Thursday, 7 November 2024

धार्मिक परंपराओं में सूर्य पूजन का महापर्व छठ




बर्लिन के राज्य संग्रहालय में 14वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य का एक चित्र रक्षित है जिसमें मिश्र के फेरो अखेनाटन अपनी पत्नी रानी नेफरतिती एवं अपनी तीन बेटियों के साथ सूर्य देवता एटन (आतुम) की किरणों के साथ विराजित हैं। दुनिया के किसी भी धर्म से पहले प्रकृतिजन्य घटनाएं प्रारंभ हुई और फिर धीरे - धीरे मनुष्य प्रतीक पूजा की ओर उन्मुख हुआ। प्राचीन समय से ही मूर्ति पूजक एवं मूर्तिभंजक, दोनों ही प्रकारों में नैसर्गिक तत्वों का समावेश रहा है। ऐतिहासिक संदर्भ में पुरातात्विक साक्ष्यों में सूर्य की अंकना उसके महत्व को उद्घोषित करते हैं। प्राचीन मिस्र में ' केओस ' नामक समंदर से निकले पिरामिड पर कमल के फूल से सूर्य देवता ' रा ' की उत्पत्ति हुई, जिन्हें प्रकाश का देवता होने के साथ ब्रह्मांड का राजा भी कहा गया है। इसमें सुबह एवं संध्या के सूर्य को भी क्रमशः खेपरी एवं आतुम कहा गया है। दोनों ही प्रकार के सूर्य को दैविक रूप से स्थापित किया गया है। इसी प्रकार ग्रीक सभ्यता में देवता हेलिओस हैं जो हर दिन चार घोड़ों पर सवार होकर दिन एवं रात के लिए उत्तरदायी हैं। अमेरिका के संदर्भ में सूर्य याने ‘तोनतिहू’ अपनी काया से प्रकाश की किरणें निकालते हैं और ' आजटेक ' लोगों की रक्षा करते हैं। वे फसलों को खुशहाली और मनुष्यों को जीवन प्रदान करते हैं। इस प्रकार विश्व भर में अलग - अलग देशों में प्रकृति की कल्पनाओं को मनुष्य द्वारा देवताओं के रूप स्थापित किया गया हैं। विश्व स्तर पर कई कहानियों एवं देवताओं में समानता पाई जाती है।प्राकृतिक देवताओ के स्वरूप का उद्भव मानवीय बौद्धिक परिकल्पनाओं की विशेषता है। सूर्य नमस्कार को भी भारतीय योग द्वारा अंगीकार किया गया है।


वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी धर्मों एवं संस्कृतियों के अनन्य विभाजन हैं। ये विभाजन स्वाभाविक एवं नैसर्गिक हैं। धरती के उच्चावचों , समतल, उष्ण - शीत के सभी विलग स्थानों में परंपराओं के उद्भव की अपनी कहानी है। इसके बावजूद विशुद्ध रूप से ये कहा जा सकता है कि समय के मापन का सबसे प्रारंभिक सत्य सूर्य है। आदिकाल में जब समय को मापने हेतु समय घड़ी निर्मित होने के क्रम में थी उसी समय देवताओं के अनन्य रूप भी निर्मित हुए होंगे। भारतवर्ष में आर्यों के आगमन के साथ प्रकृति पूजन भी अस्तित्व में रहा। वेदों की कई ऋचाएं एवं मंत्र प्रकृति के देवों को समर्पित हैं। वेद, ब्राह्मण,अरण्यक,उपनिषद एवं पुराण में विभिन्न देवतत्वों का अंश है। इसमें कतिपय मौलिक एवं क्षेपक तत्व शामिल हो सकते हैं किंतु मानव बौद्धिकता ने धर्म को सर्वोपरि मान्य करते हुए विभिन्न आयामों से धर्म के कर्मकांडीय एवं आध्यात्मिक रूपों को परिभाषित किया है। स्पष्ट है प्रकृति पूजा सर्वप्रथम मानवीय जीवन में प्रविष्ट हुई। वेदों को ईश्वरीय कृति माना गया है। ऋग्वेद के तृतीय मंडल में गायत्री मंत्र सूर्य देवता को समर्पित है। सूर्य संसार के किसी भी धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं क्योंकि ये समय के मापन एवं जीवन का सबसे प्राकृतिक साधन है। दिन और रात के बदलते पहरों ने पृथ्वी पर मानव एवं अन्य जीव - जंतुओं के लिए जीवन के अपरिमित आयाम स्थापित किए। सनातनी परंपराओं में फलित हुए धर्मों में कर्मकांड का अधिक महत्व है। विभिन्न ज्योतिष गणनाओं एवं कैलेंडर में भी सूर्य को आधार माना गया है। हिन्दू मिथकों में सूर्य की पत्नी ऊषा (प्रातः) एवं प्रत्यूषा (सांय) भी सूर्य देवता के साथ पूजनीय है। उत्तराखंड का उत्तरायण पर्व, केरल का ओणम, कर्नाटक की रथ-सप्तमी मूलतः सूर्य-संस्कृति की उपासना के द्योतक हैं।


