Sunday 7 June 2020

कोरोना वायरस-ज़िन्दगी या मौत?


कोरोना एक चर्बी युक्त मोटा सा दानव है । उसका सबसे आसान शिकार मानव ही है जिसकी फिराक में उसकी आँखें लगी हैं, जिसके लिए उसने सदियों से प्रयत्न किए। अब कहीं जाकर मानव को कैद करने में वह समर्थ हो सका।  इवानोवस्की को इस पृथ्वी का प्रथम वायरस खोजने का श्रेय प्राप्त है। हालाँकि वायरस का अस्तित्व पुरातन काल से रहा होगा बस वो तम्बाकू की पत्ती में सबसे पहले किसी वैज्ञानिक द्वारा खोजकर अभिलिखित कर दिया गया। सजीव व निर्जीव के बीच की कड़ी में उलझे इस कमज़ोर वायरस ने भी इंसान की तरह अपनी नस्लें बनाई। कई उत्परिवर्तन(म्युटेशन) हुए और वर्तमान वायरस का अस्तित्व सामने आया। कोरोना के म्युटेशन अचानक से नहीं हुए । वो उस वक़्त चुपचाप अपना काम करता रहा जब मानव अपने निजी एवं वैश्विक स्वार्थ की पूर्ति कर रहा था।

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मानव के इस पृथ्वी पर आविर्भाव के बाद प्राकृतिक तरीके से कई बार गुणसूत्रों की हेरा फेरी हो जाने से कई प्रकार की विकृतियों से युक्त संतान के जन्म होते रहे हैं। भ्रूण में गुणसूत्रों के बदलाव से बाहरी दिखने वाले लक्षणों (फीनोटाईप) के आधार पर जेनेटिक संरचना से हमने ये सब समझा... किन्तु ये भी संभव है कि जेनेटिक ऐसे कई बदलाव अभी भी जारी हैं और कई के बारे में हम अनभिज्ञ हैं। कई प्रकार के जंतु 'कैरियर' ही बने रहते हैं किंतु किसी भी हद तक उत्परिवर्तन को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 

विश्व विजेता सिकंदर के समय की दुनिया सूक्ष्म सी थी जो कालांतर में बढ़ते बढ़ते समंदरों को पार करके नई दुनिया तक विस्तृत होती चली गयी। एतिहासिक प्रमाणों में मानव के समक्ष सदैव एक ही लक्ष्य रहा.... विजित होना। मानव में भी पुरुष का ही मुख्य योगदान रहा क्योंकि युद्ध की बागडोर विश्व स्तर पर उसके ही हाथों में रही। मंगोल जैसी क्रूर जनजातियों ने भी वैश्विक आतंक स्थापित किया और भूमध्य रेखा के अधिकतर निचले देशों ने यह प्रभाव महसूस किया। धरती धीरे धीरे बंट रही थी और योग्यतम की उत्तरजीवता के सिद्धांत इक्कीसवीं सदी के क्रीमिया पर अधिकार तक पहुंच चुके थे। याने पृथ्वी पर विजित होने की परिकल्पना पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रही कारण चाहे 'रेड इंडियंस' और 'अनार्य' की निरीह स्थिति हो या फिर मुहम्मद साहब का 'जिहाद' उद्घोष।

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 अपने देश में महालनोबिस का मॉडल की असफलता व सोवियत रूस के विभाजन से इकानबे की मजबूरियां सामने आई। इंसान जिंदगी भर सीखता जाता है ये भी सीखने की ही बात रही जो हम पूँजीवाद की तरफ को झुकने लगे। इसके अलावा भी औद्योगिकीकरण बढ़ाने से कृषि क्षेत्र को सीमित कर दिया गया और उस छोटे से धरती क्षेत्र पर वैज्ञानिक आधार पर अधिकाधिक अन्न उपजाने का बोझ डाल दिया गया। भूमंडलीकरण के दौर में विकसित देश भारत जैसे जनाधिक्य वाले देशों में सिर्फ प्रयोग अधिक करते रहे हैं फिर चाहे 'जी एम फसलों' का उत्पादन हों या अपने सामान को बेचने हेतु बाज़ार तैयार करना । अंत मे होती है 'अम्बर बॉक्स' या 'ग्रीन बॉक्स' की राजनीति। अंतराष्ट्रीय स्तर पर सबसे पहले लोकलुभावन पृष्ठभूमि तैयार की जाती है बिल्कुल सुनियोजित तरीकों से...कई प्रकार की सौंदर्य प्रतियोगिताओं द्वारा, कुछ रियायतें देकर या फिर अन्य संगठनों के माध्यम से विभिन्न प्रकार से । उसके बाद आक्रमणों या अजेय बनने के हथियार निकाल दिए जाते हैं। चूँकि डार्विन का सिद्धांत विश्व में सर्वानुकरणीय देखा गया है तो इसे भी निंदित क्यों समझा जाए?

