Monday, 22 September 2025

मन का मनका



एक खोल निर्मित हो चुका है मन के बाहरी आवरण पर, जो मन की संवेदनाओं को व्यक्त करने में बाधक है। ऐसा भी नहीं कि मन पर कोई बंधन हो या कोई मजबूरी हो किन्तु कुछ तो होगा जो कई बार मन की गहराईयों से निकल खोल से बाहर नहीं आता और जिससे कई बार अपने भी रूठते रहे। इससे भी क्या फर्क पड़ता है मन किसी पर आश्रित भी नहीं लेकिन फिर क्या है जो अंदर से विचलित सा करता है। दुनियाँ भर की नसीहतों, नैतिकता , अस्तित्व की लड़ाई । उलझा हुआ मन न तो सुलझता है....सच कहूँ तो अब समझता भी नहीं। फिर समझे भी क्यों? समझ की भी एक पराकाष्ठा होती है।

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सुबह हर रोज़ की तरह है। बाहर आँगन में कुछेक फूल भी खिले ही हैं। आसमान में घटाओं ने डेरा डाला है ,ये धरती आसमान से नैन लगाए है लेकिन काला कौवा और गौरैया काफी दिनों से दिखे नहीं। वो नेवला कहलाने वाला जीव जाने कहाँ होगा....न ही नीलकंठ की उड़ान नज़र आ रही है। कुछ है भी और  कुछ नहीं भी। कहते हैं किताबों की सोहबत कभी अकेला नहीं छोड़ती । न ही कभी धोखा देगी । फिर किताबें जुदा -जुदा होकर भी एक सी क्यों है? 

शेक्सपियर, गोर्की की कहानियों का अधूरापन, पाउलो कौहेलो के कालजयी मानवीय व्यवहार का अकेलापन ...... याने अहसास की स्वीकार्यता सबके भीतर है। काफ़ी हद तक एक ही तरह से....। ये अहसास  प्रेमपरक होकर भी विलग स्वरूप से क्यों बँधे से हैं?


     ऐसा भी नही कि यूरोप ,भारत से हर विचारधारा में 200 वर्षों के अंतर पर रहा है क्योंकि सुरेंद्र वर्मा 'मुझे चाँद चाहिए' की सिलबिल की चकाचौंध ख्वाहिशों के हश्र की व्यथा कह चुके हैं। चतुरसेन , आम्रपाली को विलासितापूर्ण जीवन से बौद्ध भिक्षुक की राह पर कलमबद्ध कर चुके हैं। कविताओं की झंकार भी अहसास से उपजी है....दिनकर, हरिऔध, गुप्त आदि बिखर चुके हैं । फिर भी कुछ कमी रह गयी वरना रचनायें खत्म हो जाती । फिर वो सख्त खोल कितना निर्मम है। मन से सब कुछ निकालता ही नहीं? 500 ग्राम के इस मस्तिष्क में भी मन की कुंजी है लेकिन ये शातिर दिमाग़ भी मन को बाँध लेता है । मन पर पड़ी ये दोहरी मार एक इंसान के मूलभूत गुणों को अंततः ख़त्म ही करती है।


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कुछ सामान्य होकर भी सामान्य नहीं और बहुत सा असामान्य होकर भी असामान्य नहीं। मन के इस खोल के भीतर की उदासी भी शब्दों पर सिमट जाती है । मन की गति को रोकने के लिए खोल का विकल्प जीवन से साँसे छीन लेता है। एक छोटा सा मन ,जो दिल मे बसता है असीमित सा है। जब एक मन पूर्णतः परिभाषित नही हो सकता तो सृष्टि के इतने गूढ़ मन की कैसे व्याख्या हो। सारे मन असंख्य विचारों को ढोकर जर्जर से हो चले। विचारों के अतिरेक से बचने हेतु हम दूसरे मन पर भी अपने विचार लाद चलते हैं। बोझ अधिक है...कोई विचार सबसे अच्छा नहीं और सबसे खराब भी नहीं......कुछ विचार सामाजिक नैतिकता के हितैषी व कुछ स्वछंदता प्रिय ....इस गूढ़ ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी कुछ है जो अमृतमय है, जो कभी मृत्य नहीं होगा......हममें से सही माने में मन से जीते कितने लोग हैं?


#ख़्याल_ए_साहिबा

Sunday, 26 January 2025

भारत: गणतंत्र की यात्रा और समृद्धि की दिशा


 
जब ' गणतंत्र ' नामक शब्द सुनाई पड़ता है, तो मुझे सूर्यवंशी राजा इच्छवाकु के पुत्र विशाल का स्मरण हो आता है, जिसके द्वारा बिहार में लिच्छवी गणराज्य की स्थापना की गई थी एवं जिसके नाम से वैशाली नाम प्रसिद्ध हुआ। वैशाली तत्समय वज्जि महाजनपद की राजधानी थी। लिच्छवी गणराज्य छठी शताब्दी ईसा पूर्व अस्तित्व में था, जिसे एशिया का प्रथम गणराज्य होने का दर्जा प्राप्त है। हिंदू स्मृति एवं पौराणिक मान्यताओं से इतर बुद्धकालीन मगध के सम्राट बिंबिसार द्वारा वैशाली के लिच्छवी राजा चेतक की पुत्री चेलना के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए जाने के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं। गणसंघ या गणराज्य प्राचीन भारत में गणतांत्रिक जनपद या राज्य थे, जिनकी राजनीतिक संरचना किसी विशेष कुल या गोत्र के रूप में स्थापित थी। इस प्रकार राजाधीन और गणधीन प्रकार की राज्य व्यवस्थाएं प्रचलन में रही। वैशाली का बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म से भी अटूट संबंध है। वैशाली ही वह स्थान है जहां अशोक स्तंभ आज भी बिना किसी शिलालेख के एकल सिंह द्वारा अपने धम्म स्तंभ होने का साक्ष्य प्रस्तुत करता है ।

मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म को अपनाया गया , जिसके क्रम में अशोक स्तंभों एवं शिलालेखों द्वारा आम जनता के मध्य नैतिकता को प्रसारित किया गया। इन नैतिकताओं का आधार बौद्ध धर्म को माना जा सकता है। बुद्ध द्वारा वर्षा काल की समाप्ति पर भिक्षुओं को चारों दिशाओं में जाकर बहुजन हिताय का आदेश मृगदाव में दिया गया था। संभवतः इस कारण राजा अशोक द्वारा सारनाथ स्तंभ के ऊपरी शिखर पर चारों दिशाओं में शेरों को निर्मित करवाया गया होगा। मुख्यतः यह धर्म चक्र प्रवर्तन की घटना का द्योतक माना जाता है। सिंह बुद्ध के शाक्य वंश का प्रतीक है, जो शक्ति, साहस एवं धर्म के मिले - जुले स्वरूप को दर्शाता है। सारनाथ स्तंभ से ही भारत का राजचिह्न लिया गया है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार धर्म एवं शासन करने के स्वरूप में निरंतर परिवर्तन होता गया। सम्राट अशोक के समय अखण्ड भारत का अस्तित्व दिखाई देता है, जिस पर शासन करने के तरीके का ही परिणाम है कि राज आज्ञाओं को अंकित करके नैतिक शासन को स्थापित किया गया, जिसमें पितृसत्तात्मक निरंकुशवाद के भी लक्षण दिखाई देते हैं।

गणतंत्र एवं लोकतंत्र की अवधारणा वैश्विक आधारों में संघर्ष, हिंसा एवं अधिकार की धुरी पर स्थापित हुई हैं। प्राचीन भारत के गणराज्य की मौलिक नींव ने कालांतर में आंतरिक एवं व्राह्य आक्रमणों के भार को झेला। इन्हीं आक्रमणों की परिणति ने देशों की सीमाओं का निर्माण किया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी जो भारत में व्यापारिक कंपनी थी जब वह शासन करने लगी तो कहीं न कहीं भारतीयों की चेतना में स्वशासन या स्वराज जैसे शब्द कौंधने लगे। संचार व्यवस्थाओं ने नेतृत्व को स्थापित किया और परिणामतः विभिन्न साधनों के माध्यम से भारतीयों को आज़ादी का साध्य प्राप्त हुआ। वो सारे लोग,जो ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए थे , स्वतंत्र होने पर पहली बार उन्हें आज़ादी के माने समझ आए। ये वो समय था जब भारतीयों को अपना निर्माण करना था। ऐसी व्यवस्था स्थापित करनी थी जिसमें जनता सर्वोपरि हो। हमारे संविधान निर्माताओं ने देश - विदेश की स्थापित व्यवस्थाओं का अध्ययन किया एवं भारतीय आमजन की राय के आधार पर भारतीय संस्कृति की मौलिकता के अनुसार संविधान के ढांचे का गठन किया। भारतीय संविधान 2 साल 11 माह 18 दिनों बाद दिनांक 26 नवंबर 1949 में तैयार हुआ जिसके 4 प्रावधान, अंतरिम संसद, नागरिकता,चुनाव, अस्थाई प्रावधान उसी दिन लागू किए गए। शेष संविधान भारत के गणतंत्र बनने के दिवस पर लागू किया गया।।

गणराज्य शब्द की उत्पत्ति फ्रांस में हुई। गणराज्य या गणतंत्र लैटिन भाषा के शब्द ' रेस पब्लिका '  के शाब्दिक अर्थ में देश को एक सार्वजनिक मामला माना गया है । गणराज्य के भीतर सत्ता के सांकेतिक एवं वास्तविक पद की निर्धारित व्यवस्था में राज्य का प्रमुख राजा नहीं होता एवं पद विरासत में प्राप्त नहीं होते अर्थात् सरकार जिसमें संविधान आधारित विधिवत रूप से निर्वाचित राज्य प्रमुख हो अर्थात् जिस देश में निर्धारित अवधि के लिए राष्ट्र प्रमुख चुना जाए ,उसे गणतंत्र कहा जाता है। भारतीय संदर्भ में शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत आधारित प्रतिनिधि लोकतंत्र है। भारतीय गणराज्य की अवधारणा ऐसे लोकतंत्र पर आधारित है जहां जनता की सरकार जनता के द्वारा जनता के लिए चुनी जाती है । यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक गणराज्य लोकतंत्र भी हो। चीन एवं ईरान जैसे देश गणराज्य है किंतु लोकतंत्र नहीं जबकि ब्रिटेन, कनाडा, स्वीडन, नॉर्वे जैसे देश लोकतंत्र होकर भी गणराज्य नहीं है । भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है । चूंकि कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन 26 जनवरी 1930 के दिन ही रावी तट पर जवाहर लाल नेहरू द्वारा 'पूर्ण स्वराज' की घोषणा करते हुए झण्डा फहराया गया था। इसी कारण 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र दिवस हेतु चुना गया। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के राष्ट्रपति बने और भारत एक गणतंत्र बना। ' जन मन गण ' के 52 सेकंड्स में 21 तोपों की सलामी के साथ भारतीय ध्वज अपने विभिन्न रंगों के साथ स्वतंत्रता की हवा में झूमने लगा। इसके साथ भारत बंगाल के गवर्नर से भारत के अंतिम गवर्नर जनरल तक की यात्रा पूर्ण करते हुए गणतंत्र स्वरूप में परिवर्तित हुआ एवं ब्रिटिश सत्ता से आजादी के बाद भारत में एक नए युग का उदय हुआ। 

