Tuesday 9 June 2020

2. पौराणिक आधारों में स्त्री का अस्तित्व / सीमा बंगवाल


क्रमशः.....….
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विवाह के संस्थागत रूप में मात्र कर्तव्य ही समाहित होते गए व व्यक्ति द्वारा परिवार नामक संस्था को मानते हुए समाज में अपने अस्तित्व को स्थापित किया गया। फिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता समाज में निंदनीय ही रही इसीलिए विवाह के अस्तित्व को धारण करना आज भी एक आवश्यक मापदंड बना हुआ है। 'नैतिकता' नामक शब्द सिर्फ़ समाज के दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा का विषय है। विवाह बंधन की नैतिकता मात्र वैध संतानों तक सीमित रही है। यह विवाह एवं स्त्री के प्रति घरेलू दुर्व्यवहार का दुरूह परिणाम है कि 'लिव इन रिलेशन' को ज्यादा स्वीकार्य माना जा रहा है जहाँ कर्तव्य, बंधन जैसी बातें गौण हैं। मेरे विचार से वैवाहिक कर्मकाण्ड व लिव इन रिलेशन में सर्वप्रथम है 'मानसिक विवेचन'। हकीकत की ज़मीन पर हर व्यक्ति एक दूसरे के प्रति ईमानदार नहीं हो पाता....हालाँकि ये ईमानदारी किसी भी रिश्ते के प्रति हो सकती है किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 'विवाह' एक आडम्बर बन चला है, जो मात्र एक परिवार के अस्तित्व में होने का आभास कराने हेतु मानसिक सम्बल है व सामाजिक ढाँचे को पूर्ण करने कवायत और 'लिव इन' की स्वेच्छाचारिता मात्र बंधन मुक्त जीवन को जीने का उपक्रम। वर्तमान में दोनों में कोई साम्य नहीं व दोनों में कोई श्रेष्ठ या उत्तम भी नहीं। इसीलिए किसी भी परंपरा का माने जाने या न माने जाने के अपने अपने गुण व दोष हैं व ये भी नितातं रूप से व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर आधारित है ।

2. दक्षिण भारत में विवाह की प्रासंगिकता
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कई विद्वानों द्वारा दक्खिन भूखण्ड की भौगोलिक अवस्थिति को भारतीय मुख्य भूमि से अलग माना गया है और दक्खिन भूखण्ड के भारतीय मुख्य भूमि में जुड़ने के आधार भी विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए हैं। विश्लेषकों द्वारा भारतीय उत्तर भाग को आर्यों के आगमन व उनके द्वारा मौलिक जातियों के साथ की गई नृशंसता के कारण आर्यों को मौलिक जाति से अलग माना जाता है एवं दक्खिन भाग अनार्य होने का दावा कर भारतभूमि के मौलिक संतति के रूप में स्थापित जाते हैं । 

              यदि हम उपरोक्त वर्णन का संदर्भ न भी लें तो भी दक्षिण भारतीय लोगों को भाषा, श्यामल रंग व परंपराओं आदि के आधार पर विभेदीकृत किया जा सकता है। अब चूंकि यहाँ पर मुख्य विषय विवाह पद्यति का है तो सिर्फ़ विवाह के संबंध में ही कहा जाना श्रेयकर होगा।यदि स्त्री की स्थिति का संज्ञान लिया जाए तो उसकी स्थिति पितृसत्तात्मक नियमों के अधीन लगभग एक सी ही रही है। फिर भी दक्षिण भारतीय समाज में पुरातन काल से मातृसत्तात्मक अंशों का समावेश भी मिलता है।

            भारतीय परंपराओं में गोत्र का अत्यंत महत्व है । गोत्र का शाब्दिक अर्थ है, "गाय से जन्म" । मुख्यतः सात प्रकार के गोत्र माने गए हैं यथा भारद्वाज, विश्वामित्र, कश्यप, वशिष्ठ, अत्रि, जमदाग्नि व गौतम। गोत्र की उत्पत्ति काल्पनिक पूर्वज के आधार पर पशु पक्षी, भेद बकरी आधार को मानते हुए की गई है । गोत्र के बारे में सर्वप्रथम उल्लेख बौद्धायन ग्रंथ में मिलता है। यदि हिंदुओं की बात करें तो गोत्र द्विज वर्णों में पाया जाता है।
भारतीय कई जनजातियों में (राजगोण्ड व बोंडो) गोत्र का दो बराबर भागों में विभाजन पाया जाता है,जिसे अर्द्धांश कहते हैं। इसी प्रकार प्रवर व पिण्ड (एक ही व्यक्ति को सामान्य पूर्वज मानते हुए अर्पण ) को भी परिभाषित किया गया है।