छठ पर्व ऐसा ही एक प्रकृति आधारित त्यौहार है जिसमें पार्वती के एक रूप छठी मैया को पूजा जाता है एवं उगते एवं ढलते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। छठ पर्व की शुरुआत के लिए भी विभिन्न धार्मिक किवदंतियां स्थापित हैं। महाभारत काल में पांडवों की हार के बाद द्रोपदी ने यह निर्जल व्रत रखा था जिसके बाद पांडवों को पुनः अपने राज्य की प्राप्ति हुई। महाजनपद काल में अंग एक सुदूर प्रदेश था जिसके राजा कर्ण थे,जिन्हें सूर्य पुत्र कहा जाता है। कर्ण सूर्य उपासक थे एवं नित्य सूर्य को अर्घ्य देते थे, जिसके कारण जीवन में उन्हें यश की प्राप्ति हुई। अन्य पौराणिक कथाएं भी छठ के महत्व को दर्शाती हैं। वर्तमान अंग प्रदेश का नाम भागलपुर एवं मुंगेर हो जाने पर भी सूर्य पूजन का महत्व बना हुआ है। इसी मुंगेर में राजा जनक की पुत्री सीता द्वारा छठ पर्व मनाया गया था। छठ पर्व में भले सूर्य देवता की पूजा होती हो लेकिन इसे छठी मैया कहकर संबोधित किया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार षष्ठी देवी को लोकभाषा में छठ माता कहा जाता है, जो ऋषि कश्यप तथा अदिति की मानस पुत्री हैं। इन्हें देवसेना के नाम से भी जाना जाता है। देवसेना भगवान सूर्य की बहन तथा भगवान कार्तिकेय की पत्नी हैं। देवासुर संग्राम में देवताओं की मदद के लिए जब इन्होंने असुरों का संहार किया, तो इन्हें देवसेना कहा गया। देवसेना के बारे में मान्यता है कि वो नवजात शिशुओं के जन्म से अगले 6 दिनों तक उनके पास रहकर उनकी रक्षा करती हैं। मानवीय धर्मों के उत्थान में ईश्वर से कुछ मांगने का प्रचलन रहा है। छठ के त्यौहार में भी मान्यता है कि विधिपूर्वक पूजन करने वाले को संतान की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही सूर्य त्वचा रोगों को दूर करने वाले एवं मनोनुकूल प्रतिफल देने वाले देवता माने जाते हैं। तिथि से नहाय खाय के साथ शुरू होता है और सप्तमी तिथि को उदयाकालीन अर्घ्य के साथ समाप्त होता है। 