भारत में पहली गणतंत्र परेड इरविन स्टेडियम (अब मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम) में हुई थी। 1955 में गणतंत्र दिवस परेड को राजपथ (वर्तमान कर्तव्य पथ) पर शिफ्ट किया गया। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि बने थे। इस बार भी इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियान्तो गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हो रहे हैं। भारत एक शांतिप्रिय एवं संप्रभु राष्ट्र है। परमाणु शक्ति संपन्नता वाले शीर्ष देशों में भारत का स्थान है। जहां एक ओर भारत राष्ट्र की सुरक्षा को महत्व देता है वहीं दूसरी तरफ़ इसरो जैसे संस्थान ने अंतरिक्ष विज्ञान में भारत को अमिट रूप से स्थापित किया है। चंद्रयान-3 के बाद ISRO ने मिशन आदित्य L1 को सफलतापूर्वक 'Halo Orbit' में स्थापित किया गया है। भारत ने ब्लैक हॉल अध्ययन हेतु अपने पहले एक्स-रे Polarimeter Satellite एक्सपोसैट के प्रक्षेपण के साथ नए साल की शुरुआत की है। 'गगनयान मिशन' जैसे कार्यक्रमों की ओर भारत अग्रसर है।

हमें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं जहां समस्त शक्ति जनता में निहित है। संविधान की प्रस्तावना में ' हम भारत के लोग ' लोकतंत्र की मूल भावना का प्रतीक है। भारत के गणतंत्र बनने के साथ ही भारत की समृद्ध एवं विविध संस्कृतियों ने संविधान के रूप में न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व की भावना को अपनाया। यह भारत की सांस्कृतिक विरासत का उत्सव भी है। ऐतिहासिक संदर्भों के साथ वर्तमान में मानव के लिए विभिन्न चुनौतियां सामने आ गई हैं। धरती के विभिन्न हिस्सों में सत्ताओं के संघर्ष से उपलब्ध संसाधनों पर संकट खड़ा हो रहा है जिस कारण भूमंडलीकरण के दौर में देशों की अर्थव्यवस्थाएं विभिन्न तरीकों से प्रभावित हो रही हैं। ऐसी अनवरत हिंसाओं ने मानवीय पीड़ा को बढ़ावा दिया है। मानवीय संघर्षों के साथ ही ग्लोबल वार्मिंग एवं पर्यावरण असंतुलन एक विकट समस्या है। विकास की अवधारणा को पर्यावरण की कीमत पर स्थापित नहीं किया जा सकता । इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्तिगत  रूप से मौलिक जीवन शैली को अपनाया जाए एवं नैसर्गिक तरीकों से नवाचार को बढ़ावा दिया जाए ताकि सतत विकास की अवधारणा जनसामान्य में स्थापित हो सके।

हम आज 76वाँ गणतंत्र मना रहे है। कृषि, अनुसंधान, तकनीक, शिक्षा , स्वास्थ्य एवं रक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में भारत प्रगतिशील है। संप्रभुता, बंधुत्व , एकता एवं अखंडता भारत की पहचान हैं। यद्यपि तकनीकी में विकास होने से इण्डिया एवं भारत के मध्य अंतर घटा है अपितु आवश्यकता इस बात की है कि मानवीय मूल्यों के साथ तकनीकी विकास को तरजीह दी जाए ताकि भारत बुनियादी न्यूनतम आवश्यकताओ की पूर्ति के साथ लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा के साथ न्याय कर सके। यह हमारी विविधता का उत्सव है । यह हमारे स्वतंत्रता सैनानियों के मनोभावों का यथार्थ है। वैयक्तिक स्तर पर सभी नागरिकों एवं व्यक्तियों को यह प्रयास करना चाहिए कि वह लोकतंत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करे। चाहे वोट डालने का अधिकार हो या फिर पर्यावरण को उन्नत करने का कर्तव्य....देश के प्रति किसी भी भागीदारी में सकारात्मक योगदान दिए जाने से ही किसी देश का महत्व होता है। आशा है ए0 आई0 के युग में भारत अपने मौलिक मूल्यों के साथ अभिवृद्धि करते हुए सतत विकास की संकल्पना के अनुरूप विकास की संभावनाओं को तलाश करेगा ताकि आगामी पीढ़ियों के लिए सुविधाजन्य जीवन की संकल्पना को स्थापित किया जाना संभव हो सके।

० सीमा बंगवाल

Thursday, 7 November 2024

धार्मिक परंपराओं में सूर्य पूजन का महापर्व छठ




बर्लिन के राज्य संग्रहालय में 14वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य का एक चित्र रक्षित है जिसमें मिश्र के फेरो अखेनाटन अपनी पत्नी रानी नेफरतिती एवं अपनी तीन बेटियों के साथ सूर्य देवता एटन (आतुम) की किरणों के साथ विराजित हैं। दुनिया के किसी भी धर्म से पहले प्रकृतिजन्य घटनाएं प्रारंभ हुई और फिर धीरे - धीरे मनुष्य प्रतीक पूजा की ओर उन्मुख हुआ। प्राचीन समय से ही मूर्ति पूजक एवं मूर्तिभंजक, दोनों ही प्रकारों में नैसर्गिक तत्वों का समावेश रहा है। ऐतिहासिक संदर्भ में पुरातात्विक साक्ष्यों में सूर्य की अंकना उसके महत्व को उद्घोषित करते हैं। प्राचीन मिस्र में ' केओस ' नामक समंदर से निकले पिरामिड पर कमल के फूल से सूर्य देवता ' रा ' की उत्पत्ति हुई, जिन्हें प्रकाश का देवता होने के साथ ब्रह्मांड का राजा भी कहा गया है। इसमें सुबह एवं संध्या के सूर्य को भी क्रमशः खेपरी एवं आतुम कहा गया है। दोनों ही प्रकार के सूर्य को दैविक रूप से स्थापित किया गया है। इसी प्रकार ग्रीक सभ्यता में देवता हेलिओस हैं जो हर दिन चार घोड़ों पर सवार होकर दिन एवं रात के लिए उत्तरदायी हैं। अमेरिका के संदर्भ में सूर्य याने ‘तोनतिहू’ अपनी काया से प्रकाश की किरणें निकालते हैं और ' आजटेक ' लोगों की रक्षा करते हैं। वे फसलों को खुशहाली और मनुष्यों को जीवन प्रदान करते हैं। इस प्रकार विश्व भर में अलग - अलग देशों में प्रकृति की कल्पनाओं को मनुष्य द्वारा देवताओं के रूप स्थापित किया गया हैं। विश्व स्तर पर कई कहानियों एवं देवताओं में समानता पाई जाती है।प्राकृतिक देवताओ के स्वरूप का उद्भव मानवीय बौद्धिक परिकल्पनाओं की विशेषता है। सूर्य नमस्कार को भी भारतीय योग द्वारा अंगीकार किया गया है।


वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी धर्मों एवं संस्कृतियों के अनन्य विभाजन हैं। ये विभाजन स्वाभाविक एवं नैसर्गिक हैं। धरती के उच्चावचों , समतल, उष्ण - शीत के सभी विलग स्थानों में परंपराओं के उद्भव की अपनी कहानी है। इसके बावजूद विशुद्ध रूप से ये कहा जा सकता है कि समय के मापन का सबसे प्रारंभिक सत्य सूर्य है। आदिकाल में जब समय को मापने हेतु समय घड़ी निर्मित होने के क्रम में थी उसी समय देवताओं के अनन्य रूप भी निर्मित हुए होंगे। भारतवर्ष में आर्यों के आगमन के साथ प्रकृति पूजन भी अस्तित्व में रहा। वेदों की कई ऋचाएं एवं मंत्र प्रकृति के देवों को समर्पित हैं। वेद, ब्राह्मण,अरण्यक,उपनिषद एवं पुराण में विभिन्न देवतत्वों का अंश है। इसमें कतिपय मौलिक एवं क्षेपक तत्व शामिल हो सकते हैं किंतु मानव बौद्धिकता ने धर्म को सर्वोपरि मान्य करते हुए विभिन्न आयामों से धर्म के कर्मकांडीय एवं आध्यात्मिक रूपों को परिभाषित किया है। स्पष्ट है प्रकृति पूजा सर्वप्रथम मानवीय जीवन में प्रविष्ट हुई। वेदों को ईश्वरीय कृति माना गया है। ऋग्वेद के तृतीय मंडल में गायत्री मंत्र सूर्य देवता को समर्पित है। सूर्य संसार के किसी भी धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं क्योंकि ये समय के मापन एवं जीवन का सबसे प्राकृतिक साधन है। दिन और रात के बदलते पहरों ने पृथ्वी पर मानव एवं अन्य जीव - जंतुओं के लिए जीवन के अपरिमित आयाम स्थापित किए। सनातनी परंपराओं में फलित हुए धर्मों में कर्मकांड का अधिक महत्व है। विभिन्न ज्योतिष गणनाओं एवं कैलेंडर में भी सूर्य को आधार माना गया है। हिन्दू मिथकों में सूर्य की पत्नी ऊषा (प्रातः) एवं प्रत्यूषा (सांय) भी सूर्य देवता के साथ पूजनीय है। उत्तराखंड का उत्तरायण पर्व, केरल का ओणम, कर्नाटक की रथ-सप्तमी मूलतः सूर्य-संस्कृति की उपासना के द्योतक हैं।


