरव के साथ कोयल को भी दिन रात के समय का मतिभ्रम हो गया है। हम विज्ञान या विवेक से इस बार भी ज़िन्दगी में आगे बढ़ जाएंगे किन्तु इतने बड़े विश्व स्तर की मशीनरी को रोक देने वाले ज्ञात इस वायरस के विभिन्न आयामों के संकटों को अनदेखा करने के बाद भी ऐसे कई अज्ञात कारण मानव पर आक्रमण करने को तैयार है। इंसानी साँसों के साथ विचारणीय है कि बंद अर्थव्यवस्था व खुली अर्थव्यवस्था में कौन इंसानी मुद्दों में बेहतर रहा अब ऐसा क्या खोजना शेष है जो मानव जीवन के हित में हो।

● सीमा बंगवाल

Saturday 30 May 2020

समय से आगे का समय


समय कभी नहीं रुकता ...न घड़ी में ...और न ही ज़िन्दगी में...। समय और ज़िन्दगी में एक फर्क होता है। समय पर उम्र की रेखाएं नहीं दिख पड़ती और ज़िन्दगी रेखाओं को जीकर दो ग़ज़ ज़मीन में समाती जाती है। समय की युवावस्था कभी ख़त्म नहीं होगी।वह मानव की उत्पत्ति से भी पूर्व बिग बैंग अवधारणा से समय से कितना जीवंत सा है। रामापिथेेकस , नियंडरथेलेंसिस जैसे कई मानवों के अवशेष हम इस समय की परिधि में खोल चुके है। अभी हम जैसे होमो सेपियंस के बाद जाने कौन सा जीव अवतरित हो। ये चिंता भी इंसान को कई पीढ़ियों के आगे ले जाएगी पर देखना ये समय जवां ही रहेगा। उस वक़्त चाहे ग्लोबल वार्मिंग से दुनिया धधक रही हो या सम्पूर्ण पृथ्वी ब्रह्मांड के उस डरावने से ब्लैक होल में समा जाने वाली हो। मेरे और आपके जैसे करोड़ो दिमाग़ भी समय के आगे अपनी आहुति दे देंगे पर समय न ही आपके इस बलिदान से द्रवित होगा और न ही उसके माथे पर झुर्रियां पड़ेंगी । सोचिए तो ज़रा....जब सारी पृथ्वी जर्जर हो सकती है....तारे , ग्रह काल के गर्भ में समा सकते है ...तो समय क्यों नहीं मरता ?



कई मानवीय सभ्यताएं हमने खंगाली हैं। हम सभी अवशेषों में इतिहास को जमा कर देखते रहने के आदी हैं। हम अदृश्य कथनों पर धर्म के नाम पर विश्वास करने की तरह अपने आस पास की हवा को महसूस करते हैं । हम ही वो लोग हैं जो समय को अपने जन्म और मृत्यु से महसूस करते हैं । किन्तु ये भी सत्य है कि हम बस महसूस करने में ही माहिर हैं । इंसान का समय उसके छोटे से जीवन काल में बदलता है । शुरुवाती जीवन जानवरों की तरह रेंगकर चलता है फिर जब खड़ा होकर चलने लगता है तो वो खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल कर बैठता है। किसी समय उसे दो जून की रोटियाँ भी नहीं मिलती, और कभी जब कुबेर महाराज की कृपा उस पर होने लगती है तो बस फिर तो दुनिया आपके कद से छोटी बन जाती है। ये साधारण सा हाड़ मांस का मनुष्य अपने जीवन के एक समय को खुशमय बनाने के लिए काफी लंबा समय अध्ययन काल के लिए सुरक्षित रखता है,लिखता -पड़ता है, अच्छी नोकरी या व्यवसाय करने के लिए या कहें अपने पैरों पर खड़े होने के लिए। जीवन को कर्मण्यशीलता से जीवंत रखने के लिए कितने ही लोगों ने सूक्त वाक्य लिखे परंतु मानव के जीवन का उद्देश्य मात्र कुछ वर्षों में सिमट कर कैसे रोचक रह सकता है।अपनी अपनी बौद्धिक क्षमताओं के आधार पर हर क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त होने के बाद मानव अपनी ढलती काया के खत्म होने का इंतज़ार करने को विवश हो जाता है। मानव के लिए बस यहीं तलक तो उद्देश्य है समय का फिर तो आत्म केंद्रित साध्यों की पूर्ति ही शेष रह जाती हैं।