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       गोत्र व्यवस्था संभवतः आर्यों के द्वारा ही प्रतिपादित की गई। वस्तुतः धीरे-धीरे इसका विस्तार भारत राज्य क्षेत्रों में प्रसारित हुआ होगा क्योंकि यदि परंपराओं के स्तर पर देखा जाए तो दक्षिण भारत में कतिपय स्थानों पर एक ही परिवार में विवाह के उद्देश्य से लड़की का आदान- प्रदान होता है । यह संबंधों में एक प्रकार की पुनः सुदृढ़ता का प्रयास मात्र है जो परिवारों के मध्य बंधुता स्थापित करती है व संपत्ति विभाजन को रोकती है। यदि गोत्र स्तर के गुण-दोष को छोड़ दिया जाए तो ऐसी परंपराओं में संबंधों को तरजीह दी जाती है तथा वर व वधू पक्ष बराबर के संबंधी माने जाते हैं। इन परंपराओं में ग्राम गोत्र विवाह की संकल्पना भी मान्य है।

 भारतीय परंपराओं में यदि हम उत्तर भारत के युगपुरुषों द्वारा लिखे गए ग्रंथो या महाकाव्यों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि प्राचीनकाल से गोत्र व्यवस्था के बावजूद रक्त संबंध विवाह प्रचलन में रहे। महाभारत में सुभद्रा व अर्जुन का प्रसंग हो या फिर अकबर शासन के पारिवारिक विवाह।

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सगोत्रीय विवाह के पक्ष में या फिर विपक्ष में भिन्न मत हो सकते हैं किंतु यदि वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर तार्किक रूप से मनन किया जाए तो हम पाएंगे कि खास नज़दीकी संबंधों में जेनेटिक मटेरियल के ढाँचे की एकरूपता की संभावना कुछ प्रतिशत तक हो सकती है, जिससे विभिन्न प्रकार के 'जीनोटाइपिक' व 'फीनोटाइपिक' विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। हालाँकि अन्य धर्मों में भी नज़दीकी रिश्तों के भाई बहनों में भी वैवाहिक संबंध होते रहे हैं ,जिससे वर्तमान में बाहरी रूप से शारीरिक सौष्ठव का अभाव भी रहता है। इस पर देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विस्तृत निर्णय दिए हैं। चूंकि ये सामाजिक आधार पर वैवाहिक संबंध की मान्यता का विषय है तो भी जेनेटिक समुच्चय की तार्किकता पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। समय के साथ आधुनिक परंपराओं में दूरस्थ विवाह होने लगे हैं।

ब्रिटिश भारत में सीमित रूप से समाज के धार्मिक व सांस्कृतिक ढाँचे में हस्तक्षेप किया गया, जिसके कारण सती प्रथा उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह अधिनियम एवं शारदा अधिनियम द्वारा कतिपय सुधारों के प्रयास किए गए। स्वतंत्रता के उपरांत सन 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम पारित करते हुए कई प्रकार के विविध विवाहों को समाप्त कर एकरूपेण व्यवस्था को स्थापित किया गया। सन 1953 में विवाह के मानकों में माता की और तीन पीढ़ियों तक व पिता की और छः पीढ़ियों तक आपस में वैवाहिक संबंधों को निषेध किया गया(परंपराओं आधार पर से विलग )। सन 1954 में विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह हेतु लड़के की आयु 21 व लड़की की आयु 18 निर्धारित की गई। इसके साथ ही अंतरजातीय व अन्तरसांस्कृतिक संबंधों को वरीयता दी गयी।

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यद्यपि दक्षिण भारत में भी पितृवंशीय वैवाहिक संबंधों की मान्यता है किन्तु इनका स्वरूप रक्त संबंध व विवाह संबंधों में अंतर नहीं करता अपितु ये संबंध समानता पर आधारित होते हैं व वर व वधू में विभेदीकरण का अभाव होता है। संबंधों में पुत्र या पुत्री के लड़के को 'पेरहन', पुत्र या पुत्री की लड़की को 'पेती', दादा व नाना को 'ताता', दादी व नानी को 'पाटी' कहा जाता है। इस प्रकार पति व पत्नी पक्ष की समानता भी दृष्टिगोचर होती है। काफी हद तक इसे स्त्री के प्रति एक सकारात्क दृष्टिकोण समझा जा सकता है।