अब जब मानव का दिमाग़ इतना तेज़ गति से चल रहा है तो क्या वायरस को बढ़ने का अधिकार नहीं? इवानोवस्की के बाद कई वैज्ञानिकों ने इसके कई प्रकार खोजे। कई वायरस जनित रोग भी खोजे गए व उनके उपचार बना लिए गए। एंथ्रेक्स जैसे बैक्टीरिया के साथ मर्स, इबोला आदि कई प्रकार के वायरस प्रकार सामने आए...लेकिन जीवन चलता रहा...फिर भी हमने अपने स्तर पर इसके दुष्परिणामों हेतु नीति नहीं बनाई। वैसे भी गंभीर हम क्यों होंगे उसके बचाव, रिसर्च, दवा, व्यापार आदि के लिए तो 'वैश्विक प्रतिष्ठान' बने ही हैं ।  ओज़ोन की परत, प्रदूषण, बायोडाइवर्सिटी की चिंता करने के लिए भी वैश्विक फोरम हैं किंतु अभी कई ऐसे ज्ञात कारणों के कई दुष्परिणाम आने शेष हैं और उसके लिए भी कुछ मंच अपने अवतरित होने की प्रतीक्षा में हैं। 

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मानव समृद्धता होने पर उसका स्वभाव तो दुश्मनी की राजनीति करते ही चरितार्थ होता है। शक्ति परीक्षण मैदानों से अधिक दिमागों में होने लगे। अभी हाल ही में वर्चस्ववादी सोच के कारण सीरिया संकट पर पूरी धरती दो हिस्सों में बंटी हुई नज़र आई । फलीभूत किए गए ईरान से हथियार चलते रहे हैं। क्यूबा जैसा छोटा देश पुरानी फिएट गाड़ियों में सिमटकर अपने पड़ोसी पर विश्वास न कर सका और आज यूरोप व रूस की मदद करता दिखता है और यूरोप में ग्रीस जैसे छोटे देश की मदद उसके पड़ोसी नहीं कर पा रहे हैं। कितना भयावह है ऐसी राजनीति से मरना और मारना। अब कोरोना की राजनीति किसी ने देखी ही कहाँ थी पूरे वैश्विक स्तर पर तहलका मचा देने वाले इस उच्च स्तर जैसे वायरस को आम आदमी जानता ही कहाँ था...कोरोना ने कितनी आसानी से पूरी पृथ्वी से दोस्ती कर ली और इंसान नफ़रतों में जलता रहा। फिर वायरस ने इंसान से इतनी पीढ़ियों से कुछ तो सीखा ही होगा। 

परमाणु युद्ध, शीत युद्ध, बौद्धिक युद्ध जैसे कितने भी युद्ध हों लेकिन ये सब मानव जाति के लिए अभिशाप हैं। डार्विनवाद हर कसौटी पर सही नहीं हो सकता। मानव यदि किसी उपलब्धि को प्राप्त कर ले या न भी करे...तो भी मानव जीवन के उद्देश्य निराधार से हैं सोचिए यदि हज़ार वर्ष का जीवन होता तो हम सब दो सौ से अढ़ाई सौ वर्ष तक पढ़ रहे होते..... लेकिन अभी तो हम सौ वर्षों का जीवन भी नहीं देख पाते । ये सब आडंबर तो मानव चित्त की निरंतरता व जीवंतता हेतु ही अपने स्वरूप में हैं ताकि जीने का बहाना मिल सके।  

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बाहर प्रदूषण रहित आसमान है । लोग मास्क लगा कर ज़िन्दगी बचा रहे हैं। अरबों खरबों की रेल, बसें रुकी हैं। निम्न वर्ग की आजीविका संकटग्रस्त है। अपराध भी अभी स्थिर हैं। घर, राज्य, देश के साथ विश्व के पहिए रूक गए हैं इतनी बड़ी गाड़ी को चलाने वाली राजनीतियां भी हार चुकी है। धर्म हर कोने में मुँह छुपाए रोने लगे हैं। विज्ञान मौन मनन कर जीतने का प्रयास कर रहा है। पूरे 'विश्व का गाँव' एक ही समस्या से पीड़ित है। यूरोप के देश भी अन्य देशों की भाँति काफी पीछे के वर्षों में आ गए हैं। प्रकृति न्याय करने में सक्षम है। जंगल में बंद जानवर शहर में निकल कर सांस लेने लगे है...पक्षियों के कलरव के साथ कोयल को भी दिन रात के समय का मतिभ्रम हो गया है। हम विज्ञान या विवेक से इस बार भी ज़िन्दगी में आगे बढ़ जाएंगे किन्तु इतने बड़े विश्व स्तर की मशीनरी को रोक देने वाले ज्ञात इस वायरस के विभिन्न आयामों के संकटों को अनदेखा करने के बाद भी ऐसे कई अज्ञात कारण मानव पर आक्रमण करने को तैयार है। इंसानी साँसों के साथ विचारणीय है कि बंद अर्थव्यवस्था व खुली अर्थव्यवस्था में कौन इंसानी मुद्दों में बेहतर रहा अब ऐसा क्या खोजना शेष है जो मानव जीवन के हित में हो।

● सीमा बंगवाल

3 comments:

  1. प्रभाव शाली शैली है आपकी।

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  2. विभिन्न विषयों जिससे दुनिया परेशान है, को तथ्यपूर्ण ढंग से लिखा है आपने। विचारपूर्ण आलेख।

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