       बरसों रामायण, महाभारत , पुराणों जैसे ग्रंथों से मनुष्य होने की योनि के प्रमाण इंसानी दिमाग ने स्वयं सिद्ध कर लिए । हिंदुओं की गीता ने आत्मा को अजर अमर घोषित किया। मुस्लिमों ने क़ुरान में स्वर्ग जाने की मेराज़ को बताया। ईश्वरवाद व अनीश्वरवाद की क्लिष्ट धरोहरों ने इसे अपने अपने तरीकों से और भी ज़्यादा व्याख्यात्मक कर डाला। हाय री इंसानियत ..जो हर काल निरंतर धराशायी होती रही और समय मानव की इस मूर्खता पर मंद मंद मुस्काता रहा , क्योंकि आदि व अंत में वो हो जीवित रहने वाला है जो एक अकाट्य सत्य है। 

ईसा मसीह के सलीब चढ़ने से समय ने बढ़ना शुरु किया।मानव जोड़ और घटाव के फेर तक ही सीमित रह गया। समय ने कितनी बार ग्रीन विच के वक़्त को भी धोखा दिया है...जाने कितनी बार समय के चार -चार सेकण्ड समय में समायोजित किए गए। मानव ने समय की पहेली को देशों में टाइम जोन में विभाजित किया किन्तु मानव समय को धोखा नहीं दे पाया।

मेरा मन भी कभी कभी बालक की हठ कर लेता है। मेरा दिल भावनाओं से भरता रहता है व दिमाग़ उन भावनाओं को पढ़ता है और मेरी ये कार्यशील उंगलियां मेरे  दिमाग को पढ़कर उसे पठनीय बनाती जाती हैं...है न  कंप्यूटर की गति से भी तेज़ , तो फिर समय की गति से आगे बढ़ उसे थामने में ये कुशलता कहाँ खो जाती है। पृथ्वी पर पाए जाने वाले प्रथम कोयसरवेट्स से होमोसेपियंस तक आ तो गए । कोई तो हो जो उस तेज़  समय के साथ दौड़ लगाने चले और उससे आगे निकल रोक ले उसे।

● सीमा बंगवाल

Thursday 28 May 2020

विवाह के पौराणिक आधारों में स्त्री का अस्तित्व (भाग-1)


कहा जाता है कि विवाह सात जन्मों का बंधन है। दरअसल ये बात हमारे संस्कारों से हममें समाहित होती गयी व इसे सफल बनाए जाने हेतु सारे धार्मिक कर्मकांडो को इसके पक्ष में स्थापित कर दिया गया। किसी भी स्थापित संस्था की प्रासंगिकता तब होती है जब आत्मिक स्तर पर किसी भी विचार को हमारा मन आत्मसात कर लेता है। यदि विवाह की संकल्पना में आदर्शवाद की भावना होती तो भारत देश में व्याभिचार की घटनाएं बहुतायत से न होती। माँ ,बहिन,बेटी के नाम पर गालियाँ देने वाले देश मे स्त्री संवेदनशीलता का नितांत अभाव है। ये स्थिति आज भी विकट है । हमारे परिवार की स्त्रियॉं भी अपने अस्तिव को जाने बिना इस दुनिया से देह त्याग जाती हैं। हम लोग धर्म की बात करते है, नियमो की बात करते है ...स्त्री के बारे मे सोचते तक नहीं है। स्त्री के प्रति वस्तुभाव रखते हुए धर्म नियमों के साँचे में ढालकर मन मुताबिक व्यवहार करवाने के उद्देश्य से विवाह संस्था को निर्मित किया गया। हालाँकि इसके अपने गुण दोष हैं। दक्षिण व उत्तर भारतीय खण्डों में पुरातन काल से विवाह संस्था की भिन्न परंपराएं स्थापित हुई हैं।