छठ पर्व ऐसा ही एक प्रकृति आधारित त्यौहार है जिसमें पार्वती के एक रूप छठी मैया को पूजा जाता है एवं उगते एवं ढलते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। छठ पर्व की शुरुआत के लिए भी विभिन्न धार्मिक किवदंतियां स्थापित हैं। महाभारत काल में पांडवों की हार के बाद द्रोपदी ने यह निर्जल व्रत रखा था जिसके बाद पांडवों को पुनः अपने राज्य की प्राप्ति हुई। महाजनपद काल में अंग एक सुदूर प्रदेश था जिसके राजा कर्ण थे,जिन्हें सूर्य पुत्र कहा जाता है। कर्ण सूर्य उपासक थे एवं नित्य सूर्य को अर्घ्य देते थे, जिसके कारण जीवन में उन्हें यश की प्राप्ति हुई। अन्य पौराणिक कथाएं भी छठ के महत्व को दर्शाती हैं। वर्तमान अंग प्रदेश का नाम भागलपुर एवं मुंगेर हो जाने पर भी सूर्य पूजन का महत्व बना हुआ है। इसी मुंगेर में राजा जनक की पुत्री सीता द्वारा छठ पर्व मनाया गया था। छठ पर्व में भले सूर्य देवता की पूजा होती हो लेकिन इसे छठी मैया कहकर संबोधित किया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार षष्ठी देवी को लोकभाषा में छठ माता कहा जाता है, जो ऋषि कश्यप तथा अदिति की मानस पुत्री हैं। इन्हें देवसेना के नाम से भी जाना जाता है। देवसेना भगवान सूर्य की बहन तथा भगवान कार्तिकेय की पत्नी हैं। देवासुर संग्राम में देवताओं की मदद के लिए जब इन्होंने असुरों का संहार किया, तो इन्हें देवसेना कहा गया। देवसेना के बारे में मान्यता है कि वो नवजात शिशुओं के जन्म से अगले 6 दिनों तक उनके पास रहकर उनकी रक्षा करती हैं। मानवीय धर्मों के उत्थान में ईश्वर से कुछ मांगने का प्रचलन रहा है। छठ के त्यौहार में भी मान्यता है कि विधिपूर्वक पूजन करने वाले को संतान की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही सूर्य त्वचा रोगों को दूर करने वाले एवं मनोनुकूल प्रतिफल देने वाले देवता माने जाते हैं। तिथि से नहाय खाय के साथ शुरू होता है और सप्तमी तिथि को उदयाकालीन अर्घ्य के साथ समाप्त होता है। 


  छठ पर्व कार्तिक माह शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से प्रारंभ होता है। पहला दिन ‘नहाय-खाय’ के नाम से जाना जाता है, व्रत करने वाले व्यक्ति अपने नजदीक में स्थित नदी या तालाब में जाकर स्नान करते है। व्रत लेने वाली अधिकतर महिलाएं होती हैं। इस पर्व में साफ़ - सफाई का बहुत महत्व है। व्रत करने वाले इस दिन सिर्फ एक बार ही साधारण एवं प्राकृतिक खाना खाते है। अगले दिन से उपवास आरम्भ होता है, जिसे खरना कहते हैं। इस दिन मिट्टी के चूल्हे पर गुड़ की खीर बनाई जाती है। इसके लिए पीतल या मिट्टी के नए बर्तन का प्रयोग किया जाता है। इसमें शुद्धता और पवित्रता का ध्यान रखा जाता है। खीर के अलावा गुड़ की अन्य मिठाई, ठेकुआ आदि भी बनाए जाते हैं। खरना की खीर और प्रसाद व्रती इंसान ही बनाता है। शाम में केले के पत्ते पर खीर, के कई भाग किए जाते हैं। अलग-अलग देवी देवताओं, छठ मैय्या, सूर्यदेव का हिस्सा निकाला जाता है। इसके बाद केला, दूध, बाकी पकवान भी उसके ऊपर रखे जाते हैं। फिर छठी मैया का ध्यान करते हुए अर्पित करने के बाद व्रती  व्यक्ति इसे कमरा बंद करके प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं, जिसे खरना कहते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं। यह पर्व 36 घंटों का निर्जला व्रत है । छठ का व्रत रखने वाले लोगों द्वारा ब्रह्मचर्य एवं साधारण जीवन शैली अपनाते हुए भूमि पर शयन किया जाता है। यह व्रत मनोवांछित फल देने वाला माना जाता है।


छठ में एक विशेष प्रसाद ' ठेकुआ' बनाया जाता है। ठेकुआ, आटे, गुड़ और घी के मिश्रण से बना एक बिस्किटनुमा मिष्ठान है जिसे विशेष सांचे में निर्मित करके घी या तेल में तलकर निकाला जाता है। ऐसे प्रसाद का प्रचलन उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में भी है। उत्तराखंड के टिहरी में ' रोटाना' नामक प्रसाद भी लगभग ठेकुआ का ही प्रतिरूप है। ठेकुआ एवं रोटाना लकड़ी से बने विशेष सांचे में तैयार किए जाते हैं। प्रसाद के रूप में विभिन्न फसलें, सब्जी, फल और ठेकुआ आदि को बांस से बने डाला/ दउरा एवं सूप में रखकर अर्घ्य देने के लिए सिर पर ले जाया जाता है। समस्त प्रसाद आदि सामग्री को अधिकांशतः पुरुष वर्ग ही सिर पर उठाकर नदी तक ले जाता है। इस त्यौहार से दउरा एवं बांस के सूप बनाने वालों की रोज़ी - रोटी का भी सीधा संबंध रहता है।


सनातन परंपरा में सूर्य एवं नक्षत्रों का भी विशेष महत्व है। भारत में नक्षत्र आधारित सौर कैलेंडर के आधार पर तिथि गणना प्रचलित है। जयपुर एवं दिल्ली के जंतर मंतर सौर समय के बेहतरीन उदाहरण हैं। इसके विपरीत यहूदी एवं इस्लामिक कैलेंडर चंद्र गति के अनुसार तिथि निर्धारित करते हैं। सौर एवं चंद्र वर्षों में 11 दिनों का अंतर होता है, जो 33 वर्षों बाद 1 वर्ष का अंतर बन जाता है। सौर वर्ष बड़ा होता है। कुछ देश सूर्य एवं चंद्र दोनों का प्रयोग करते हैं। फिर भी दुनिया भर में अधिकतर सौर कैलेंडर की सार्वभौमिकता स्थापित है। इन्हीं नक्षत्र सौर कैलेंडर के अनुसार भारत में 12 वर्ष में महाकुंभ होते है। सूर्य के मकर राशि में होने पर प्रयाग, कुंभ में होने पर हरिद्वार,मेष में होने पर उज्जैन और जर्क में होने पर नासिक में कुंभ मेले आयोजित किए जाते हैं। हिन्दू पौराणिक कथाओं में देव - असुर संग्राम के उपरांत अमृत कलश से चार बूंदे पृथ्वी के इन चार स्थानों पर पड़ी जिस कारण चार महाकुंभ नदी की पवित्रता के साथ प्रचलित हुए। इस प्रकार प्रकृति, धर्म और संस्कृति का हिस्सा बनी। 


जापान में सूर्य को स्त्री रूप यानी ‘अमतेरासू’ संपूर्ण ब्रह्माण्ड की देवी ‘ओमिकानी’ माना जाता है। जापान के होनशू द्वीप पर अमतेरासू-ओमिकानी के मंदिर भी पाए जाते हैं, जहां पर प्रत्येक 20 वर्ष के बाद एक मेला लगता है, जिसे ‘सिखिन सेंगू’ कहते हैं। सनातन परंपराओं में सूर्य के साथ नदियों का भी विशेष दर्जा है। यद्यपि शब्दों में गंगा स्त्रीलिंग और ब्रह्मपुत्र एक पुल्लिंग है अपितु यह सर्वविदित है कि संसार की सारी संस्कृतियों की नींव जलधाराओं के किनारे स्थापित हुई। गंगा को मां या देवी का दर्जा  दिए जाने का उद्देश्य इसकी पवित्रता को व्यापक रूप से स्थापित करने का माना जा सकता है। मनुष्य को धर्म के आधार पर ही नैतिकता में बांधा जा सकता है। छठ महापर्व मुख्यतः बिहार से संबंधित है किंतु उत्तराखंड के देवप्रयाग से बनी गंगा के कोलकाता तक के सफ़र में पड़ने वाले अधिकतर जनाधिक्य स्थानों पर भी उत्साहपूर्वक छठ पर्व मनाया जाता है। गंगा की पवित्रता में छठी मैया का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया जाता है। इसी पावन गंगा के जल से छठ के प्रसाद की शुद्धि की जाती है। प्रकृति के धर्म में स्थापित होने से धरती, आकाश, वायु, अग्नि एवं जल का अस्तित्व दिखाई देता है। कतिपय धार्मिक अनुष्ठान प्रकृति की विशेषता का द्योतक है।


वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो सूर्य एक तारा है, जिसमें हाइड्रोजन बम निर्माण की गतिविधि से ऊर्जा निकलती है जिसका प्रकाश, प्रकाशवर्षों की दूरी तय करके पृथ्वी पर जीवन का प्राथमिक स्रोत है।  पृथ्वी जैसे ग्रह सूर्य का चक्र अपनी विमाओं में पूर्ण कर रहे हैं। मनुष्य के आकलन से दूर समय की गणनाएं विद्यमान हैं। समय की गणनाओं को नक्षत्रों एवं समय घड़ियों के द्वारा दिखाए जाने के उद्देश्य से पृथ्वी को काल्पनिक रेखाओं में विभाजित किया गया और लगभग 180 डिग्री देशांतर को आधार मानते हुए सूर्य  की 24 घंटे की परिक्रमा को उगते सूर्य के देश जापान से प्रारंभ माना गया। कुल मिलाकर देशों के समय के विभिन्न विभाजनों में सूर्य की अहम भूमिका है एवं धार्मिक रूप से भी विशेष स्थान रखता है।


