प्राचीन सभ्यताओं के विकास के क्रम में मुखिया या राजा के संबंध में भी क्रमबद्ध विकास जुड़ते रहे। इस लंबे विकासक्रम में लोकतंत्र की अवधारणा की अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूपरेखा के मध्य किसी जगह न्याय की व्यवस्था स्थापित हुई होगी। आप सोच सकते हैं कि आदि स्वरूप में न्याय की परिभाषा क्या रही होगी? कल्पना कीजिए गिनती को कैसे विकसित किया गया होगा। उसमें एक कहलाने वाला, जिसे आज हम आसानी से पढ़ सकते हैं । उसने अपने लिखे जाने के क्रम में मानव बुद्धि के कितने संघर्ष देखे होंगे। इसी प्रकार कई कानून अपने प्रारंभिक दौर में अपने होने के संघर्षकाल में रहे होंगे। कानूनों को स्थाई उत्कीर्ण करने हेतु उधेड़बुन ने इंसानी दिमागों को सक्षम बनाया होगा। उरू-कागिना संहिता, लिपिट - इश्टर की संहिता (लगभग 1870 ईसा पूर्व), एश-नुन्ना कानून (लगभग 1930 ईसा पूर्व), उर-नाम्मू की संहिता (लगभग 2050 ईसा पूर्व) जैसी कुछ लिखावटें आज तक बची हुई सबसे पुरानी ज्ञात विधि संहिताएं हैं । उर- नाम्मू संहिता मेसोपोटामिया से है और इसे सुमेरियन भाषा में धूप में सुखाई गई मिट्टी की पट्टिका पर लिखा गया जो वर्तमान में इस्तांबुल पुरातत्व संग्रहालय में संग्रहीत है। चूंकि इतिहास साक्ष्यों पर आधारित होता है इसलिए ये बातें अभिलिखित हैं। किंतु इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि तमाम ऐतिहासिक संदर्भों के बिना भी हम ये कह सकते हैं कि सामाजिक अवधारणाएं न्याय की धुरी पर घूमती हैं। ऐसी तमाम न्याय संहिताओं के पुनर्गठनों से एक स्पष्ट लिखित संहिता अस्तित्व में आई, जिसे हम्मूराबी की संहिता कहा जाता है । यह ज्ञात प्राप्त हुई संहिताओं के काफी बाद में अस्तित्व में आई किंतु स्पष्ट होने के कारण अग्रणी विधिनिर्माता के रूप में स्थापित है। ये संहिता काले पत्थर पर उकेरी गई है इसलिए इस संहिता को विश्व की सबसे प्राचीन लिखित संहिता (1754 ईसा पूर्व) का दर्जा प्राप्त है। हम्मूराबी बेबीलोन के छठा राजा था, जिसका खानाबदोश परिवार सीरिया से आया था। पूर्व में स्थापित संहिताओं ने अपराध एवं दंड के आधार पर पर सामाजिक स्तरों के अनुसार न्याय को स्थापित किया। तत्समय समाज के विभाजन के आधार पर दण्ड निर्धारित थे। समाज में पुरुष एवं स्त्री के दंड भी उनके सामाजिक सोपान या कहा जाए हैसियत से तय होते थे। वर्तमान कानूनो की इमारती स्थापना भी ऐसे ही मौलिक संहिताओं की नींव से क्रमशः कई सुधारों के उपरांत हुई।
न्याय की संहिताओं के साथ अनेकानेक देशों के हिस्से प्राकृतिक पूजा के स्थान पर कहानियां गढ़ने रहे , जिससे धर्म के विभिन्न स्वरूप भी पनपते गए। एक ही प्रकार की कहानी अलग - अलग प्रकार से धर्मों का हिस्सा बनती चली गई। कहीं न कहीं धर्म, न्याय की अवधारणा के पीछे का मुख्य कारण कहा जा सकता है क्योंकि धर्म से ही मनुष्य को डराया जा सकता है। दुनिया की समस्त नैतिकताएं धर्म पर आश्रित होती हैं। आपको हैरानी होगी कि हम्मूराबी संहिता जब बेबिलोनिया में लागू की गई तो उसका स्वरूप प्रतिशोध पर आधारित था, जिसे ' लैक्स टेलियोनिस ' या ' आंख के बदले आंख ' सिद्धांत भी कहा जाता है। हम्मूराबी के बाद इन कानूनों में पुनर्जागरण देखने को मिला , जिसमें शारीरिक क्षति के बदले मौद्रिक मुआवजे के प्रावधान किए गए। यद्यपि ये भी वर्ग विभाजन के आधार पर तय था। बावजूद इसके कुछ अपराधों हेतु यथा हत्या, डकैती, व्यभिचार, बलात्कार के लिए मृत्युदंड निर्धारित थे। आज भी दुनिया के कई धार्मिक देशों में कठोर कानून लागू हैं और वो देश इसकी पैरवी भी करते हैं। धर्म के आधार पर कानून की स्थापना की संकल्पना आई हो या फिर समाज को धार्मिक आधार पर दण्डित करने का विधान लाया गया हो। इन दोनों ही प्रकार के दृष्टिकोण में स्थानिक कहानियों में स्थापित देवी - देवताओं की महती भूमिकाएं रहीं है। प्रारंभिक मिथकों से ऐसे देवी - देवताओं को कानून के देवी या देवता के रूप में प्रचारित किया गया है। धर्म से नैतिकता के स्थापन के क्रम में हिंदू मिथकों में शनि न्याय के देवता हैं और रोमन मिथकों में देवी थीमिस एवं उनकी बेटी डाइक (जस्टिटिया) कानून एवं न्याय की देवियां।
देशों के विभाजन से पूर्व भी साम्राज्य की सीमाएं निर्धारित की गई थी भले ही उसका आधार नृर्शंसात्मक रहा हो। किंतु विजित भूमि पर न्याय के विभिन्न स्वरूपों को लागू करने की दिशा में ही विजेता की व्यापक सत्ताधारी भूमिका स्थापित हुई। भय के माध्यम से परोपकारी सत्तात्मक आचरण को स्थापित कर दुनिया की शासन व्यवस्थाओं में कानूनों के प्रकार एवं उनके प्रतीक निश्चित होते चले गए। पृथ्वीराज चौहान तृतीय यदि तराइन के प्रथम युद्ध में ही मुहम्मद गौरी जैसे शत्रु को उदारता न दिखाते तो तराइन का द्वितीय युद्ध न होता। यद्यपि गौरी ने गुलाम वंश को भारत में स्थापित किया अपितु भारत भूमि पर विभिन्न राज्य सत्ता हस्तक्षेपों के दौर में भी न्याय की सर्वोच्च शक्ति खिलवत प्राप्त करने वाले शासक के हाथ में रही। ब्रिटिश सत्ता कंपनी के माध्यम से स्थापित हुई थी। ब्रिटिश शासन से भारत की आर्थिक रूप में अवनति प्रारंभ हुई। सांस्कृतिक अवनति का ह्रास इसलिए भी संभव नहीं हुआ क्योंकि भारत ने सभी बाहरी संस्कृतियों को सांस लेने के अवसर प्रदत्त किए। इन संक्रमणों से विभिन्न प्रकार से भारतीय परिवेश में सुधार आया। सती प्रथा रोक जैसे अधिनियम समाज में लाए गए जिससे लोगों में ऐसे अनुष्ठानों के प्रति चेतना स्थापित हुई । हालांकि ब्रिटिश कानून स्वीकार करना भी भारतीयों के लिए आसान नहीं था। हिन्दू धर्म में ' मलेच्छ ' की अवधारणा के प्रति भी जागृति उत्पन्न हुई। इसके बाद भी धर्मों के न्याय बने रहे। मिताक्षरा एवं दायभाग भी ब्रिटिशकाल में मान्य थे।
वारेन हेस्टिंग्स बंगाल के प्रथम गवर्नर बने । उन्हें ही न्याय व्यवस्था के अग्रिम पुरोधा का दर्जा प्राप्त है। इस बारे में भी विशेषतया उनके संबंध में अच्छा - बुरा कहे जाने के बहुत से तथ्य प्रामाणिक हैं। यूरोप पुनर्जागरण के एक लंबे व्यापारिक - राजनैतिक - आर्थिक लाभों का दोहन करने के बाद सन 1773 में विनियमन अधिनियम के द्वारा कोलकाता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। ब्रिटिश एवं भारतीय कानूनों के संक्रमण से वर्तमान कानूनों के स्वरूप में बदलाव होता चला गया। ये इसलिए भी संभव हो पाया क्योंकि संभ्रांत भारतीय विदेश में पढ़कर लौट रहे थे। विभिन्न स्थानों पर रहने वाली संस्कृतियों में किसी भी प्रकार के संक्रमण से नए प्रकार के सुधारों के क्रम की शुरुआत होती है। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम के उपरांत भारतीय भूभाग में स्वतंत्रता की लहर बहने लगी । सन 1947 के बाद की आज़ादी अपने समस्त विदेशी आक्रमणों से पूर्व की आज़ादी से भिन्न ही थी क्योंकि इसमें लोकतंत्र की संकल्पना थी। न्याय के लिए आईपीसी ब्रिटिशराज से यथावत लागू रही।भारतीय कानून के संबंध में न्याय के प्रतीक के रूप में एक स्त्री की प्रतिमा नज़र आती है। सत्रहवीं सदी में इस मूर्ति के रूप में धर्म का अधिक प्रभाव दिखता है। कालांतर में यही न्याय देवी के पर्याय के रूप में परिभाषित की जाने लगी।
न्याय की देवी की सबसे शुरुआती तस्वीर प्राचीन मिस्र की देवी मात में दिखाई देती है जो सत्य एवं संतुलन की प्रतीक मानी गई । पुरातन समाज में मृत्युपरांत आत्मा की संकल्पना अस्तित्व में थी जो कि विश्व स्तर पर अधिकतर समाजों का हिस्सा है। देवी मात को प्रायः एक पंख के साथ दर्शाया जाता है । प्राचीन मिस्र में मृतक के शरीर से दिल को निकाला जाता था जिसे तुला में पंख के साथ तोलकर मृत्युपरांत आत्मा की नियति तय की जाती थी। जो धर्म के साथ न्याय को स्थापित करता कर्मकांड है। पूर्व में ही कहा जा चुका है की धरती में विभिन्न स्थानों पर देवी देवताओं एवं कथाओं को अपनी-अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के अनुसार ढालकर प्रस्तुत किया गया है।
ग्रीक मिथकों में भी प्रकृति आधारित देवी - देवता हैं, जो पिता - पुत्री के स्वरूप से विलग स्त्री - पुरुष के रूप में ही समझे गए।
ग्रीक देवी थीमिस, टाइटन (गाया या पृथ्वी एवं यूरेनस या आकाश जैसे आदम देवताओं की संतान) है। टाइटन देवताओं का समूह है। देवी थीमिस कानून एवं व्यवस्था की प्रतीक है जो बाएं हाथ में तराजू एवं दाएं हाथ में तलवार के साथ दर्शायी गई है । देवी थीमिस की आंखों में प्रायः पट्टी बंधी दिखती है। देवी थीमिस की बेटी डाइक या एस्ट्रिया है जिसे जस्टिस की देवी कहा गया है, जिसके हाथ में तराजू को पकड़े दिखाया जाता है। देवियों के विभिन्न स्वरूपों में प्रतीकों का विशेष महत्व है किंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में ग्रीक देवी जस्टिटिया को कानून की देवी के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है, जो उपरोक्त समस्त प्रतीकों को धारित करती है। जिसमें परिभाषित किया गया है की आंखों पर लगी पट्टी निष्पक्षता की द्योतक है एवं तराजू साक्ष्य एवं तर्कों के आधार पर न्याय का समर्थन करता है । तलवार की भूमिका कानून को त्वरित न्याय एवं दृढ़ता पूर्वक लागू कर दंडित करने की है। निश्चित रूप से प्रारंभिक दौर में इन्हीं प्रतीकों का रूप उस समाज के अनुरूप ढला हुआ परिभाषित किया गया होगा। तार्किक आधार पर विभिन्न विश्लेषण किए जा सकते हैं।