1. उत्तर भारत में विवाह के पौराणिक आधार-
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कहा जाता है कि आर्य यूरोपीय अथवा मध्य एशिया(अधिक मान्य) से भारत के सप्त सैंधव प्रदेश में बसे । वह इंडो-यूरोपियन भाषाएं बोलते थे। 'आर्य' भाषायी संदर्भ में प्रासंगिक है । यह किसी नस्ल के लिए (हिटलर या हिंदू दक्षिणपंथी) प्रयुक्त नहीं है। ख़ैर आर्य आगमन के उपरांत की व्यवस्थाओं में भारतीय स्तर पर महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। यहाँ पर चूँकि एक विषय मात्र पर लिखा जाना अपेक्षित है, तो उसी केंद्र पर हम हज़ारों साल पहले के पन्नों का सफ़र करेंगे।

ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर कहा जाता है कि मानव चेतना ने दिमाग़ के विकास व आकार को सुदृढ़ किया एवं परिणामस्वरूप किए गए श्रम ने उसके हाथों को दक्ष किया। समूह, कबीले, सगोत्र ...आदि व्यवस्थाएं सामने आई। स्त्री विचार पर यदि देखें तो मिश्र सभ्यता में प्रथम देवी को सिंहनी के आकार में अंकित कर दर्शाया गया। हालाँकि विश्व स्तर की किन्हीं सभ्यताओं में स्त्री का बंधन नैसर्गिक रूप से संतानोत्पत्ति का ही रहा। पुरुष के वर्चस्ववादी समाज में वह एक वस्तु की भाँति प्रयुक्त की जाती गई। अब चूँकि मानवीय बौद्धिक क्षमताओं के उन्नयन का स्तर तत्कालीन परिस्थितियों में पुरुष व स्त्री के मानवीय मूल्यों की तार्किकता को परिभाषित करने में सक्षम नहीं था, इसीलिए स्त्री के प्रति ऐसा भाव रखा जाना भी प्राकृतिक ही कहा जा सकता है। स्त्री के प्राकृतिक कर्तव्यों में शिशु पालन पोषण होने से भी उसका घरेलू अस्तित्व प्रगाढ़ होता गया। हालांकि इन प्राकृतिक व्यवस्थाओं को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता अपितु ये ही परंपराए ही कालांतर मे स्त्री के शारीरिक ; मानसिक व दैहिक अवनयन की आधारशिला रखने में सहायक सिद्ध हुई। 

शुरुवात में पुरुष या मातृ प्रधान जैसी कोई विचारधारा नहीं थी । यह एक प्राकृतिक रूप से गुजरने वाला जीवन था। जिसमें पुरुष व स्त्री भी अन्य जीव जंतुओं की तरह व्यवहार करते। ये न अच्छा था, न ही बुरा न नैतिक न अनैतिक। स्त्री को वस्तु की तरह देखने के कारण उसके साथ स्वतंत्र रूप से पशु-पक्षियों के समान यौनाचार करने की प्रवृत्ति रही और धीरे धीरे ये परंपरा का हिस्सा भी बनता गया। रामायण व महाभारत जैसी कथाओं में खीर खाने व देव आह्वान किए जाने से गर्भ धारण किया जाना भी उस समय स्त्री के प्रति ऐसी प्रवृत्ति को दर्शाता है। ऋग्वैदिक काल व उसके बाद में रचित ग्रंथों में गौतम ऋषि के वंशज ऋषि आरुणि (उद्दालक)पुत्र श्वेतकेतु का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि एक बार घर पर आए ऋषि की सेवा सुश्रुषा हेतु ऋषि आरुणि ने श्वेतकेतु की माता को आदेशित किया। अपनी माता को परपुरुष के साथ जाते देख श्वेतकेतु ने अपने पिता से इसका कारण जानना चाहा। ऋषि आरुणि द्वारा बताया गया कि "यह हमारी परंपराओं का हिस्सा है। स्त्री एक गाय की भाँति है और वह स्वतंत्र है।" उग्र व व्यथित श्वेतकेतु द्वारा पति व पत्नी हेतु पत्नीव्रत व पतिव्रत नियम बनाए गए एवं विवाह को धार्मिक आधार पर संस्थागत रूप से स्थापित किया गया।