 पृथ्वी के निर्माणकाल में बना टेथिस सागर, ग्रीक देवी के नाम पर है, जो जल की देवी मानी जाती है। विश्व के किसी भी धर्म में प्रकृति का समावेश है। हिन्दू धर्म के अनुसार भगवान ब्रह्मा के पुत्र मरीचि एवं मरीचि के पुत्र महर्षि कश्यप हैं। महर्षि कश्यप पुत्र भगवान विवस्वान (सूर्य)सात अश्वों पर सवार होकर जगत की रक्षा कर रहे है। छठ महापर्व में अर्घ्य देते श्रद्धालुगण जीवन के पर्याय के रूप में उनकी ओर देखते हैं। सूर्य दिन एवं रात्रि में समस्त जीवों के क्रियाकलापों को नियंत्रित करने का साधन है। छठ त्यौहार में नदी के जल एवं आकाश के सूरज की महिमा है और दुनिया की समस्त जीवनशैलियों के लिए प्रकृति को अक्षुण्ण रखा जाना अपरिहार्य है। छठ जैसे त्यौहार मानव में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का श्रद्धाभाव उत्पन्न करते हैं । संसार की समस्त परंपराओं में सूर्य का महत्व युग -युगांतर तक सृजनकर्ता के रूप में प्रसिद्ध रहेगा।

Monday, 21 October 2024

धर्म की संहिताओं से लोकतंत्र की देवी तक का सफ़र

प्राचीन सभ्यताओं के विकास के क्रम में मुखिया या राजा के संबंध में भी क्रमबद्ध विकास जुड़ते रहे। इस लंबे विकासक्रम में लोकतंत्र की अवधारणा की अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूपरेखा के मध्य किसी जगह न्याय की व्यवस्था स्थापित हुई होगी। आप सोच सकते हैं कि आदि स्वरूप में न्याय की परिभाषा क्या रही होगी? कल्पना कीजिए गिनती को कैसे विकसित किया गया होगा। उसमें एक कहलाने वाला, जिसे आज हम आसानी से पढ़ सकते हैं । उसने अपने लिखे जाने के क्रम में मानव बुद्धि के कितने संघर्ष देखे होंगे। इसी प्रकार कई कानून अपने प्रारंभिक दौर में अपने होने के संघर्षकाल में रहे होंगे। कानूनों को स्थाई उत्कीर्ण करने हेतु उधेड़बुन ने इंसानी दिमागों को सक्षम बनाया होगा। उरू-कागिना संहिता, लिपिट - इश्टर की संहिता (लगभग 1870 ईसा पूर्व), एश-नुन्ना कानून (लगभग 1930 ईसा पूर्व), उर-नाम्मू की संहिता (लगभग 2050 ईसा पूर्व) जैसी कुछ लिखावटें आज तक बची हुई सबसे पुरानी ज्ञात विधि संहिताएं हैं । उर- नाम्मू संहिता मेसोपोटामिया से है और इसे सुमेरियन भाषा में धूप में सुखाई गई मिट्टी की पट्टिका पर लिखा गया जो वर्तमान में इस्तांबुल पुरातत्व संग्रहालय में संग्रहीत है। चूंकि इतिहास साक्ष्यों पर आधारित होता है इसलिए ये बातें अभिलिखित हैं। किंतु इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि तमाम ऐतिहासिक संदर्भों के बिना भी हम ये कह सकते हैं कि सामाजिक अवधारणाएं न्याय की धुरी पर घूमती हैं। ऐसी तमाम न्याय संहिताओं के पुनर्गठनों से एक स्पष्ट लिखित संहिता अस्तित्व में आई, जिसे हम्मूराबी की संहिता कहा जाता है । यह ज्ञात प्राप्त हुई संहिताओं के काफी बाद में अस्तित्व में आई किंतु स्पष्ट होने के कारण अग्रणी विधिनिर्माता के रूप में स्थापित है। ये संहिता काले पत्थर पर उकेरी गई है इसलिए इस संहिता को विश्व की सबसे प्राचीन लिखित संहिता (1754 ईसा पूर्व) का दर्जा प्राप्त है।  हम्मूराबी बेबीलोन के छठा राजा था, जिसका खानाबदोश परिवार सीरिया से आया था। पूर्व में स्थापित संहिताओं ने अपराध एवं दंड के आधार पर पर सामाजिक स्तरों के अनुसार न्याय को स्थापित किया। तत्समय समाज के विभाजन के आधार पर दण्ड निर्धारित थे। समाज में पुरुष एवं स्त्री के दंड भी उनके सामाजिक सोपान या कहा जाए हैसियत से तय होते थे। वर्तमान कानूनो की इमारती स्थापना भी ऐसे ही मौलिक संहिताओं की नींव से क्रमशः कई सुधारों के उपरांत हुई।



न्याय की संहिताओं के साथ अनेकानेक देशों के हिस्से प्राकृतिक पूजा के स्थान पर कहानियां गढ़ने रहे , जिससे धर्म के विभिन्न स्वरूप भी पनपते गए। एक ही प्रकार की कहानी अलग - अलग प्रकार से धर्मों का हिस्सा बनती चली गई। कहीं न कहीं धर्म, न्याय की अवधारणा के पीछे का मुख्य कारण कहा जा सकता है क्योंकि धर्म से ही मनुष्य को डराया जा सकता है। दुनिया की समस्त नैतिकताएं धर्म पर आश्रित होती हैं। आपको हैरानी होगी कि हम्मूराबी संहिता जब बेबिलोनिया में लागू की गई तो उसका स्वरूप प्रतिशोध पर आधारित था, जिसे ' लैक्स टेलियोनिस ' या ' आंख के बदले आंख ' सिद्धांत भी कहा जाता है। हम्मूराबी के बाद इन कानूनों में पुनर्जागरण देखने को मिला , जिसमें शारीरिक क्षति के बदले मौद्रिक मुआवजे के प्रावधान किए गए। यद्यपि ये भी वर्ग विभाजन के आधार पर तय था। बावजूद इसके कुछ अपराधों हेतु यथा हत्या, डकैती, व्यभिचार, बलात्कार के लिए मृत्युदंड निर्धारित थे। आज भी दुनिया के कई  धार्मिक देशों में कठोर कानून लागू हैं और वो देश इसकी पैरवी भी करते हैं। धर्म के आधार पर कानून की स्थापना की संकल्पना आई हो या फिर समाज को धार्मिक आधार पर दण्डित करने का विधान लाया गया हो। इन दोनों ही प्रकार के दृष्टिकोण में स्थानिक कहानियों में स्थापित देवी - देवताओं की महती भूमिकाएं रहीं है। प्रारंभिक मिथकों से ऐसे देवी - देवताओं को कानून के देवी या देवता के रूप में प्रचारित किया गया है। धर्म से नैतिकता के स्थापन के क्रम में हिंदू मिथकों में शनि न्याय के देवता हैं और रोमन मिथकों में देवी थीमिस एवं उनकी बेटी डाइक (जस्टिटिया) कानून एवं न्याय की देवियां। 


देशों के विभाजन से पूर्व भी साम्राज्य की सीमाएं निर्धारित की गई थी भले ही उसका आधार नृर्शंसात्मक रहा हो। किंतु विजित भूमि पर न्याय के विभिन्न स्वरूपों को लागू करने की दिशा में ही विजेता की व्यापक सत्ताधारी भूमिका स्थापित हुई। भय के माध्यम से परोपकारी सत्तात्मक आचरण को स्थापित कर दुनिया की शासन व्यवस्थाओं में कानूनों के प्रकार एवं उनके प्रतीक निश्चित होते चले गए। पृथ्वीराज चौहान तृतीय यदि तराइन के प्रथम युद्ध में ही मुहम्मद गौरी जैसे शत्रु को उदारता न दिखाते तो तराइन का द्वितीय युद्ध न होता। यद्यपि गौरी ने गुलाम वंश को भारत में स्थापित किया अपितु भारत भूमि पर विभिन्न राज्य सत्ता हस्तक्षेपों के दौर में भी न्याय की सर्वोच्च शक्ति खिलवत प्राप्त करने वाले शासक के हाथ में रही। ब्रिटिश सत्ता कंपनी के माध्यम से स्थापित हुई थी। ब्रिटिश शासन से भारत की आर्थिक रूप में अवनति प्रारंभ हुई। सांस्कृतिक अवनति का ह्रास इसलिए भी संभव नहीं हुआ क्योंकि भारत ने सभी बाहरी संस्कृतियों को सांस लेने के अवसर प्रदत्त किए। इन संक्रमणों से विभिन्न प्रकार से भारतीय परिवेश में सुधार आया। सती प्रथा रोक जैसे अधिनियम समाज में लाए गए जिससे लोगों में ऐसे अनुष्ठानों के प्रति चेतना स्थापित हुई । हालांकि ब्रिटिश कानून स्वीकार करना भी भारतीयों के लिए आसान नहीं था। हिन्दू धर्म में ' मलेच्छ ' की अवधारणा के प्रति भी जागृति उत्पन्न हुई। इसके बाद भी धर्मों के न्याय बने रहे। मिताक्षरा एवं दायभाग भी ब्रिटिशकाल में मान्य थे।


वारेन हेस्टिंग्स बंगाल के प्रथम गवर्नर बने । उन्हें ही न्याय व्यवस्था के अग्रिम पुरोधा का दर्जा प्राप्त है। इस बारे में भी विशेषतया उनके संबंध में अच्छा - बुरा कहे जाने के बहुत से तथ्य प्रामाणिक हैं। यूरोप पुनर्जागरण के एक लंबे व्यापारिक - राजनैतिक - आर्थिक लाभों का दोहन करने के बाद सन 1773 में विनियमन अधिनियम के द्वारा कोलकाता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। ब्रिटिश एवं भारतीय कानूनों के संक्रमण से वर्तमान कानूनों के स्वरूप में बदलाव होता चला गया। ये इसलिए भी संभव हो पाया क्योंकि संभ्रांत भारतीय विदेश में पढ़कर लौट रहे थे। विभिन्न स्थानों पर रहने वाली संस्कृतियों में किसी भी प्रकार के संक्रमण से नए प्रकार के सुधारों के क्रम की शुरुआत होती है। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम के उपरांत भारतीय भूभाग में स्वतंत्रता की लहर बहने लगी । सन 1947 के बाद की आज़ादी अपने समस्त विदेशी आक्रमणों से पूर्व की आज़ादी से भिन्न ही थी क्योंकि इसमें लोकतंत्र की संकल्पना थी। न्याय के लिए आईपीसी ब्रिटिशराज से यथावत लागू रही।भारतीय कानून के संबंध में न्याय के प्रतीक के रूप में एक स्त्री की प्रतिमा नज़र आती है। सत्रहवीं सदी में इस मूर्ति के रूप में धर्म का अधिक प्रभाव दिखता है। कालांतर में यही न्याय देवी के पर्याय के रूप में परिभाषित की जाने लगी।