यहाँ मुख्यतः विवाह के तीन नियम पाए जाते हैं--

1.  मामा-भांजी विवाह-  
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                             नायरों में मातृवंशीय परिवार मिलते हैं किंतु ये विवाह प्रचलित नहीं।

2. ममेरे-फुफेरे भाई -बहिन बीच विवाह-
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                                  दक्षिण के सगोत्रीय विवाह में मामा की लड़की या बुआ की लड़की के साथ विवाह की परंपरा है, किन्तु मौसी व चाचा की लड़की को बहिन माना जाता है। 

3. ग्राम गोत्र विवाह- 
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                      छोटे नाते समूह या ग्राम अंदर वैवाहिक संबंध

 कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश जैसे कतिपय राज्यों की परंपराओं में किसी व्यक्ति के माता-पिता के माता-पिता भाई बहिन ही होते हैं...और चूँकि यह परंपरा का भाग है तो इसे वैध करार दिया जाता है। इसके साथ ही यह मत स्थापित है कि यदि लड़की का विवाह एक बार कहीं हो जाता है तो उस लड़की को मायके पक्ष में सम्मिलित नहीं माना जाता (हालाँकि सम्पत्ति की हिस्सेदारी में भागीदार माना जाता है।)। इस प्रकार से भाई-बहिन की संतानों में सहमति होने पर विवाह की मान्यताएं हैं। ऐसे विवाहों का प्राचीनकाल से चलन रहा है ताकि परिवार स्तर पर किसी भी बाहरी व्यक्ति के साथ संपत्ति को साझा न करना पड़े ।

मलयाली आदमी अपनी बहिन की बेटी से विवाह नहीं कर सकता  क्योंकि यह हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 एवं विशेष विवाह अधिनियम ,1954 द्वारा अयोग्य घोषित की गई हैं जब तक कि ऐसा होने के लिए उस संबंधित समुदाय की परंपराओं में सम्मिलित न हो या संबंधित को ऐसा विवाह करने की अनुमति न दी गयी हो।

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अय्यर दक्षिण भारत के तमिल ब्राहमण हैं। इस विवाह को तमिल में कल्याणम् या तिरूमनम् कहते हैं। यदि दक्षिण में कर्मकाण्डीय पक्ष देखा जाए तो यह इस भाग में मंत्रोच्चारण व तत्सम्बन्धी नियम उत्तर भारत से कहीं सबल है व विवाह को दिन में पूर्ण कराया जाता है क्योंकि विवाह के दिवस पर दम्पति की लौकिकाग्नि प्रारम्भ कराने का विधान है और कोई भी अग्नि कार्य सूर्य की उपस्थिति में ही होने की मान्यता है। यह शादी दो से तीन दिवसों के लिए चलती है। परम्परागत रूप से दुल्हन के परिवार वाले विवाह हेतु योजना बनाते हैं। व्रुथम: , पालिका (नौ तरीके के अनाज से दुल्हे और दुल्हन के ऊपर छिड़काव कर पूजा), जानावसन (बारात)  , निश्चयाथर्थम समारोह (सगाई), काशी यात्रा, मलय मात्रल(दूल्हा व दुल्हन को कंधों पर उठाकर वरमाल रस्म), ओंजल( वैवाहिक जोड़े को झूले पर बिठाकर मंगल गीत), कनिका दानम (कन्यादान),कंकणा धारनम( दूल्हा व दुल्हन द्वारा एक धार्मिक व्रत से खुद को बाध्य करने के लिये हल्दी लगा एक धागा बांधना), मांगल्यधारनम(पूर्व निर्धारित शुभ घंटे में मंगल सूत्र बाँधना), सप्तपदि(सात फेरे) आदि रस्मों के द्वारा वैवाहिक संस्कार को मान्यता दी जाती है।



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◆ सीमा बंगवाल

14 comments:

  1. आपके विस्तृत आलेख के इस द्वितीय भाग में दक्षिण भारत में विवाह पद्धति पर महत्वपूर्ण जानकारी है . वस्तुतः दक्षिण में और पूर्व के बंगाल आदि क्षेत्रों में पूर्व में मातृसत्ता रही है जिसका प्रभाव अभी वहन की विवाह पद्धति एव रिश्तों में देखा जा सकता है . जो परम्पराएँ पितृसत्ता में अनुचित रहीं वे मातृसत्ता में स्वीकार्य हैं . इसके अलावा गोत्र सम्बन्धी जानकारी भी इस भाग में है , इस लेख की तीसरे भाग की प्रतीक्षा रहेगी .