एक अन्य मान्यता के आधार पर उत्तरी पांचाल की राजधानी कंपिला में पांचालों की परिषद हुई, जिसमें कई राज्यों के राजा, आर्यों व ब्राह्मणों के प्रतिनिधियों के साथ श्रोत्रिय भारद्वाज, शौनक, गौतम, जैमिनी, कणाद, वशिष्ठ, पाणिनि, औलूक जैसे कई धर्माचार्य भी सम्मिलित हुए। कई विद्वजन समझे जाने वाले लोगों के बीच विचार विमर्श के बाद निम्न मर्यादाएं/ नियम प्रतिपादित किए गए।

अथर्व आंगिरस ने प्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित करते हुए युवती के वरण का अधिकार समाप्त करते हुए गृह कृत्यों व एक पति के साथ वृद्धावस्था तक कर्तव्य स्थापित कर दिए व स्त्री का दायभाग समाप्त करते हुए पुत्र के अधिकार सुनिश्चित करके उसे पुरुष के अधीन करने का विचार रखा। ऐतरेय ने पुरुष के द्वारा कई स्त्रियां रखे जाने का समर्थन किया व स्त्री को एक पति तक सीमित करने की बात पर बल दिया गया। सगोत्रीय विवाह निषेध करने का प्रस्ताव भी परिषद में रखा गया।

सोलह महाजनपद काल में स्त्री विहीन परिषद में पुरुषों के स्वार्थ ने उक्त प्रस्ताव को पारित करते हुए आर्य, अनार्य, अनुलोम, संकर सभी जातियों पर लागू करा दिया गया। देश के कई जनपदों यथा आंध्र, सौराष्ट्र, चोल, चेर, पाण्डेय, अंग, बंग, कलिंग सभी पर यह नियम लागू कर दिए गए। अनार्य को शुद्ध वर्ण से त्याज्य मान असवर्ण विवाह से उत्पन्न संतानों को दायभाग से वंचित कर दिया गया। इसके साथ ही अनुलोम व प्रतिलोम की पृथक जाति स्थापित कर दी गयी।

तत्पश्चात गौतम ऋषि द्वारा छः प्रकार के विवाह परिषद में घोषित किए गए। 
1. ब्रह्म विवाह(ब्राह्मण का ब्राह्मण के लिए), 
2.दैव विवाह(क्षत्रिय का ब्राह्मण के लिए), 
3.आर्ष विवाह(जनपद के लिए), 
4.गांधर्व विवाह(वयस्क वरण आधारित), 
5.क्षात्र विवाह(क्षत्रिय का क्षत्रिय के लिए),
6.मानुष विवाह(क्षत्रिय,ब्राह्मण का शूद्र के लिए)।

आपस्तम्ब ने उपरोक्त मर्यादा स्वीकार करते हुए क्षात्र विवाह को राक्षस और मानुष विवाह को आसुर घोषित किया। ऐसे विवाह भारत के दक्षिण भागों में प्रचलित हुए। वशिष्ठ द्वारा शुल्क दे ली गयी असुर कन्याओं व मोल ली गयी नीच जाति की कन्याओं (दासी) को विवाहित का दर्जा न देकर उनसे हुई संतानों के अधिकार
समाप्त कर दिए गए।

आपस्तम्ब द्वारा दैत्यों के आर्यकुल व देवकुल में विवाह संबंध होने के उदाहरण दिए गए। उन्होंने पुलोमा दैत्य की पुत्री शची इंद्र विवाह, वृषपर्वा की कन्या से ययाति के विवाह जैसे उदाहरण सबके सम्मुख प्रस्तुत किए और राक्षस एवं असुर विवाहों को आर्य परिपाटी अंतर्गत स्वीकृत करने की मांग की। तत्पश्चात गौतम द्वारा विवाह के छः प्रकारों को बढ़ाते हुए 