न्याय की देवी की सबसे शुरुआती तस्वीर प्राचीन मिस्र की देवी मात में दिखाई देती है जो सत्य एवं संतुलन की प्रतीक मानी गई । पुरातन समाज में मृत्युपरांत आत्मा की संकल्पना अस्तित्व में थी जो कि विश्व स्तर पर अधिकतर समाजों का हिस्सा है। देवी मात को प्रायः एक पंख के साथ दर्शाया जाता है । प्राचीन मिस्र में मृतक के शरीर से दिल को निकाला जाता था जिसे तुला में पंख के साथ तोलकर मृत्युपरांत आत्मा की नियति तय की जाती थी। जो धर्म के साथ न्याय को स्थापित करता कर्मकांड है। पूर्व में ही कहा जा चुका है की धरती में विभिन्न स्थानों पर देवी देवताओं एवं कथाओं को अपनी-अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के अनुसार ढालकर प्रस्तुत किया गया है। 


ग्रीक मिथकों में भी प्रकृति आधारित देवी - देवता हैं, जो पिता - पुत्री के स्वरूप से विलग स्त्री - पुरुष के रूप में ही समझे गए। 

ग्रीक देवी थीमिस, टाइटन (गाया या पृथ्वी एवं यूरेनस या आकाश जैसे आदम देवताओं की संतान) है। टाइटन देवताओं का समूह है। देवी थीमिस कानून एवं व्यवस्था की प्रतीक है जो बाएं हाथ में तराजू एवं दाएं हाथ में तलवार के साथ दर्शायी गई है । देवी थीमिस की आंखों में प्रायः पट्टी बंधी दिखती है। देवी थीमिस की बेटी डाइक या एस्ट्रिया है जिसे जस्टिस की देवी कहा गया है, जिसके हाथ में तराजू को पकड़े दिखाया जाता है। देवियों के विभिन्न स्वरूपों में प्रतीकों का विशेष महत्व है किंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में ग्रीक देवी जस्टिटिया को कानून की देवी के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है, जो उपरोक्त समस्त प्रतीकों को धारित करती है। जिसमें परिभाषित किया गया है की आंखों पर लगी पट्टी निष्पक्षता की द्योतक है एवं तराजू साक्ष्य एवं तर्कों के आधार पर न्याय का समर्थन करता है । तलवार की भूमिका कानून को त्वरित न्याय एवं दृढ़ता पूर्वक लागू कर दंडित करने की है। निश्चित रूप से प्रारंभिक दौर में इन्हीं प्रतीकों का रूप उस समाज के अनुरूप ढला हुआ परिभाषित किया गया होगा। तार्किक आधार पर विभिन्न विश्लेषण किए जा सकते हैं।


जस्टिटिया एवं उसकी पर्याय देवियां बहुत सारे देशों में राजकीय भवनों एवं कानून आलयों के किसी स्थान पर विराजित हैं। भारत में उसकी आंखे खुल गई है, जो कि कई देशों की मूर्तियों की भी विशेषता है। वर्तमान में जस्टिटिया की बाएं हाथ की तलवार के स्थान पर भारतीय संविधान आ गया है, जो पहले भी कतिपय मूर्ति प्रतीकों का हिस्सा रहा है। चेक गणराज्य में भी देवी के बाएं हाथ में पुस्तक है। कुल कहा जा सकता है कि तमाम तर्कों के बावजूद देवी के दोनों हाथों में वैश्विक स्तर पर तमाम देशों द्वारा मान्य अवधारणाओं के अनुसार प्रतीक चिह्न पकड़ाए गए हैं। भारत में नवीन मूर्ति में न्याय देवी भारतीय वेशभूषा में वाग्देवी सदृश है जो खुली आंखों से देख रही है। बाएं हाथ की किताब में न्याय की संकल्पना दर्शित है। दाएं हाथ में तुलाओ में साम्य सामाजिक संतुलन का द्योतक है।ये किसी आलोचना का पर्याय न होकर विशेषता की प्रतिपूर्ति करता है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि हाथों में तराज़ू और संविधान का संयोजन मात्र भारत की न्याय की देवी में स्थापित दिखता है। प्रतीकात्मक स्वरूप से इतर न्याय की बात करें तो भारतीय न्यायालयों में करोड़ों मामले अपने निष्कर्ष के लिए लंबित हैं। भारत की जनसंख्या और न्यायिक स्तर पर पदों की रिक्तियां इसमें प्रमुख प्रत्यक्ष कारण हैं। विभिन्न अप्रत्यक्ष कारणों से भी न्याय की अवधारणा धूमिल होती है। मनुष्य के निश्चित जीवन में मृत्युपरांत न्याय, न्याय में सम्मिलित नहीं माना जा सकता। भारतीय न्याय व्यवस्था को लेकर आम धारणाओं में आलोचनात्मक पहलू विद्यमान रहता है। न्याय के प्रतीकात्मक स्वरूप में बदलाव के साथ ही न्याय व्यवस्था के विभिन्न सोपानों पर सुदृढ़ीकरण की आवश्यकता है ताकि भारतीय संविधान के शक्ति संतुलन के सिद्धांत द्वारा लोकतंत्र में न्याय की अवधारणा पर आम आदमी का विश्वास कायम हो सके। भारत के लोग किसी अन्याय के होने पर न्यायालय की शरण में जाते हैं । उनका दृढ़ विश्वास होता है कि उनके एक दिन उन्हें न्याय अवश्य मिलेगा। 


न्याय के प्रतीक बदलने से न्याय की भूमिका कमतर नहीं होती। अमेरिका का संविधान सबसे पुराना संविधान है। अमेरिका ने ऐतिहासिक संदर्भों से हम्मूराबी के चित्र को अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के कक्ष में 23 कानून निर्माताओं के साथ स्थापित किया गया है । समय के विभिन्न सोपानों में कानून की अवधारणा बदलती गई। धरती के देशों में बंटने के फलस्वरूप धर्म भी कई रूपों में दिखने लगा। कहीं शरीयत के कानून स्थापित हुए और कहीं अन्य धार्मिक व्यवस्थाएं। लोकतांत्रिक आधारों में संविधानों के अनुसार समाज में न्याय की स्थापना किया जाना आज भी लंबित है। लेकिन हर सकारात्मक बदलाव में एक कालखंड के संघर्ष निहित होते हैं।  न्यायालय न्याय के मंदिर हैं वहां न्याय के त्वरित एवं निष्पक्ष होने की उम्मीदें हमेशा जीवित होनी चाहिए। न्याय के प्रतीक वाली देवी अब भारतीय नज़र आती है । पूर्व मूर्ति में उसके बाएं हाथ में तलवार थी। वो बाएं हाथ की तलवार वैश्विक न्याय देवियों के दाएं हाथ की तलवारों की तुलना में कितनी सक्षम रही होगी? क्योंकि प्रायः इंसान अपने दाएं हाथ से बेहतर प्रहार करने में सक्षम होता है। हालांकि बाएं हाथ में तलवार के स्थान पर किताब की भूमिका एक विद्वता का गुण है अपितु आशा है वर्तमान न्याय की देवी भारत में स्त्रियों के प्रति बढ़ते अन्याय को खुली आंखों से देख त्वरित न्याय की स्थापना कर सकेगी और आमजनों के भीतर निष्पक्ष, निष्कलंक एवं श्वेत छवि की गरिमामयी छवि में अभिवृद्धि करेगी।


० सीमा बंगवाल

Tuesday, 29 March 2022

हाय रे शब्दबाण


जीवन के शुरुआती शिक्षापरक तत्वों में एक पृष्ठ था, जिसमें एक पागल व्यक्ति उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था। नीचे कुछ विद्वान पुरुष थे जो राजा विक्रमादित्य की कन्या राजकुमारी विद्योत्तमा से अपने विवाह हेतु शास्त्रार्थ करने गए थे और हारकर वापिस आए थे। विद्योत्तमा से बदला लेने हेतु उन्हें यह मूर्ख व्यक्ति उचित लगता है । बड़ी चालाकी से पुरुष विद्वान शास्त्रार्थ में उस पागल व्यक्ति को विजित करवाते हुए राजकुमारी से उसका विवाह करवा देते हैं। अंततोगत्वा विद्योत्तमा  के तिरस्कार से वो पागल व्यक्ति अपने सामाजिक जीवन में संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान बन जाता है। इस कहानी में भी विद्योत्तमा के शब्दबाणों ने विद्वानों को बदले की भावना से ग्रसित किया और विद्योत्तमा के ही शब्दबाणों से कालिदास का निर्माण हुआ। ऐसे ही तुलसीदास की कथा पढ़ी।  ऐसे ही कई लोग इन शब्दबाणों से घायल होकर प्रतिष्ठित हुए। 


शब्दबाण इसी ब्रह्माण्ड के भीतर चलते हैं। शब्दबाण की तीव्रता हृदयविदारक होती है। दिमाग़ का वो हिस्सा जो इंसान होने के कारण सूझ-बूझ का परिचायक है, वही हमें बार -बार संबल देकर उठाता है। शब्दबाण अनायास निकले या फिर जानबूझकर , सामने वाले के लिए बस महसूस करना आवश्यक होता है। चापलूसी या स्वार्थी प्रवृत्ति के लोग इसे अभ्यास में लेते हैं, इसलिए शब्दबाणों को अनुभूत करने में कमोबेश असक्षम ही होते हैं। वाणी में कठोरता होना और शब्दबाणों से भेदना दो भिन्न बातें हैं। कठोर वाणी , कटु वाणी सत्य हो सकती है और मृदु वाणी आपका झूठे अस्तित्व का गुणगान कर सकती है। हालाँकि मनुष्यता के आधारों में मृदु वाणी को औषधि का पर्याय ही माना गया है। मनुष्य के दिमागी तंतुओं की विहंगमता यह भली-भाँति समझ गयी है कि कहाँ-कहाँ मृदु बोलना चाहिए और कहाँ नहीं। बहुत सूक्ष्म तरीके के इस तत्व ने मृदुता को चापलूसी तक सीमित कर दिया है। आखिर 'डिप्लोमेसी' व 'स्वार्थ' जैसे शब्द भी तो अपना प्रभाव रखते हैं।