  छठ पर्व कार्तिक माह शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से प्रारंभ होता है। पहला दिन ‘नहाय-खाय’ के नाम से जाना जाता है, व्रत करने वाले व्यक्ति अपने नजदीक में स्थित नदी या तालाब में जाकर स्नान करते है। व्रत लेने वाली अधिकतर महिलाएं होती हैं। इस पर्व में साफ़ - सफाई का बहुत महत्व है। व्रत करने वाले इस दिन सिर्फ एक बार ही साधारण एवं प्राकृतिक खाना खाते है। अगले दिन से उपवास आरम्भ होता है, जिसे खरना कहते हैं। इस दिन मिट्टी के चूल्हे पर गुड़ की खीर बनाई जाती है। इसके लिए पीतल या मिट्टी के नए बर्तन का प्रयोग किया जाता है। इसमें शुद्धता और पवित्रता का ध्यान रखा जाता है। खीर के अलावा गुड़ की अन्य मिठाई, ठेकुआ आदि भी बनाए जाते हैं। खरना की खीर और प्रसाद व्रती इंसान ही बनाता है। शाम में केले के पत्ते पर खीर, के कई भाग किए जाते हैं। अलग-अलग देवी देवताओं, छठ मैय्या, सूर्यदेव का हिस्सा निकाला जाता है। इसके बाद केला, दूध, बाकी पकवान भी उसके ऊपर रखे जाते हैं। फिर छठी मैया का ध्यान करते हुए अर्पित करने के बाद व्रती  व्यक्ति इसे कमरा बंद करके प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं, जिसे खरना कहते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं। यह पर्व 36 घंटों का निर्जला व्रत है । छठ का व्रत रखने वाले लोगों द्वारा ब्रह्मचर्य एवं साधारण जीवन शैली अपनाते हुए भूमि पर शयन किया जाता है। यह व्रत मनोवांछित फल देने वाला माना जाता है।


छठ में एक विशेष प्रसाद ' ठेकुआ' बनाया जाता है। ठेकुआ, आटे, गुड़ और घी के मिश्रण से बना एक बिस्किटनुमा मिष्ठान है जिसे विशेष सांचे में निर्मित करके घी या तेल में तलकर निकाला जाता है। ऐसे प्रसाद का प्रचलन उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में भी है। उत्तराखंड के टिहरी में ' रोटाना' नामक प्रसाद भी लगभग ठेकुआ का ही प्रतिरूप है। ठेकुआ एवं रोटाना लकड़ी से बने विशेष सांचे में तैयार किए जाते हैं। प्रसाद के रूप में विभिन्न फसलें, सब्जी, फल और ठेकुआ आदि को बांस से बने डाला/ दउरा एवं सूप में रखकर अर्घ्य देने के लिए सिर पर ले जाया जाता है। समस्त प्रसाद आदि सामग्री को अधिकांशतः पुरुष वर्ग ही सिर पर उठाकर नदी तक ले जाता है। इस त्यौहार से दउरा एवं बांस के सूप बनाने वालों की रोज़ी - रोटी का भी सीधा संबंध रहता है।


सनातन परंपरा में सूर्य एवं नक्षत्रों का भी विशेष महत्व है। भारत में नक्षत्र आधारित सौर कैलेंडर के आधार पर तिथि गणना प्रचलित है। जयपुर एवं दिल्ली के जंतर मंतर सौर समय के बेहतरीन उदाहरण हैं। इसके विपरीत यहूदी एवं इस्लामिक कैलेंडर चंद्र गति के अनुसार तिथि निर्धारित करते हैं। सौर एवं चंद्र वर्षों में 11 दिनों का अंतर होता है, जो 33 वर्षों बाद 1 वर्ष का अंतर बन जाता है। सौर वर्ष बड़ा होता है। कुछ देश सूर्य एवं चंद्र दोनों का प्रयोग करते हैं। फिर भी दुनिया भर में अधिकतर सौर कैलेंडर की सार्वभौमिकता स्थापित है। इन्हीं नक्षत्र सौर कैलेंडर के अनुसार भारत में 12 वर्ष में महाकुंभ होते है। सूर्य के मकर राशि में होने पर प्रयाग, कुंभ में होने पर हरिद्वार,मेष में होने पर उज्जैन और जर्क में होने पर नासिक में कुंभ मेले आयोजित किए जाते हैं। हिन्दू पौराणिक कथाओं में देव - असुर संग्राम के उपरांत अमृत कलश से चार बूंदे पृथ्वी के इन चार स्थानों पर पड़ी जिस कारण चार महाकुंभ नदी की पवित्रता के साथ प्रचलित हुए। इस प्रकार प्रकृति, धर्म और संस्कृति का हिस्सा बनी। 