7.प्रजापत्य (कन्या के पिता द्वारा आदेशित)और 
8.पिशाच (बलात हरण)

प्रकार (कुल आठ) का समावेश किया गया। प्रश्नगत दोनों मूलतः विवाह नहीं थे किंतु कांबोजों को आर्य संघ में लाने हेतु उनकी परंपराओं को विवाह में शामिल कर लिया गया। आर्यों को अपने विरुद्ध षड्यंत्र न झेलने पड़े इस कारण भी यह अपरिहार्य था।

गौतम व आपस्तम्ब द्वारा माता व पिता की छः पीढ़ियों तक सगोत्र विवाह अमान्य घोषित किए गए। गौतम ने विवाह हेतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र हेतु क्रमशः चार,तीन,दो,एक स्त्री की स्वीकृति दी व पुरुष के केवल अपने वर्ण की स्त्री से उत्पन्न संतति को ही पिता के शुद्ध वर्ण से होने के संपत्ति अधिकार दिए जाने की सहमति दर्शायी। अन्य संताने कुल सेवा हेतु प्रतिबद्ध की गई। इस प्रकार वैश्य व शूद्र में निम्न वर्ण रक्त अधिकायत से होने के कारण ये वर्ग हीन माने जाने के कथ्य स्थापित किए गए।

उक्त 'शुद्ध वर्ण' के अलावा निम्नलिखित जातीय संताने अस्तित्व में आई-
1. पारशव- ब्राह्मण पुरुष व शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतान

2. अम्बट- ब्राह्मण पुरुष व वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान

3. उग्र- क्षत्रिय पुरुष व शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतान

4. वैश्य- इनके द्वारा शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतानों को वैश्य ही माना गया।

हालाँकि आपस्तम्ब द्वारा वर्णसंकर जातियों के अनेक प्रकार होने से आर्यों के विरुद्ध विद्रोह किए जाने की शंका की गई किन्तु गौतम द्वारा रक्त की शुद्धता को वरीयता में रखते हुए आर्य विवाह हेतु पाँच विधियाँ प्रतिपादित की।

क) अग्निप्रदक्षिणा,
ख) सप्तपदी लाजहोम,
ग) शिलारोहण,
घ) कन्यादान,
ङ्ग) गोत्रों का बचाव।

वशिष्ठ द्वारा क्षेत्रज पुत्र को दायभाग में द्वितीय स्थान दिए जाने का विचार रखा गया। विमर्श के बाद बोधायन के तृतीय स्थान पर क्षेत्रज हेतु दायभाग दिए जाने को संस्तुति की गई।

आपस्तम्ब द्वारा नियोग प्रथा पर आपत्ति की गई। गौतम द्वारा विधवा स्त्री को गुरु की आज्ञा से  देवर से ऋतुगमन की मर्यादा स्थापित की। देवर के अभाव में सपिण्ड, सगोत्र,समान प्रवर, स्वर्ण पुरुष से स्वीकार किया गया व दो बच्चों तक नियत किया गया।(ऋतुगम्य पुरुष का संतान पर अधिकार नहीं होता था।)

इसके अलावा किसी भी परिस्थिति में कर्मकांडीय विवाह होने तक कन्या माने जाने पर संस्तुति की गई (ताकि वस्तु समान स्त्री उपयोग करने के कारण सामाजिक ढांचे पर नकारात्मक प्रभाव न आए) एवम इन्हें भी भिन्न नाम दिए गए। मर्यादित पुरुष के प्रकार इस सभा में नहीं रखे गए किन्तु वशिष्ठ द्वारा छः प्रकार की कन्याएं घोषित की गई-

1.अक्षत अविवाहिता
2.क्षत अविवाहिता
3.अक्षत विवाहिता
4.साधारण स्त्री
5.विशिष्ट स्त्री
6.मुक्तभोगिनी