मैं बचपन से ध्रुव तारे को आसमान में ढूंढती हूँ। उसका अटल होना मुझे प्रभावित करता है। मेरी खोज इतनी कमज़ोर है कि आज तक उत्तर -दिशा में उसे दावे के साथ  स्थापित नहीं कर सकी। बचपन में मैंने ध्रुव की कहानी को सत्य माना था। मुझे लगता है कि राजा उत्तानपाद की गोद से यदि रानी सुरुचि ने ध्रुव को उतारा न होता तो ध्रुव का जन्म ही न होता। रानी सुरुचि के ईर्ष्या में डूबे शब्दबाणों ने उसका कायाकल्प कर दिया। धन्य है वो तारा, जिसका नामकरण ऐसे बच्चे के नाम हुआ। लेकिन दयनीय है वह बालक जो तिरस्कार देखकर भी विचलित नहीं हुआ।


यद्यपि मनुष्य के मूलरूपी स्वभाव में स्वार्थ की गहरी पैठ है। अधिकांश लोग स्वार्थपरक रहकर पूर्ण जीवन गुजार देते हैं ,जिस कारण वह शब्दबाणों की भेदन क्षमता से नहीं बिधते । शब्दबाणों से प्रभावित होने वाले मस्तिष्क भी इसी समाज का हिस्सा हैं।  शब्दबाण भावनात्मक रूप से कमज़ोर लोगों को प्रभावित कर सकते हैं। मनुष्य होने का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण संवेदना है । संवेदना से ही मनुष्य में प्रेम ,घृणा आदि भावों का निर्माण होता है। संवेदनहीनता भौतिक जगत की वस्तु है और भौतिक संपन्नता मनुष्यता के गुणों को लील लेती है।


संवेदना और शब्दबाण के भिज्ञ व्यक्ति संसारपरक भौतिकता से विलग रहते हैं। संवेदनशील व्यक्ति शब्दबाणों का प्रतिकार भिन्न स्वरूप में ले सकता है। इसकी सबसे सुंदर कल्पना सृजन है चाहे वह सामाजिक स्तर पर हो या स्वयं के स्तर पर। अनुभव की तिजौरी भरने के लिए जीवन में नैसर्गिक तत्वों के मृदु व कटु दोनों  गुणों की आवश्यकता है। 


यद्यपि मेरा जन्म 1945 में नहीं हुआ था किंतु जापान में परमाणु बम से दहकते शहरों के विकिरण से मेरी हड्डियों में आज भी गलन महसूस होती है। मैं यदि ज़िंदा भी महसूस करूँ तो इतनी तपिश लगती है कि मेरे सिर पर कीलों जैसी सरंचनाएँ उभरती हैं ..... मेरी खाल के छिलके मांस के साथ उतरते हैं या फिर मेरी लम्बाई स्थिर हो जाती है और जेनेटिक ढाँचे बदलते जाते हैं....खत्म हो जाती है जिंदगी की तमन्ना, ख्वाहिशें। फिर भी राख से अलग कुछ बचता है तो वो है 'मन'। मन जो वास्तविक रूप में दिमाग़ की मानवीय संवेदना को जीवित करता है, जिससे दुनिया में इंसानियत जिंदा रहती है वो मन ही तो है जो हमें ऐसे विध्वंस से बचाता है। हिरोशिमा, नागासाकी से दहकता जापान आज तकनीकी दुनिया में अग्रणी है। मन की संवेदनाएं है तो व्यक्ति किसी प्रभुत्वसंपन्न देश प्रमुख के शब्दबाणों को अपने देश के वैश्विक उत्थान में परिवर्तित कर सकता है एवं देशप्रेम के नए कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। जापान व कालिदास अलग संज्ञारूप होने के बावजूद एक परिभाषा के भिन्न स्वरूप हैं।

Sunday, 21 June 2020

इस्लाम व मुस्लिम समाज में स्त्री का अस्तित्व

'स्त्री' एक ऐसा शब्द है जिसकी अवस्थिति व उसके प्रति सोच हर समाज में कमोबेश एक सी ही रही। धरती के किसी भी मानवनिर्मित पंथ आज तक स्त्री समानता के कठोर मापदंड नहीं बना सका है और यदि कहीं अभिलिखित भी हों तो समाज का पुरुषार्थ उसका दमन कर देता है। 'स्त्री' की  स्थिति प्रत्येक समाज में एक 'जेंडर' की है, जिसे मात्र आरक्षण आधार पर मुख्यधारा में लाने का श्रीघोष करने मात्र से इतिश्री कर दी जाती है। 'स्त्री' शब्द बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समाज में भी कोई विशेष स्थान नहीं बना पाया। समाज के नीति नियंता आज की इक्कीसवीं सदी में भी 'चित्रगुप्त' नामक पुरुष की कलम लेकर 'स्त्री' भाग्य लिखने को आतुर हैं। 

प्राचीन समाज का काल लगभग एक ही चेतना के गलियारों से गुज़रा। पशुवत जीवन के उपरांत सभ्यता की नींव पड़ती गयी। इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ने भी क़ुरआन में स्त्री के अधिकारों की वकालत की और उस दौर में एक विधवा स्त्री से उनका विवाह भी हुआ। ये उस वक्त के तथ्य हैं जब भारत में मिताक्षरा व दायभाग के जुए को स्त्री के कांधे पर लादा गया था। सती प्रथा ढोल नगाड़ों से अभिमण्डित हो रही थी। जौहर में प्राण धधक रहे थे। चेतना का प्रवाह धीरे धीरे होता है। क़ुरआन के बारे में मुहम्मद साहब स्वयं हदीस लिख जाते तो शायद इस पर पूर्ण जानकारी संभव थी। कट्टरपंथियों द्वारा प्रत्येक धर्म में 'श्रेष्ठ' की उपाधि को प्राप्त किये जाने का प्रयास किया जाता है। किन्तु किसी भी धर्म में स्त्री को इंसान के रूप में दर्शाते हुए व्याख्यायित नहीं किया गया। 

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कबीलाई समाज के दौर में वर्चस्ववादी लड़ाईयां आम बातें हुआ करती थी जिसमें कई पुरुष मारे जाते और हज़ारों की संख्या में स्त्रियाँ व बच्चे यतीम हो जाते। भारत में तो ऐसी अवस्थाओं का निराकरण सती या जौहर प्रथाओं में निकाल लिया गया था। किंतु यदि तत्समय स्त्री की लावारिस अवस्था को देखा जाए तो एक पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्री से विवाह या निक़ाह उसके प्राण के बचने के लिहाज़ से प्रासंगिक था। हमारे समाज में स्त्री बड़ी संख्या में आज भी पुरुषों पर आश्रित है। उस दौर में तो और भी बुरा हाल रहा होगा। बहुविवाह के ज़रिए स्त्रियों को एक आसरा मिल जाता था, जो कि उस दौर में स्त्री जीवन की सबसे बड़ी ज़रूरत थी।

मुस्लिम समुदाय में विवाह को निक़ाह कहा जाता है । भारतीय संविधान में अनुछेद 44 समान नागरिक सिविल संहिता के पक्ष में खड़ा है किंतु आज तक भारत में अलग अलग धर्मो हेतु अलग-अलग सिविल कोड है। जिस कारण कहीं न कहीं तमाम सिविल कोड स्त्री को न्याय की परिधि में खड़ा नहीं करते। संविधान में हिन्दू स्त्री के अधिकार लिख देने के बाद भी समाज उसे कोई अधिकार नहीं देता क्योंकि ये तो हमारे समाज के जेनेटिक ढाँचे का आवश्यक तत्व है कि स्त्री पिता, पति, बेटे से अधिकार स्वरूप कुछ प्राप्त नहीं कर पाती। कुछ स्त्रियाँ यदि न्यायालय के द्वार पर अधिकार मांगने खड़ी हो तो भी समाज की आँखों की किरकिरी बन जाती हैं। जन्म के समय पर हो चुके इस लिंगात्मक भेदभाव ने स्त्री पक्ष को प्रभावित किया है। 

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भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 अंतर्गत "कानून के समक्ष समता एवं कानून के समान संरक्षण" को पारिभाषित किया गया है। चूँकि मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत (मुहम्मद साहब के कुरान के प्रावधान) 
पर आधारित है। मुस्लिम शादी, तलाक़,विरासत, बच्चों की कस्टडी आदि "कानून के समान संरक्षण के अनुसार मुस्लिम पर्सनल लॉ के अधीन आते हैं। इसकी स्थापना वर्ष 1937 में की गई। इस्लामिक लॉ की चार संस्थाएं हैं, जो कि कुरान की आयतों और इस्लामिक समाज के नियमों की अलग-अलग तरह से व्याख्या करते हैं। चार संस्थाएं ( इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम शाफ़ई, इमाम हंबल, इमाम मालिक) चार अलग-अलग सदियों में विकसित हुई। मुस्लिम देशों ने अपने मुताबिक इन संस्थाओं के कानूनों को अपनाया।

 मुस्लिम समुदाय में शिया व सुन्नी हेतु विवाह (निक़ाह)के कुछ प्रावधान भिन्न हैं। मुस्लिम विवाह(निक़ाह) मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) के तहत होता है । मुस्लिम विवाह में एक पक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है और दूसरा उसे स्वीकार करता है जिन्हें क्रमशः इजब व कबूल कहते हैं। यह  स्वीकृति लिखित और मौखिक दोनों प्रकार की हो सकती है । भारत में मुस्लिम धर्म के दो समुदाय प्रमुख हैं शिया एवं सुन्नी। ये तीन समूहों में विभाजित हैं। अशरफ (सैयद, शेख, पठान आदि), अजलब (मोमिन, मंसूर, इब्राहिम आदि) और अरजल (हलालखोर) ये सभी समूह अंतर्विवाही माने जाते है तथा इनके बीच बर्हिर्विवाह को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता।