जापान में सूर्य को स्त्री रूप यानी ‘अमतेरासू’ संपूर्ण ब्रह्माण्ड की देवी ‘ओमिकानी’ माना जाता है। जापान के होनशू द्वीप पर अमतेरासू-ओमिकानी के मंदिर भी पाए जाते हैं, जहां पर प्रत्येक 20 वर्ष के बाद एक मेला लगता है, जिसे ‘सिखिन सेंगू’ कहते हैं। सनातन परंपराओं में सूर्य के साथ नदियों का भी विशेष दर्जा है। यद्यपि शब्दों में गंगा स्त्रीलिंग और ब्रह्मपुत्र एक पुल्लिंग है अपितु यह सर्वविदित है कि संसार की सारी संस्कृतियों की नींव जलधाराओं के किनारे स्थापित हुई। गंगा को मां या देवी का दर्जा  दिए जाने का उद्देश्य इसकी पवित्रता को व्यापक रूप से स्थापित करने का माना जा सकता है। मनुष्य को धर्म के आधार पर ही नैतिकता में बांधा जा सकता है। छठ महापर्व मुख्यतः बिहार से संबंधित है किंतु उत्तराखंड के देवप्रयाग से बनी गंगा के कोलकाता तक के सफ़र में पड़ने वाले अधिकतर जनाधिक्य स्थानों पर भी उत्साहपूर्वक छठ पर्व मनाया जाता है। गंगा की पवित्रता में छठी मैया का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया जाता है। इसी पावन गंगा के जल से छठ के प्रसाद की शुद्धि की जाती है। प्रकृति के धर्म में स्थापित होने से धरती, आकाश, वायु, अग्नि एवं जल का अस्तित्व दिखाई देता है। कतिपय धार्मिक अनुष्ठान प्रकृति की विशेषता का द्योतक है।


वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो सूर्य एक तारा है, जिसमें हाइड्रोजन बम निर्माण की गतिविधि से ऊर्जा निकलती है जिसका प्रकाश, प्रकाशवर्षों की दूरी तय करके पृथ्वी पर जीवन का प्राथमिक स्रोत है।  पृथ्वी जैसे ग्रह सूर्य का चक्र अपनी विमाओं में पूर्ण कर रहे हैं। मनुष्य के आकलन से दूर समय की गणनाएं विद्यमान हैं। समय की गणनाओं को नक्षत्रों एवं समय घड़ियों के द्वारा दिखाए जाने के उद्देश्य से पृथ्वी को काल्पनिक रेखाओं में विभाजित किया गया और लगभग 180 डिग्री देशांतर को आधार मानते हुए सूर्य  की 24 घंटे की परिक्रमा को उगते सूर्य के देश जापान से प्रारंभ माना गया। कुल मिलाकर देशों के समय के विभिन्न विभाजनों में सूर्य की अहम भूमिका है एवं धार्मिक रूप से भी विशेष स्थान रखता है।


 पृथ्वी के निर्माणकाल में बना टेथिस सागर, ग्रीक देवी के नाम पर है, जो जल की देवी मानी जाती है। विश्व के किसी भी धर्म में प्रकृति का समावेश है। हिन्दू धर्म के अनुसार भगवान ब्रह्मा के पुत्र मरीचि एवं मरीचि के पुत्र महर्षि कश्यप हैं। महर्षि कश्यप पुत्र भगवान विवस्वान (सूर्य)सात अश्वों पर सवार होकर जगत की रक्षा कर रहे है। छठ महापर्व में अर्घ्य देते श्रद्धालुगण जीवन के पर्याय के रूप में उनकी ओर देखते हैं। सूर्य दिन एवं रात्रि में समस्त जीवों के क्रियाकलापों को नियंत्रित करने का साधन है। छठ त्यौहार में नदी के जल एवं आकाश के सूरज की महिमा है और दुनिया की समस्त जीवनशैलियों के लिए प्रकृति को अक्षुण्ण रखा जाना अपरिहार्य है। छठ जैसे त्यौहार मानव में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का श्रद्धाभाव उत्पन्न करते हैं । संसार की समस्त परंपराओं में सूर्य का महत्व युग -युगांतर तक सृजनकर्ता के रूप में प्रसिद्ध रहेगा।