गौतम द्वारा पति के एकाएक बाहर देश जाने पर छः वर्ष प्रतीक्षा कर स्त्री को पुनर्विवाह किए जाने हेतु सहमति दी किन्तु पति के विद्या अध्धयन की स्थिति में ये अवधि बारह वर्षों तक मानी गयी।
कात्यायन द्वारा नपुंसक या पतित पति की स्त्री के दूसरे विवाह से उत्पन्न पुत्र (पौनर्भव) को प्रथम पति के दाय से भोजन वस्त्र के अधिकार दिए गए। वशिष्ठ द्वारा पुनर्भवा स्त्री व पौनर्भव स्त्री के मापदंड रखे गए। हारीत (औरस,क्षेत्रज,पौनर्भव,कानीन, पुत्रिकपुत्र और गूढज) को क्रम से दायभागी माना गया।

इस प्रकार भरे पुरुष समाज के स्त्रीविहीन दरबार में स्त्री के लिए नियम बनाए गए और स्त्रियों ने इसे स्वीकार कर कई युग पर कर लिए। 

जब भी नई परंपराओं व नियमों को समाज के ऊपर थोपा जाता है तो अधिकतर ये स्वीकार्य नहीं होता। लेकिन भारतीय स्तर पर धर्म के अतिरेक ने इसे कुछ स्वीकार्य बना दिया क्योंकि स्त्री को देवी बना शोषण करने वाले ऋषि मुनि साक्षात ईश्वर का पर्याय माने जाते थे। वेदों में भारद्वाज,विश्वामित्र, कश्यप,अगस्त्य जैसे कई ऋषियों का उल्लेख मिलता है, जो हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में स्वर्ग के राजा इंद्र एवं अप्सराओं के साथ सीधे संपर्क करते दिखते रहे हैं। आज इक्कीसवीं सदी में भी साधारण जनमानस में धर्म की अंधता के द्वारा सब कुछ स्वीकार कराया जा सकता है। 

विश्व के विभिन्न स्थानों पर धर्म का उद्देश्य तत्कालीन परिस्थितियों में जीवन शैली के नियम बनाने से प्रारंभ हुआ। वेद, बाइबिल, क़ुरआन मेरे नज़रिए से दैवीय/आसमानी किताबें नहीं हैं...किसी मनुष्य के द्वारा इनको धर्म के आवरण में संभवतः इसलिए जड़ा गया होगा ताकि लोगों के मन में भय उत्पन्न हो व वह सही आचरण कर सके, उस समय लोगों ने ये सही मार्ग समझा होगा किन्तु आज वैज्ञानिक युग की दैवीय सोच में ऐसे प्रयोग प्रासंगिक नहीं हो सकते । यह आरंभिक ग्रंथ साधन व साध्य दोनों की पवित्रता का प्रतीक है। इन ग्रंथों में मानववादी दृष्टिकोण कमोबेश एक सा है... किंतु धीरे धीरे धर्म के अंध प्रचारकों द्वारा द्वेष, भेदभाव के इतने खाके खींच डाले कि आज करोड़ो लोग इसका शिकार हो गए हैं। जिसका सबसे ज़्यादा दर्द स्त्रियों ने बर्दाश्त किया है।

● सीमा बंगवाल 
                                               क्रमशः   .......

Wednesday 27 May 2020

आदिकाल से कोरोनाकाल तक उत्परिवर्तन के आयाम



आहार, निद्रा, भय (प्रतिवर्ती क्रियाएं) व मैथुन/परागण सजीव की नैसर्गिक प्रवृतियां हैं। मनुष्य उत्पत्ति के उपरांत सर्वप्रथम अनुभव के आधार पर खाद्य व अखाद्य आहार को वर्गीकृत किया गया। उसने अपनी दृष्टि अनुभवों से पशु को पशु का वध कर आहार बनते देखा होगा फिर उसकी बुद्धि ने मछली, छोटे जीवों से बड़े जीवों का शिकार कर आहार बनाया होगा। उस समय मांसाहार को चुनने व खाने में धार्मिक आधार नहीं था। संभवतः जिस जानवर की उपलब्धता अधिक या कम रही वह जानवर उस कबीले / मनुष्य का 'टोटेम'(गणचिह्न) बन गया होगा।



