Monday, 22 September 2025

मन का मनका



एक खोल निर्मित हो चुका है मन के बाहरी आवरण पर, जो मन की संवेदनाओं को व्यक्त करने में बाधक है। ऐसा भी नहीं कि मन पर कोई बंधन हो या कोई मजबूरी हो किन्तु कुछ तो होगा जो कई बार मन की गहराईयों से निकल खोल से बाहर नहीं आता और जिससे कई बार अपने भी रूठते रहे। इससे भी क्या फर्क पड़ता है मन किसी पर आश्रित भी नहीं लेकिन फिर क्या है जो अंदर से विचलित सा करता है। दुनियाँ भर की नसीहतों, नैतिकता , अस्तित्व की लड़ाई । उलझा हुआ मन न तो सुलझता है....सच कहूँ तो अब समझता भी नहीं। फिर समझे भी क्यों? समझ की भी एक पराकाष्ठा होती है।

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सुबह हर रोज़ की तरह है। बाहर आँगन में कुछेक फूल भी खिले ही हैं। आसमान में घटाओं ने डेरा डाला है ,ये धरती आसमान से नैन लगाए है लेकिन काला कौवा और गौरैया काफी दिनों से दिखे नहीं। वो नेवला कहलाने वाला जीव जाने कहाँ होगा....न ही नीलकंठ की उड़ान नज़र आ रही है। कुछ है भी और  कुछ नहीं भी। कहते हैं किताबों की सोहबत कभी अकेला नहीं छोड़ती । न ही कभी धोखा देगी । फिर किताबें जुदा -जुदा होकर भी एक सी क्यों है? 

शेक्सपियर, गोर्की की कहानियों का अधूरापन, पाउलो कौहेलो के कालजयी मानवीय व्यवहार का अकेलापन ...... याने अहसास की स्वीकार्यता सबके भीतर है। काफ़ी हद तक एक ही तरह से....। ये अहसास  प्रेमपरक होकर भी विलग स्वरूप से क्यों बँधे से हैं?


     ऐसा भी नही कि यूरोप ,भारत से हर विचारधारा में 200 वर्षों के अंतर पर रहा है क्योंकि सुरेंद्र वर्मा 'मुझे चाँद चाहिए' की सिलबिल की चकाचौंध ख्वाहिशों के हश्र की व्यथा कह चुके हैं। चतुरसेन , आम्रपाली को विलासितापूर्ण जीवन से बौद्ध भिक्षुक की राह पर कलमबद्ध कर चुके हैं। कविताओं की झंकार भी अहसास से उपजी है....दिनकर, हरिऔध, गुप्त आदि बिखर चुके हैं । फिर भी कुछ कमी रह गयी वरना रचनायें खत्म हो जाती । फिर वो सख्त खोल कितना निर्मम है। मन से सब कुछ निकालता ही नहीं? 500 ग्राम के इस मस्तिष्क में भी मन की कुंजी है लेकिन ये शातिर दिमाग़ भी मन को बाँध लेता है । मन पर पड़ी ये दोहरी मार एक इंसान के मूलभूत गुणों को अंततः ख़त्म ही करती है।


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कुछ सामान्य होकर भी सामान्य नहीं और बहुत सा असामान्य होकर भी असामान्य नहीं। मन के इस खोल के भीतर की उदासी भी शब्दों पर सिमट जाती है । मन की गति को रोकने के लिए खोल का विकल्प जीवन से साँसे छीन लेता है। एक छोटा सा मन ,जो दिल मे बसता है असीमित सा है। जब एक मन पूर्णतः परिभाषित नही हो सकता तो सृष्टि के इतने गूढ़ मन की कैसे व्याख्या हो। सारे मन असंख्य विचारों को ढोकर जर्जर से हो चले। विचारों के अतिरेक से बचने हेतु हम दूसरे मन पर भी अपने विचार लाद चलते हैं। बोझ अधिक है...कोई विचार सबसे अच्छा नहीं और सबसे खराब भी नहीं......कुछ विचार सामाजिक नैतिकता के हितैषी व कुछ स्वछंदता प्रिय ....इस गूढ़ ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी कुछ है जो अमृतमय है, जो कभी मृत्य नहीं होगा......हममें से सही माने में मन से जीते कितने लोग हैं?


#ख़्याल_ए_साहिबा

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