Monday, 21 October 2024

धर्म की संहिताओं से लोकतंत्र की देवी तक का सफ़र

प्राचीन सभ्यताओं के विकास के क्रम में मुखिया या राजा के संबंध में भी क्रमबद्ध विकास जुड़ते रहे। इस लंबे विकासक्रम में लोकतंत्र की अवधारणा की अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूपरेखा के मध्य किसी जगह न्याय की व्यवस्था स्थापित हुई होगी। आप सोच सकते हैं कि आदि स्वरूप में न्याय की परिभाषा क्या रही होगी? कल्पना कीजिए गिनती को कैसे विकसित किया गया होगा। उसमें एक कहलाने वाला, जिसे आज हम आसानी से पढ़ सकते हैं । उसने अपने लिखे जाने के क्रम में मानव बुद्धि के कितने संघर्ष देखे होंगे। इसी प्रकार कई कानून अपने प्रारंभिक दौर में अपने होने के संघर्षकाल में रहे होंगे। कानूनों को स्थाई उत्कीर्ण करने हेतु उधेड़बुन ने इंसानी दिमागों को सक्षम बनाया होगा। उरू-कागिना संहिता, लिपिट - इश्टर की संहिता (लगभग 1870 ईसा पूर्व), एश-नुन्ना कानून (लगभग 1930 ईसा पूर्व), उर-नाम्मू की संहिता (लगभग 2050 ईसा पूर्व) जैसी कुछ लिखावटें आज तक बची हुई सबसे पुरानी ज्ञात विधि संहिताएं हैं । उर- नाम्मू संहिता मेसोपोटामिया से है और इसे सुमेरियन भाषा में धूप में सुखाई गई मिट्टी की पट्टिका पर लिखा गया जो वर्तमान में इस्तांबुल पुरातत्व संग्रहालय में संग्रहीत है। चूंकि इतिहास साक्ष्यों पर आधारित होता है इसलिए ये बातें अभिलिखित हैं। किंतु इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि तमाम ऐतिहासिक संदर्भों के बिना भी हम ये कह सकते हैं कि सामाजिक अवधारणाएं न्याय की धुरी पर घूमती हैं। ऐसी तमाम न्याय संहिताओं के पुनर्गठनों से एक स्पष्ट लिखित संहिता अस्तित्व में आई, जिसे हम्मूराबी की संहिता कहा जाता है । यह ज्ञात प्राप्त हुई संहिताओं के काफी बाद में अस्तित्व में आई किंतु स्पष्ट होने के कारण अग्रणी विधिनिर्माता के रूप में स्थापित है। ये संहिता काले पत्थर पर उकेरी गई है इसलिए इस संहिता को विश्व की सबसे प्राचीन लिखित संहिता (1754 ईसा पूर्व) का दर्जा प्राप्त है।  हम्मूराबी बेबीलोन के छठा राजा था, जिसका खानाबदोश परिवार सीरिया से आया था। पूर्व में स्थापित संहिताओं ने अपराध एवं दंड के आधार पर पर सामाजिक स्तरों के अनुसार न्याय को स्थापित किया। तत्समय समाज के विभाजन के आधार पर दण्ड निर्धारित थे। समाज में पुरुष एवं स्त्री के दंड भी उनके सामाजिक सोपान या कहा जाए हैसियत से तय होते थे। वर्तमान कानूनो की इमारती स्थापना भी ऐसे ही मौलिक संहिताओं की नींव से क्रमशः कई सुधारों के उपरांत हुई।