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मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार मुस्लिम विवाह में चार भागीदारों का होना आवश्यक है :-
क) दूल्हा
ख) दुल्हन
ग) काजी
घ) गवाह (दो पुरुष या चार स्त्री गवाह) जो निक़ाह के साक्षी होते हैं। दूल्हा तथा दुल्हन को क़ाज़ी औपचारिक रूप से पूछता है कि वे इस निक़ाह के लिए स्वेच्छा से राजी है या नहीं। यदि वे इस निक़ाह के लिए स्वेच्छा से राजी होने की औपचारिक घोषणा करते हैं तो निक़ाहनामा पर समझौते की प्रक्रिया पूरी की जाती है। इस निक़ाहनामे में 'मेहर' की रकम शामिल होती है जिसे विवाह के समय या बाद में दूल्हा-दुल्हन को देता है। #मेहर एक प्रकार का स्त्री-धन है। भारत में हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों समुदायों में विवाह दुल्हन के घर पर ही करने की प्रथा है। एक स्थान के हिन्दुओं तथा मुसलमानों में कई प्रथाएँ समान रूप से मानी जाती हैं। जैसे केरल के मोपला मुसलमानों में 'कल्याणम' नामक हिन्दू कर्मकाण्ड पारंपरिक निक़ाह का आवश्यक अंग माना जाता है।(हालाँकि कल्याणम प्रथा सऊदी से दख्खिन आने वाले व्यापारी/ सौदागर द्वारा अधिक प्रचलन में लायी गयी। अपने दख्खिन प्रवास के दौरान यहाँ की स्थानिक स्त्री से इस निक़ाह के नाम पर व्यभिचार किया जाता था फिर वापिस अपने देश जाने पर उस स्त्री को तलाक दे दिया जाता था) चचेरे भाई बहनों का विवाह मुसलमानों में पसंदीदा विवाह माना जाता है। पुनर्विवाह मुस्लिम समुदाय में स्वीकार्य है। मुसलमानों में दो प्रकार के विवाह की अवधारणा है। 'सही' या नियमित विवाह तथा 'फसीद' या अनियमित विवाह। अनियमित विवाह निम्नलिखित स्थितियों में हो सकता है :

1.यदि प्रस्ताव या स्वीकृति के समय गवाह अनुपस्थित हो,
2.एक पुरुष का पांचवाँ विवाह
3.एक स्त्री का 'इद्दत' की अवधि में किया गया विवाह।
4.पति और पत्नी के धर्म में अंतर होने पर।

1. सुन्नी समुदाय में निक़ाह
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हनीफी विचारधारा के मुताबिक सुन्नी मुस्लिमों में दो मुसलमान गवाहों (महिलाएं भी मान्य) की मौजूदगी में होना जरुरी है । मुस्लिम विवाह की वैधता के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है । कोई पुरुष अथवा महिला 15 वर्ष की उम्र होने पर विवाह कर सकते हैं ।15 साल से कम उम्र का पुरुष या महिला निक़ाह नहीं कर सकते हैं।हालांकि उसका अभिभावक (पिता या दादा अथवा पिता का रिश्तेदार, ऐसा संभव नहीं होने पर मां या मां के पक्ष का रिश्तेदार) उसकी शादी करा सकता है । लेकिन बाल विवाह होने की वजह से यह कानूनी रुप से दंडनीय है। लड़की का निकाह यदि 15 साल से कम उम्र में उसके पिता अथवा दादा के अलावा अन्य किसी ने कराया हो तो वह उस निक़ाह से इनकार कर सकती है।
 
नोट-अवयस्क मुस्लिम लड़कियों के विवाह के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि उक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि रजस्वला होने पर 15 वर्ष की उम्र में मुस्लिम लड़की विवाह कर सकती है. इस तरह का विवाह निष्प्रभावी नहीं होगा. बहरहाल, उसके वयस्क होने अर्थात् 18 वर्ष की होने पर उसके पास इस विवाह को गैरकानूनी मानने का विकल्प भी है

सुन्नी पुरुष का दूसरे धर्म की महिला से विवाह पर पाबंदी है । लेकिन सु्न्नी पुरुष यहूदी अथवा ईसाई महिला से विवाह कर सकता है । मुसलमान महिला गैर मुसलमान से विवाह नहीं कर सकती । 

2. शिया समुदाय में निक़ाह
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 वर्जित नजदीकी रिश्तों में निकाह नहीं हो सकता है । मुस्लिम पुरुष अपनी मां या दादी, अपनी बेटी या पोती,अपनी बहन,अपनी भांजी,भतीजी या भाई अथवा पोती या नातिन से,अपनी बुआ या चाची या पिता की बुआ चाची से , मुंह बोली मां या बेटी से , अपनी पत्नी के पूर्वज या वंश से शादी नहीं कर सकता है । कुछ शर्तें पूरी नहीं होने पर मुस्लिम विवाह अनियमित माना जाता है । इसे बाद में नियमित अथवा समाप्त किया जा सकता है पर यह अपने आप रद्द नहीं होता है ।

शिया मुसलमान गैर- मुस्लिम महिला से अस्थाई ढंग से विवाह कर सकता है । जिसे मुताह कहते हैं । शिया महिला गैर मुसलमान पुरुष से किसी भी ढंग से विवाह नहीं कर सकती है ।

3. संवैधानिक प्रावधान-
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1. स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 के तहत मुसलमान व गैर मुसलमान में विवाह हो सकता है । एक मुसलमान की चार पत्नियां हो सकती हैं । यह कानूनन स्थिति है। साथ ही धार्मिक आदेश है कि पति को सभी पत्नियों के साथ एक सा व्यवहार करना होगा और यदि यह संभव नहीं है तो उसे एक से अधिक पत्नी नहीं रखनी चाहिए।मुसलमान महिला के एक से अधिक पति नहीं हो सकते हैं ।
2. चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेन एक्ट 1929 के अंतर्गत 21 वर्ष से कम आयु के लड़के तथा 18 वर्ष से कम आयु की लड़की का विवाह संपन्न कराना अपराध है , इस निषेध के भंग होने का विवाह की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं है।

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 उपरोक्त के अतिरिक्त यह ध्यान देने योग्य बात है कि कबीलाई समाज के दौर में पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्रियों के साथ किया गया विवाह बेसहारा स्त्री व बच्चे को अपनाने का प्रयोजन मात्र था जो कालांतर में पुरुष के लिए सेक्स कामना पूर्ति के साधन बनता गया। मानव चिंतन स्त्री विषय पर कभी नहीं सोच सका वरना आज तक किसी सबल स्त्री के लिए शरीयत में अधिक विवाह का प्रावधान क्यों नहीं किया जा सका? या फिर पुरुष के अधिक विवाह के प्रावधान क्यों नहीं हटाए जा सके? ये हमारे समाज का दृष्टिकोण है जिसने स्त्री पुरुष के मध्य एक खाई बनाई हुई है .... जो एक दूसरे से इक्कीसवीं सदी में भी वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ये परिवर्तन धीरे धीरे होते हैं धर्म के ठेकेदार अपनी सुविधा के अनुसार इसे व्याख्यित करते रहे हैं। ये व्याख्यारूपी कोपलें पुरुष तैयार करता है व स्त्री के दिमाग़ में रूप देता है। ये कोपलें फसलें बनती हैं फिर अपने आप बीज बनते हैं बिखरते हैं .....पैदावार इतनी हो जाती है कि पुरुष की लगाई एक कोंपल कोई नहीं देख पाता। हालाँकि प्रगतिशीलता की दिशा में देखा जाए तो क़ुरआन की इजाज़त के बावजूद तुर्की, अज़रबेजान व ट्यूनीशिया जैसे मुल्कों में एक से ज़्यादा शादियों की कानूनन मनाही है। ईरान, पाकिस्तान और मलेशिया जैसे देशों में भी कमोबेश ऐसे प्रावधान किए गए हैं। भारत समेत कुछ देशों में, स्त्रियों के पास अपने निकाहनामे में पुरुष के दूसरी शादी न करने का प्रावधान रखने का विकल्प रहता है हालांकि ये व्यवहार में नहीं दिखाई देता।

विवाह का उद्देश्य विभिन्न धर्मों या परंपराओं में संतान उत्पत्ति रहा है। विवाह का स्वरूप अवश्य पुरोहित/ मौलवी वर्ग ने परिभाषित किए । सात जन्मों का बंधन हो या कॉन्ट्रैक्ट विवाह। स्त्री की भूमिका वस्तु से अधिक नहीं दिखती ।स्त्री की वस्तुपरक भूमिका का ही परिणाम है 'हलाला प्रथा' । मैंने जब 'निक़ाह' फ़िल्म देखी तो मुझे हलाला के बारे में प्रथम जानकारी प्राप्त हुई। फ़िल्म में भी इसे स्वीकारोक्ति के स्वरूप में बताया गया किन्तु इन सब उच्चकोटि के दृष्टिकोण में स्त्री की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ती।


-----------------------क्रमशः

Tuesday, 9 June 2020

2. पौराणिक आधारों में स्त्री का अस्तित्व / सीमा बंगवाल


क्रमशः.....….
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विवाह के संस्थागत रूप में मात्र कर्तव्य ही समाहित होते गए व व्यक्ति द्वारा परिवार नामक संस्था को मानते हुए समाज में अपने अस्तित्व को स्थापित किया गया। फिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता समाज में निंदनीय ही रही इसीलिए विवाह के अस्तित्व को धारण करना आज भी एक आवश्यक मापदंड बना हुआ है। 'नैतिकता' नामक शब्द सिर्फ़ समाज के दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा का विषय है। विवाह बंधन की नैतिकता मात्र वैध संतानों तक सीमित रही है। यह विवाह एवं स्त्री के प्रति घरेलू दुर्व्यवहार का दुरूह परिणाम है कि 'लिव इन रिलेशन' को ज्यादा स्वीकार्य माना जा रहा है जहाँ कर्तव्य, बंधन जैसी बातें गौण हैं। मेरे विचार से वैवाहिक कर्मकाण्ड व लिव इन रिलेशन में सर्वप्रथम है 'मानसिक विवेचन'। हकीकत की ज़मीन पर हर व्यक्ति एक दूसरे के प्रति ईमानदार नहीं हो पाता....हालाँकि ये ईमानदारी किसी भी रिश्ते के प्रति हो सकती है किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 'विवाह' एक आडम्बर बन चला है, जो मात्र एक परिवार के अस्तित्व में होने का आभास कराने हेतु मानसिक सम्बल है व सामाजिक ढाँचे को पूर्ण करने कवायत और 'लिव इन' की स्वेच्छाचारिता मात्र बंधन मुक्त जीवन को जीने का उपक्रम। वर्तमान में दोनों में कोई साम्य नहीं व दोनों में कोई श्रेष्ठ या उत्तम भी नहीं। इसीलिए किसी भी परंपरा का माने जाने या न माने जाने के अपने अपने गुण व दोष हैं व ये भी नितातं रूप से व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर आधारित है ।