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    1. शुक्रिया शरद जी💐

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  2. आपकी टिप्पणी दो बार प्रकाशित हो गई है

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  3. यह लेख पूर्णता है भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध है और यह वामपंथी प्रदूषित वातावरण की उपज है मैं आपके इस लेख की किसी भी स्तर से तारीफ नहीं कर सकता। भारत को अगर आप बेचना चाहते हैं तो बेच दे पर हमारे पुराण निकलने के बाद हमें ऐसे निर्लज्ज जिले को की जरूरत बिल्कुल नहीं है विवाह संस्था शोषण नहीं आप यह मांगी है ना कि कुंवारे रहने का भी अधिकार अगर कोई समाज ना दे सके तो उस पर कार्रवाई हो सकती है उसमें इतना षडयंत्र पूर्व भाषा युक्त आलेख लिखने की क्या जरूरत है

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    1. गिरीश जी आपकी भावनाओं का सम्मान। संभवतः आपके लिए ये लेख नहीं है। मैं आपको स्पष्टीकरण नहीं दे पाऊँगी। शुक्रिया।💐

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  4. बढ़िया पोस्ट ,अच्छी जानकारी ,शरद जी ने भी बहुत अच्छी तरह से समझाया ,धन्यवाद

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    1. शुक्रिया ज्योति जी💐

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  5. बहुत ज्ञानवर्धक आलेख .......मुझे इस आलेख में कुछ भी अनुचित नहीं लगा. आखिर क्यों इतना बबाल किया गया? हमारा देश विविधताओं का देश है. यहाँ सब तरह के विवाह प्रचलित हैं. यदि बात लिव इन की है तो लिव इन तो आज से कई युगों पहले भी स्थापित था जिसे हम गंधर्व विवाह के नाम से जानते हैं ..... पुरु और उर्वशी, मेनका विश्वामित्र का सम्बन्ध क्या था ? एक लिव इन ही था. इसके अलावा हमारी आदिवासी जनजाति में तो ये प्रथा आदिकाल से चली आ रही है. वहां तो लड़का लड़की पहले एक दूसरे के साथ रहते हैं, सम्बन्ध भी बनाते हैं और जब उन्हें लगता है वो निभा लेंगे तब विवाह करते हैं .....ऐसे में कैसे कहा जा सकता है विवाह के नियम का उल्ल्नाघन हो रहा है या संस्कृति भ्रष्ट हो रही है जबकि आज तो लिव इन को सरकार भी मान्यता दे चुकी है. मेरा उपन्यास है "अँधेरे का मध्य बिंदु" वह पढ़िए जो लिव इन पर ही आधारित है. वहीँ गोत्र व्यवस्था पर भी उपन्यास है "शिकन के शहर में शरारत" तो जो सीमा जी ने लिखा है कहीं कुछ गलत नहीं लिखा. ये हमेशा से होता रहा है.

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    1. शुक्रिया वंदन जी....कल के घटनाक्रम से मुझे आश्चर्य हुआ। समर्थन हेतु आपका आभार🙏💐

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  6. आज के सन्दर्भ में 'लिव-इन' को सही गलत के नज़रिए से नहीं बल्कि ज़रुरत के मुताबिक़ देखा जा रहा है. हमारे आज के सामजिक परिवेश और जीवन में आए परिवर्तन के कारण इसे मान्यता मिल रही है. निःसंदेह लिव इन व्यक्तिगत दृष्टिकोण और उपयोगिता पर आधारित है.
    विवाह की आवश्यकता और उसके प्रकार पर बहुत विस्तृत चर्चा की है आपने. मान्यताएँ, प्रक्रिया और संरचना समय के अनुसार बनती बदलती है. विवाह की कुछ परम्पराएँ बहुत अजीब लगती हैं, लेकिन उस समय की सोच के अनुसार निर्धारित हुआ होगा. भाई बहन या नज़दीके रिश्तों में विवाह से जेनेटिक डिसऑर्डर होना लाजिमी है, फिर भी यह सब हो रहा है.
    बहुत विस्तार से जानकारी मिली. धन्यवाद आपका.

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    1. लेख समझने के लिए आपका आभार। सही कहा आपने।🙏💐

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  7. विवाह के तमाम आयामों का सटीक विश्लेषण ।

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