न्याय की संहिताओं के साथ अनेकानेक देशों के हिस्से प्राकृतिक पूजा के स्थान पर कहानियां गढ़ने रहे , जिससे धर्म के विभिन्न स्वरूप भी पनपते गए। एक ही प्रकार की कहानी अलग - अलग प्रकार से धर्मों का हिस्सा बनती चली गई। कहीं न कहीं धर्म, न्याय की अवधारणा के पीछे का मुख्य कारण कहा जा सकता है क्योंकि धर्म से ही मनुष्य को डराया जा सकता है। दुनिया की समस्त नैतिकताएं धर्म पर आश्रित होती हैं। आपको हैरानी होगी कि हम्मूराबी संहिता जब बेबिलोनिया में लागू की गई तो उसका स्वरूप प्रतिशोध पर आधारित था, जिसे ' लैक्स टेलियोनिस ' या ' आंख के बदले आंख ' सिद्धांत भी कहा जाता है। हम्मूराबी के बाद इन कानूनों में पुनर्जागरण देखने को मिला , जिसमें शारीरिक क्षति के बदले मौद्रिक मुआवजे के प्रावधान किए गए। यद्यपि ये भी वर्ग विभाजन के आधार पर तय था। बावजूद इसके कुछ अपराधों हेतु यथा हत्या, डकैती, व्यभिचार, बलात्कार के लिए मृत्युदंड निर्धारित थे। आज भी दुनिया के कई  धार्मिक देशों में कठोर कानून लागू हैं और वो देश इसकी पैरवी भी करते हैं। धर्म के आधार पर कानून की स्थापना की संकल्पना आई हो या फिर समाज को धार्मिक आधार पर दण्डित करने का विधान लाया गया हो। इन दोनों ही प्रकार के दृष्टिकोण में स्थानिक कहानियों में स्थापित देवी - देवताओं की महती भूमिकाएं रहीं है। प्रारंभिक मिथकों से ऐसे देवी - देवताओं को कानून के देवी या देवता के रूप में प्रचारित किया गया है। धर्म से नैतिकता के स्थापन के क्रम में हिंदू मिथकों में शनि न्याय के देवता हैं और रोमन मिथकों में देवी थीमिस एवं उनकी बेटी डाइक (जस्टिटिया) कानून एवं न्याय की देवियां। 


देशों के विभाजन से पूर्व भी साम्राज्य की सीमाएं निर्धारित की गई थी भले ही उसका आधार नृर्शंसात्मक रहा हो। किंतु विजित भूमि पर न्याय के विभिन्न स्वरूपों को लागू करने की दिशा में ही विजेता की व्यापक सत्ताधारी भूमिका स्थापित हुई। भय के माध्यम से परोपकारी सत्तात्मक आचरण को स्थापित कर दुनिया की शासन व्यवस्थाओं में कानूनों के प्रकार एवं उनके प्रतीक निश्चित होते चले गए। पृथ्वीराज चौहान तृतीय यदि तराइन के प्रथम युद्ध में ही मुहम्मद गौरी जैसे शत्रु को उदारता न दिखाते तो तराइन का द्वितीय युद्ध न होता। यद्यपि गौरी ने गुलाम वंश को भारत में स्थापित किया अपितु भारत भूमि पर विभिन्न राज्य सत्ता हस्तक्षेपों के दौर में भी न्याय की सर्वोच्च शक्ति खिलवत प्राप्त करने वाले शासक के हाथ में रही। ब्रिटिश सत्ता कंपनी के माध्यम से स्थापित हुई थी। ब्रिटिश शासन से भारत की आर्थिक रूप में अवनति प्रारंभ हुई। सांस्कृतिक अवनति का ह्रास इसलिए भी संभव नहीं हुआ क्योंकि भारत ने सभी बाहरी संस्कृतियों को सांस लेने के अवसर प्रदत्त किए। इन संक्रमणों से विभिन्न प्रकार से भारतीय परिवेश में सुधार आया। सती प्रथा रोक जैसे अधिनियम समाज में लाए गए जिससे लोगों में ऐसे अनुष्ठानों के प्रति चेतना स्थापित हुई । हालांकि ब्रिटिश कानून स्वीकार करना भी भारतीयों के लिए आसान नहीं था। हिन्दू धर्म में ' मलेच्छ ' की अवधारणा के प्रति भी जागृति उत्पन्न हुई। इसके बाद भी धर्मों के न्याय बने रहे। मिताक्षरा एवं दायभाग भी ब्रिटिशकाल में मान्य थे।