विश्व के सारे धर्मों से पूर्व आदिवासी संस्कृति व्याप्त थी जिसमें 'टोटेम' की अवधारणा थी जो धीरे धीरे सभ्यताओं व संस्कृतियों में समाती चली गयी। ये स्मृति चिह्नों के रूप में मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की सभ्यता में मुहरों, कलाकृतियों आदि के रूप अभिसारित हुई...मिस्र व मेसोपोटामिया के साथ ग्रीक व चीन सभ्यताओं में भी ऐसी समानता देखी गयी।

कालांतर में 'टोटेम' को विभिन्न धर्मों में कुलदेवता का दर्जा मिल गया। इसी प्रकार आदिवासियों में वृक्षों की उपयोगिता के आधार पर पीपल, बरगद, महुआ आदि को कुलवृक्ष का दर्जा मिला और वो कई आगामी कई  परंपराओं में पूजनीय हो गए।



धर्मों के स्थापन के उपरांत ये 'टोटेम' धर्म के अंदर समाहित किए गए। अधिकतर गणचिह्नों को सनातनी धर्म में भी पूजनीय माना गया है। सर्प नाग जाति का गण चिह्न था। अफ्रीका व युगांडा आदि देशों  में भी सर्प से कटवाकर न्याय किए जाने के उल्लेख मिलते हैं। इसी प्रकार मछली के रूप भी पूजनीय हुए। विष्णु का मत्स्य अवतार हो या फिर बंगाल में मछली की पवित्रता।
 मछली के सेवन को बंगाल व गोवा के ब्राह्मण परिवार शाकाहार मानते हैं। वैदिक काल की बात करें तो उस काल में बड़े दुधारू जानवरों को खाना वर्जित नहीं था। 

विश्व के विभिन्न भागों में उपलब्ध खाद्य के आधार पर जीवन शैलियां विभाजित हैं। फ्रांस जैसे देश में लगभग 1400 प्रकार के कीट खाए जाते हैं। विभिन्न धर्मों में बलि को भी मान्यतायें प्राप्त हैं कहीं वास्तविक व कहीं सांकेतिक। मक्का मदीना में ऊँट एवं ठण्डे प्रदेशों में याक आदि की बलि दी जाती है। वर्तमान में बलि हेतु मुर्गा, बकरा, भैंस आदि के साथ सांकेतिक रूप में नारियल, कद्दू के भी प्रमाण मिलते हैं। 
 

धरती बनने के बाद जीव जंतु व पेड़-पौधे कई प्रकार से प्रभावित हुए। 1984 में भोपाल गैस काण्ड में मनुष्यों के साथ ज़हरीली गैस मिथाइल आइसो साइनाइट से आस- पास के पौधे भी झुलस गए। हिरोशिमा व नागासाकी में मनुष्य, जानवर व पौधों में जेनेटिक उत्परिवर्तन(म्युटेशन) हुए। पृथ्वी पर ऐसे उत्परिवर्तन  चिरकाल से हो रहे हैं । यद्यपि अधिकाधिक कारणों के पीछे मानवजन्य विकास व कुंठाएँ है किंतु प्रकृति जन्य कारण को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।  

 ये पृथ्वी अनंत में सूर्य की परिक्रमा की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर घूर्णन कर रही है....सूर्य भी अनंत में स्थिर नहीं है वह भी जाने कितने दूरस्थ पिण्डों का चक्र पूर्ण करता होगा। पृथ्वी  जाने कितने अनंत में अपनी अवस्था से गुजरती होगी। पृथ्वी पर अमेज़ॉन और अफ्रीका के घने जंगल ग्लोबल वार्मिग को नहीं रोक पा रहे हैं .... अभी तक प्रकृति और मानव ने मिलकर ओज़ोन पर कितना कहर बरपाया है। प्रकृति तो सभ्यताओं को लीलकर दोबारा विकसित होने में सक्षम है किंतु मानव दोबारा विकसित नहीं हो सकता। 