2. दक्षिण भारत में विवाह की प्रासंगिकता
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कई विद्वानों द्वारा दक्खिन भूखण्ड की भौगोलिक अवस्थिति को भारतीय मुख्य भूमि से अलग माना गया है और दक्खिन भूखण्ड के भारतीय मुख्य भूमि में जुड़ने के आधार भी विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए हैं। विश्लेषकों द्वारा भारतीय उत्तर भाग को आर्यों के आगमन व उनके द्वारा मौलिक जातियों के साथ की गई नृशंसता के कारण आर्यों को मौलिक जाति से अलग माना जाता है एवं दक्खिन भाग अनार्य होने का दावा कर भारतभूमि के मौलिक संतति के रूप में स्थापित जाते हैं । 

              यदि हम उपरोक्त वर्णन का संदर्भ न भी लें तो भी दक्षिण भारतीय लोगों को भाषा, श्यामल रंग व परंपराओं आदि के आधार पर विभेदीकृत किया जा सकता है। अब चूंकि यहाँ पर मुख्य विषय विवाह पद्यति का है तो सिर्फ़ विवाह के संबंध में ही कहा जाना श्रेयकर होगा।यदि स्त्री की स्थिति का संज्ञान लिया जाए तो उसकी स्थिति पितृसत्तात्मक नियमों के अधीन लगभग एक सी ही रही है। फिर भी दक्षिण भारतीय समाज में पुरातन काल से मातृसत्तात्मक अंशों का समावेश भी मिलता है।

            भारतीय परंपराओं में गोत्र का अत्यंत महत्व है । गोत्र का शाब्दिक अर्थ है, "गाय से जन्म" । मुख्यतः सात प्रकार के गोत्र माने गए हैं यथा भारद्वाज, विश्वामित्र, कश्यप, वशिष्ठ, अत्रि, जमदाग्नि व गौतम। गोत्र की उत्पत्ति काल्पनिक पूर्वज के आधार पर पशु पक्षी, भेद बकरी आधार को मानते हुए की गई है । गोत्र के बारे में सर्वप्रथम उल्लेख बौद्धायन ग्रंथ में मिलता है। यदि हिंदुओं की बात करें तो गोत्र द्विज वर्णों में पाया जाता है।
भारतीय कई जनजातियों में (राजगोण्ड व बोंडो) गोत्र का दो बराबर भागों में विभाजन पाया जाता है,जिसे अर्द्धांश कहते हैं। इसी प्रकार प्रवर व पिण्ड (एक ही व्यक्ति को सामान्य पूर्वज मानते हुए अर्पण ) को भी परिभाषित किया गया है।

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       गोत्र व्यवस्था संभवतः आर्यों के द्वारा ही प्रतिपादित की गई। वस्तुतः धीरे-धीरे इसका विस्तार भारत राज्य क्षेत्रों में प्रसारित हुआ होगा क्योंकि यदि परंपराओं के स्तर पर देखा जाए तो दक्षिण भारत में कतिपय स्थानों पर एक ही परिवार में विवाह के उद्देश्य से लड़की का आदान- प्रदान होता है । यह संबंधों में एक प्रकार की पुनः सुदृढ़ता का प्रयास मात्र है जो परिवारों के मध्य बंधुता स्थापित करती है व संपत्ति विभाजन को रोकती है। यदि गोत्र स्तर के गुण-दोष को छोड़ दिया जाए तो ऐसी परंपराओं में संबंधों को तरजीह दी जाती है तथा वर व वधू पक्ष बराबर के संबंधी माने जाते हैं। इन परंपराओं में ग्राम गोत्र विवाह की संकल्पना भी मान्य है।

 भारतीय परंपराओं में यदि हम उत्तर भारत के युगपुरुषों द्वारा लिखे गए ग्रंथो या महाकाव्यों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि प्राचीनकाल से गोत्र व्यवस्था के बावजूद रक्त संबंध विवाह प्रचलन में रहे। महाभारत में सुभद्रा व अर्जुन का प्रसंग हो या फिर अकबर शासन के पारिवारिक विवाह।

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सगोत्रीय विवाह के पक्ष में या फिर विपक्ष में भिन्न मत हो सकते हैं किंतु यदि वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर तार्किक रूप से मनन किया जाए तो हम पाएंगे कि खास नज़दीकी संबंधों में जेनेटिक मटेरियल के ढाँचे की एकरूपता की संभावना कुछ प्रतिशत तक हो सकती है, जिससे विभिन्न प्रकार के 'जीनोटाइपिक' व 'फीनोटाइपिक' विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। हालाँकि अन्य धर्मों में भी नज़दीकी रिश्तों के भाई बहनों में भी वैवाहिक संबंध होते रहे हैं ,जिससे वर्तमान में बाहरी रूप से शारीरिक सौष्ठव का अभाव भी रहता है। इस पर देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विस्तृत निर्णय दिए हैं। चूंकि ये सामाजिक आधार पर वैवाहिक संबंध की मान्यता का विषय है तो भी जेनेटिक समुच्चय की तार्किकता पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। समय के साथ आधुनिक परंपराओं में दूरस्थ विवाह होने लगे हैं।

ब्रिटिश भारत में सीमित रूप से समाज के धार्मिक व सांस्कृतिक ढाँचे में हस्तक्षेप किया गया, जिसके कारण सती प्रथा उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह अधिनियम एवं शारदा अधिनियम द्वारा कतिपय सुधारों के प्रयास किए गए। स्वतंत्रता के उपरांत सन 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम पारित करते हुए कई प्रकार के विविध विवाहों को समाप्त कर एकरूपेण व्यवस्था को स्थापित किया गया। सन 1953 में विवाह के मानकों में माता की और तीन पीढ़ियों तक व पिता की और छः पीढ़ियों तक आपस में वैवाहिक संबंधों को निषेध किया गया(परंपराओं आधार पर से विलग )। सन 1954 में विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह हेतु लड़के की आयु 21 व लड़की की आयु 18 निर्धारित की गई। इसके साथ ही अंतरजातीय व अन्तरसांस्कृतिक संबंधों को वरीयता दी गयी।

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यद्यपि दक्षिण भारत में भी पितृवंशीय वैवाहिक संबंधों की मान्यता है किन्तु इनका स्वरूप रक्त संबंध व विवाह संबंधों में अंतर नहीं करता अपितु ये संबंध समानता पर आधारित होते हैं व वर व वधू में विभेदीकरण का अभाव होता है। संबंधों में पुत्र या पुत्री के लड़के को 'पेरहन', पुत्र या पुत्री की लड़की को 'पेती', दादा व नाना को 'ताता', दादी व नानी को 'पाटी' कहा जाता है। इस प्रकार पति व पत्नी पक्ष की समानता भी दृष्टिगोचर होती है। काफी हद तक इसे स्त्री के प्रति एक सकारात्क दृष्टिकोण समझा जा सकता है।

यहाँ मुख्यतः विवाह के तीन नियम पाए जाते हैं--

1.  मामा-भांजी विवाह-  
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                             नायरों में मातृवंशीय परिवार मिलते हैं किंतु ये विवाह प्रचलित नहीं।

2. ममेरे-फुफेरे भाई -बहिन बीच विवाह-
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                                  दक्षिण के सगोत्रीय विवाह में मामा की लड़की या बुआ की लड़की के साथ विवाह की परंपरा है, किन्तु मौसी व चाचा की लड़की को बहिन माना जाता है। 

3. ग्राम गोत्र विवाह- 
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                      छोटे नाते समूह या ग्राम अंदर वैवाहिक संबंध

 कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश जैसे कतिपय राज्यों की परंपराओं में किसी व्यक्ति के माता-पिता के माता-पिता भाई बहिन ही होते हैं...और चूँकि यह परंपरा का भाग है तो इसे वैध करार दिया जाता है। इसके साथ ही यह मत स्थापित है कि यदि लड़की का विवाह एक बार कहीं हो जाता है तो उस लड़की को मायके पक्ष में सम्मिलित नहीं माना जाता (हालाँकि सम्पत्ति की हिस्सेदारी में भागीदार माना जाता है।)। इस प्रकार से भाई-बहिन की संतानों में सहमति होने पर विवाह की मान्यताएं हैं। ऐसे विवाहों का प्राचीनकाल से चलन रहा है ताकि परिवार स्तर पर किसी भी बाहरी व्यक्ति के साथ संपत्ति को साझा न करना पड़े ।

मलयाली आदमी अपनी बहिन की बेटी से विवाह नहीं कर सकता  क्योंकि यह हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 एवं विशेष विवाह अधिनियम ,1954 द्वारा अयोग्य घोषित की गई हैं जब तक कि ऐसा होने के लिए उस संबंधित समुदाय की परंपराओं में सम्मिलित न हो या संबंधित को ऐसा विवाह करने की अनुमति न दी गयी हो।

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अय्यर दक्षिण भारत के तमिल ब्राहमण हैं। इस विवाह को तमिल में कल्याणम् या तिरूमनम् कहते हैं। यदि दक्षिण में कर्मकाण्डीय पक्ष देखा जाए तो यह इस भाग में मंत्रोच्चारण व तत्सम्बन्धी नियम उत्तर भारत से कहीं सबल है व विवाह को दिन में पूर्ण कराया जाता है क्योंकि विवाह के दिवस पर दम्पति की लौकिकाग्नि प्रारम्भ कराने का विधान है और कोई भी अग्नि कार्य सूर्य की उपस्थिति में ही होने की मान्यता है। यह शादी दो से तीन दिवसों के लिए चलती है। परम्परागत रूप से दुल्हन के परिवार वाले विवाह हेतु योजना बनाते हैं। व्रुथम: , पालिका (नौ तरीके के अनाज से दुल्हे और दुल्हन के ऊपर छिड़काव कर पूजा), जानावसन (बारात)  , निश्चयाथर्थम समारोह (सगाई), काशी यात्रा, मलय मात्रल(दूल्हा व दुल्हन को कंधों पर उठाकर वरमाल रस्म), ओंजल( वैवाहिक जोड़े को झूले पर बिठाकर मंगल गीत), कनिका दानम (कन्यादान),कंकणा धारनम( दूल्हा व दुल्हन द्वारा एक धार्मिक व्रत से खुद को बाध्य करने के लिये हल्दी लगा एक धागा बांधना), मांगल्यधारनम(पूर्व निर्धारित शुभ घंटे में मंगल सूत्र बाँधना), सप्तपदि(सात फेरे) आदि रस्मों के द्वारा वैवाहिक संस्कार को मान्यता दी जाती है।



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◆ सीमा बंगवाल