जस्टिटिया एवं उसकी पर्याय देवियां बहुत सारे देशों में राजकीय भवनों एवं कानून आलयों के किसी स्थान पर विराजित हैं। भारत में उसकी आंखे खुल गई है, जो कि कई देशों की मूर्तियों की भी विशेषता है। वर्तमान में जस्टिटिया की बाएं हाथ की तलवार के स्थान पर भारतीय संविधान आ गया है, जो पहले भी कतिपय मूर्ति प्रतीकों का हिस्सा रहा है। चेक गणराज्य में भी देवी के बाएं हाथ में पुस्तक है। कुल कहा जा सकता है कि तमाम तर्कों के बावजूद देवी के दोनों हाथों में वैश्विक स्तर पर तमाम देशों द्वारा मान्य अवधारणाओं के अनुसार प्रतीक चिह्न पकड़ाए गए हैं। भारत में नवीन मूर्ति में न्याय देवी भारतीय वेशभूषा में वाग्देवी सदृश है जो खुली आंखों से देख रही है। बाएं हाथ की किताब में न्याय की संकल्पना दर्शित है। दाएं हाथ में तुलाओ में साम्य सामाजिक संतुलन का द्योतक है।ये किसी आलोचना का पर्याय न होकर विशेषता की प्रतिपूर्ति करता है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि हाथों में तराज़ू और संविधान का संयोजन मात्र भारत की न्याय की देवी में स्थापित दिखता है। प्रतीकात्मक स्वरूप से इतर न्याय की बात करें तो भारतीय न्यायालयों में करोड़ों मामले अपने निष्कर्ष के लिए लंबित हैं। भारत की जनसंख्या और न्यायिक स्तर पर पदों की रिक्तियां इसमें प्रमुख प्रत्यक्ष कारण हैं। विभिन्न अप्रत्यक्ष कारणों से भी न्याय की अवधारणा धूमिल होती है। मनुष्य के निश्चित जीवन में मृत्युपरांत न्याय, न्याय में सम्मिलित नहीं माना जा सकता। भारतीय न्याय व्यवस्था को लेकर आम धारणाओं में आलोचनात्मक पहलू विद्यमान रहता है। न्याय के प्रतीकात्मक स्वरूप में बदलाव के साथ ही न्याय व्यवस्था के विभिन्न सोपानों पर सुदृढ़ीकरण की आवश्यकता है ताकि भारतीय संविधान के शक्ति संतुलन के सिद्धांत द्वारा लोकतंत्र में न्याय की अवधारणा पर आम आदमी का विश्वास कायम हो सके। भारत के लोग किसी अन्याय के होने पर न्यायालय की शरण में जाते हैं । उनका दृढ़ विश्वास होता है कि उनके एक दिन उन्हें न्याय अवश्य मिलेगा।
न्याय के प्रतीक बदलने से न्याय की भूमिका कमतर नहीं होती। अमेरिका का संविधान सबसे पुराना संविधान है। अमेरिका ने ऐतिहासिक संदर्भों से हम्मूराबी के चित्र को अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के कक्ष में 23 कानून निर्माताओं के साथ स्थापित किया गया है । समय के विभिन्न सोपानों में कानून की अवधारणा बदलती गई। धरती के देशों में बंटने के फलस्वरूप धर्म भी कई रूपों में दिखने लगा। कहीं शरीयत के कानून स्थापित हुए और कहीं अन्य धार्मिक व्यवस्थाएं। लोकतांत्रिक आधारों में संविधानों के अनुसार समाज में न्याय की स्थापना किया जाना आज भी लंबित है। लेकिन हर सकारात्मक बदलाव में एक कालखंड के संघर्ष निहित होते हैं। न्यायालय न्याय के मंदिर हैं वहां न्याय के त्वरित एवं निष्पक्ष होने की उम्मीदें हमेशा जीवित होनी चाहिए। न्याय के प्रतीक वाली देवी अब भारतीय नज़र आती है । पूर्व मूर्ति में उसके बाएं हाथ में तलवार थी। वो बाएं हाथ की तलवार वैश्विक न्याय देवियों के दाएं हाथ की तलवारों की तुलना में कितनी सक्षम रही होगी? क्योंकि प्रायः इंसान अपने दाएं हाथ से बेहतर प्रहार करने में सक्षम होता है। हालांकि बाएं हाथ में तलवार के स्थान पर किताब की भूमिका एक विद्वता का गुण है अपितु आशा है वर्तमान न्याय की देवी भारत में स्त्रियों के प्रति बढ़ते अन्याय को खुली आंखों से देख त्वरित न्याय की स्थापना कर सकेगी और आमजनों के भीतर निष्पक्ष, निष्कलंक एवं श्वेत छवि की गरिमामयी छवि में अभिवृद्धि करेगी।
० सीमा बंगवाल