मैंने 1945 के फेटमैन व लिटिल बॉय का कहर महसूस नहीं किया, साठ के दशक का अकाल नहीं देखा, भुखमरी नहीं देखी... गाँधी के समय प्लेग की महामारी भी नहीं लेकिन मैनें अभाव देखे, नफ़रतें देखी, अपमान देखे, ईर्ष्या देखी.....एंथ्रेक्स का खौफ़ दूर से जाना किन्तु आज कोरोना की वजह से प्रथम बार मृत्यु का भय व मानवता का अंत महसूस किया जो धर्म ,जाति, लिंग आदि किसी आधार पर विभेद नहीं करता। एक मामूली सा वायरस पूरे जगत को खत्म करने की क्षमता रखता है।  काफी इंसान मौत की नींद सो गए ओर काफी लोग मृत्यु की दहलीज़ पर खड़े हैं। हम लोग सैनिटाइजर व साफ सफाई पर केंद्रित हैं किंतु हम त्रासदियों से नहीं सीखते । कोरोना सबके प्रति समान व्यवहार रखता है ये तो उसका विशेष गुण है उसकी महानता है जो इंसान शायद ही सीखे । मरने व मारने के तो बहुत सारे तरीके हैं। हम लोग जो इस दुनिया मे शेष बचेंगे वो फिर इंसानों को बांटेंगे, नफ़रतों को पालेंगे। धरती की उर्वरता कब तक रहेगी? अपनी ही पृथ्वी से खनिज, तेल, अन्न सब कुछ तो छीन कर मैला करते रहे । 'हम लोग'....आसमान में इंसानी घुसपैठ से कितने वैज्ञानिक कचरे फैल गए । इन सभी विभिन्न मुद्दों के लिए इंसान होना ज़रूरी है।

   कोरोना से बचना व वैक्सीन बनाना एक अलग बात है किन्तु धरती की लहलहाती फसलें उर्वरकों के कारण कुछ क्षेत्रों तक सीमित हो गयी हैं और जनसंख्या आधिक्य वाले देश मांसाहार की और उन्मुख हुए हैं। कोरोना के कारण मांस मुफ़्त बंटने की कगार तक आ गए। मुर्गों के समस्त परिवार बेफिक्र हो सर उठा चलने लगे और हम लोग मास्क लगा घर में मृत्यु के भय को जीने को मजबूर...


मांसाहार कोई धार्मिक विरोध का कारण नहीं हो सकता...चुने हुए जानवरों के मांस खाना भी कोई आदर्श नहीं।  हम आपकी तरह जानवरों के शरीर के मांस में विभिन्न बीमारियां उत्पन्न हुई व मृत्यु का कारण बनी। मर्स , स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियों से भी हम बच गए किन्तु अब ये चिंतन का विषय है कि कितने काल से उत्परिवर्तन को अपनी कोशिकाओं में ढोते हुए जानवर के मांस बीमारी के वाहक तो नहीं या फिर हमारे शरीर मे किसी प्रकार के वायरस के प्रति एंटीबाडी बनाने में सक्षम तो नहीं हो रहे। हालाँकि शाक वर्ग में भी गुच्छी व मशरूम के अतिरिक्त कई प्रकार हैं जो कई उत्परिवर्तन के बाद आज ज़हरीले हैं। विडंबना है कि हम शाकाहार के प्रति तो इतने सजग हैं किंतु मांसाहार सिर्फ स्वाद व धार्मिक कवच के लिए करते हैं। 


ज़रूरत इस बात की है कि अपनी सोंच में इंसानियत को महत्व दे। हिन्दू व मुस्लिम लोग भविष्य के लिए अपना अच्छा इतिहास बनाए। हम सभी 'म्युटेटेड' लोग सब मिलकर म्युटेटेड मांस व म्युटेटेड शाक को खाने पर चिंतन करें। धरती को उर्वर और आसमान को फिर से साफ बनाए जाने की दिशा में प्रयत्नशील हो।

● सीमा बंगवाल