वारेन हेस्टिंग्स बंगाल के प्रथम गवर्नर बने । उन्हें ही न्याय व्यवस्था के अग्रिम पुरोधा का दर्जा प्राप्त है। इस बारे में भी विशेषतया उनके संबंध में अच्छा - बुरा कहे जाने के बहुत से तथ्य प्रामाणिक हैं। यूरोप पुनर्जागरण के एक लंबे व्यापारिक - राजनैतिक - आर्थिक लाभों का दोहन करने के बाद सन 1773 में विनियमन अधिनियम के द्वारा कोलकाता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। ब्रिटिश एवं भारतीय कानूनों के संक्रमण से वर्तमान कानूनों के स्वरूप में बदलाव होता चला गया। ये इसलिए भी संभव हो पाया क्योंकि संभ्रांत भारतीय विदेश में पढ़कर लौट रहे थे। विभिन्न स्थानों पर रहने वाली संस्कृतियों में किसी भी प्रकार के संक्रमण से नए प्रकार के सुधारों के क्रम की शुरुआत होती है। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम के उपरांत भारतीय भूभाग में स्वतंत्रता की लहर बहने लगी । सन 1947 के बाद की आज़ादी अपने समस्त विदेशी आक्रमणों से पूर्व की आज़ादी से भिन्न ही थी क्योंकि इसमें लोकतंत्र की संकल्पना थी। न्याय के लिए आईपीसी ब्रिटिशराज से यथावत लागू रही।भारतीय कानून के संबंध में न्याय के प्रतीक के रूप में एक स्त्री की प्रतिमा नज़र आती है। सत्रहवीं सदी में इस मूर्ति के रूप में धर्म का अधिक प्रभाव दिखता है। कालांतर में यही न्याय देवी के पर्याय के रूप में परिभाषित की जाने लगी।


न्याय की देवी की सबसे शुरुआती तस्वीर प्राचीन मिस्र की देवी मात में दिखाई देती है जो सत्य एवं संतुलन की प्रतीक मानी गई । पुरातन समाज में मृत्युपरांत आत्मा की संकल्पना अस्तित्व में थी जो कि विश्व स्तर पर अधिकतर समाजों का हिस्सा है। देवी मात को प्रायः एक पंख के साथ दर्शाया जाता है । प्राचीन मिस्र में मृतक के शरीर से दिल को निकाला जाता था जिसे तुला में पंख के साथ तोलकर मृत्युपरांत आत्मा की नियति तय की जाती थी। जो धर्म के साथ न्याय को स्थापित करता कर्मकांड है। पूर्व में ही कहा जा चुका है की धरती में विभिन्न स्थानों पर देवी देवताओं एवं कथाओं को अपनी-अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के अनुसार ढालकर प्रस्तुत किया गया है। 


ग्रीक मिथकों में भी प्रकृति आधारित देवी - देवता हैं, जो पिता - पुत्री के स्वरूप से विलग स्त्री - पुरुष के रूप में ही समझे गए। 

ग्रीक देवी थीमिस, टाइटन (गाया या पृथ्वी एवं यूरेनस या आकाश जैसे आदम देवताओं की संतान) है। टाइटन देवताओं का समूह है। देवी थीमिस कानून एवं व्यवस्था की प्रतीक है जो बाएं हाथ में तराजू एवं दाएं हाथ में तलवार के साथ दर्शायी गई है । देवी थीमिस की आंखों में प्रायः पट्टी बंधी दिखती है। देवी थीमिस की बेटी डाइक या एस्ट्रिया है जिसे जस्टिस की देवी कहा गया है, जिसके हाथ में तराजू को पकड़े दिखाया जाता है। देवियों के विभिन्न स्वरूपों में प्रतीकों का विशेष महत्व है किंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में ग्रीक देवी जस्टिटिया को कानून की देवी के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है, जो उपरोक्त समस्त प्रतीकों को धारित करती है। जिसमें परिभाषित किया गया है की आंखों पर लगी पट्टी निष्पक्षता की द्योतक है एवं तराजू साक्ष्य एवं तर्कों के आधार पर न्याय का समर्थन करता है । तलवार की भूमिका कानून को त्वरित न्याय एवं दृढ़ता पूर्वक लागू कर दंडित करने की है। निश्चित रूप से प्रारंभिक दौर में इन्हीं प्रतीकों का रूप उस समाज के अनुरूप ढला हुआ परिभाषित किया गया होगा। तार्किक आधार पर विभिन्न विश्लेषण किए जा सकते हैं।


जस्टिटिया एवं उसकी पर्याय देवियां बहुत सारे देशों में राजकीय भवनों एवं कानून आलयों के किसी स्थान पर विराजित हैं। भारत में उसकी आंखे खुल गई है, जो कि कई देशों की मूर्तियों की भी विशेषता है। वर्तमान में जस्टिटिया की बाएं हाथ की तलवार के स्थान पर भारतीय संविधान आ गया है, जो पहले भी कतिपय मूर्ति प्रतीकों का हिस्सा रहा है। चेक गणराज्य में भी देवी के बाएं हाथ में पुस्तक है। कुल कहा जा सकता है कि तमाम तर्कों के बावजूद देवी के दोनों हाथों में वैश्विक स्तर पर तमाम देशों द्वारा मान्य अवधारणाओं के अनुसार प्रतीक चिह्न पकड़ाए गए हैं। भारत में नवीन मूर्ति में न्याय देवी भारतीय वेशभूषा में वाग्देवी सदृश है जो खुली आंखों से देख रही है। बाएं हाथ की किताब में न्याय की संकल्पना दर्शित है। दाएं हाथ में तुलाओ में साम्य सामाजिक संतुलन का द्योतक है।ये किसी आलोचना का पर्याय न होकर विशेषता की प्रतिपूर्ति करता है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि हाथों में तराज़ू और संविधान का संयोजन मात्र भारत की न्याय की देवी में स्थापित दिखता है। प्रतीकात्मक स्वरूप से इतर न्याय की बात करें तो भारतीय न्यायालयों में करोड़ों मामले अपने निष्कर्ष के लिए लंबित हैं। भारत की जनसंख्या और न्यायिक स्तर पर पदों की रिक्तियां इसमें प्रमुख प्रत्यक्ष कारण हैं। विभिन्न अप्रत्यक्ष कारणों से भी न्याय की अवधारणा धूमिल होती है। मनुष्य के निश्चित जीवन में मृत्युपरांत न्याय, न्याय में सम्मिलित नहीं माना जा सकता। भारतीय न्याय व्यवस्था को लेकर आम धारणाओं में आलोचनात्मक पहलू विद्यमान रहता है। न्याय के प्रतीकात्मक स्वरूप में बदलाव के साथ ही न्याय व्यवस्था के विभिन्न सोपानों पर सुदृढ़ीकरण की आवश्यकता है ताकि भारतीय संविधान के शक्ति संतुलन के सिद्धांत द्वारा लोकतंत्र में न्याय की अवधारणा पर आम आदमी का विश्वास कायम हो सके। भारत के लोग किसी अन्याय के होने पर न्यायालय की शरण में जाते हैं । उनका दृढ़ विश्वास होता है कि उनके एक दिन उन्हें न्याय अवश्य मिलेगा। 


न्याय के प्रतीक बदलने से न्याय की भूमिका कमतर नहीं होती। अमेरिका का संविधान सबसे पुराना संविधान है। अमेरिका ने ऐतिहासिक संदर्भों से हम्मूराबी के चित्र को अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के कक्ष में 23 कानून निर्माताओं के साथ स्थापित किया गया है । समय के विभिन्न सोपानों में कानून की अवधारणा बदलती गई। धरती के देशों में बंटने के फलस्वरूप धर्म भी कई रूपों में दिखने लगा। कहीं शरीयत के कानून स्थापित हुए और कहीं अन्य धार्मिक व्यवस्थाएं। लोकतांत्रिक आधारों में संविधानों के अनुसार समाज में न्याय की स्थापना किया जाना आज भी लंबित है। लेकिन हर सकारात्मक बदलाव में एक कालखंड के संघर्ष निहित होते हैं।  न्यायालय न्याय के मंदिर हैं वहां न्याय के त्वरित एवं निष्पक्ष होने की उम्मीदें हमेशा जीवित होनी चाहिए। न्याय के प्रतीक वाली देवी अब भारतीय नज़र आती है । पूर्व मूर्ति में उसके बाएं हाथ में तलवार थी। वो बाएं हाथ की तलवार वैश्विक न्याय देवियों के दाएं हाथ की तलवारों की तुलना में कितनी सक्षम रही होगी? क्योंकि प्रायः इंसान अपने दाएं हाथ से बेहतर प्रहार करने में सक्षम होता है। हालांकि बाएं हाथ में तलवार के स्थान पर किताब की भूमिका एक विद्वता का गुण है अपितु आशा है वर्तमान न्याय की देवी भारत में स्त्रियों के प्रति बढ़ते अन्याय को खुली आंखों से देख त्वरित न्याय की स्थापना कर सकेगी और आमजनों के भीतर निष्पक्ष, निष्कलंक एवं श्वेत छवि की गरिमामयी छवि में अभिवृद्धि करेगी।


० सीमा बंगवाल