Sunday 21 June 2020

इस्लाम व मुस्लिम समाज में स्त्री का अस्तित्व

'स्त्री' एक ऐसा शब्द है जिसकी अवस्थिति व उसके प्रति सोच हर समाज में कमोबेश एक सी ही रही। धरती के किसी भी मानवनिर्मित पंथ आज तक स्त्री समानता के कठोर मापदंड नहीं बना सका है और यदि कहीं अभिलिखित भी हों तो समाज का पुरुषार्थ उसका दमन कर देता है। 'स्त्री' की  स्थिति प्रत्येक समाज में एक 'जेंडर' की है, जिसे मात्र आरक्षण आधार पर मुख्यधारा में लाने का श्रीघोष करने मात्र से इतिश्री कर दी जाती है। 'स्त्री' शब्द बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समाज में भी कोई विशेष स्थान नहीं बना पाया। समाज के नीति नियंता आज की इक्कीसवीं सदी में भी 'चित्रगुप्त' नामक पुरुष की कलम लेकर 'स्त्री' भाग्य लिखने को आतुर हैं। 

प्राचीन समाज का काल लगभग एक ही चेतना के गलियारों से गुज़रा। पशुवत जीवन के उपरांत सभ्यता की नींव पड़ती गयी। इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ने भी क़ुरआन में स्त्री के अधिकारों की वकालत की और उस दौर में एक विधवा स्त्री से उनका विवाह भी हुआ। ये उस वक्त के तथ्य हैं जब भारत में मिताक्षरा व दायभाग के जुए को स्त्री के कांधे पर लादा गया था। सती प्रथा ढोल नगाड़ों से अभिमण्डित हो रही थी। जौहर में प्राण धधक रहे थे। चेतना का प्रवाह धीरे धीरे होता है। क़ुरआन के बारे में मुहम्मद साहब स्वयं हदीस लिख जाते तो शायद इस पर पूर्ण जानकारी संभव थी। कट्टरपंथियों द्वारा प्रत्येक धर्म में 'श्रेष्ठ' की उपाधि को प्राप्त किये जाने का प्रयास किया जाता है। किन्तु किसी भी धर्म में स्त्री को इंसान के रूप में दर्शाते हुए व्याख्यायित नहीं किया गया। 

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कबीलाई समाज के दौर में वर्चस्ववादी लड़ाईयां आम बातें हुआ करती थी जिसमें कई पुरुष मारे जाते और हज़ारों की संख्या में स्त्रियाँ व बच्चे यतीम हो जाते। भारत में तो ऐसी अवस्थाओं का निराकरण सती या जौहर प्रथाओं में निकाल लिया गया था। किंतु यदि तत्समय स्त्री की लावारिस अवस्था को देखा जाए तो एक पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्री से विवाह या निक़ाह उसके प्राण के बचने के लिहाज़ से प्रासंगिक था। हमारे समाज में स्त्री बड़ी संख्या में आज भी पुरुषों पर आश्रित है। उस दौर में तो और भी बुरा हाल रहा होगा। बहुविवाह के ज़रिए स्त्रियों को एक आसरा मिल जाता था, जो कि उस दौर में स्त्री जीवन की सबसे बड़ी ज़रूरत थी।

मुस्लिम समुदाय में विवाह को निक़ाह कहा जाता है । भारतीय संविधान में अनुछेद 44 समान नागरिक सिविल संहिता के पक्ष में खड़ा है किंतु आज तक भारत में अलग अलग धर्मो हेतु अलग-अलग सिविल कोड है। जिस कारण कहीं न कहीं तमाम सिविल कोड स्त्री को न्याय की परिधि में खड़ा नहीं करते। संविधान में हिन्दू स्त्री के अधिकार लिख देने के बाद भी समाज उसे कोई अधिकार नहीं देता क्योंकि ये तो हमारे समाज के जेनेटिक ढाँचे का आवश्यक तत्व है कि स्त्री पिता, पति, बेटे से अधिकार स्वरूप कुछ प्राप्त नहीं कर पाती। कुछ स्त्रियाँ यदि न्यायालय के द्वार पर अधिकार मांगने खड़ी हो तो भी समाज की आँखों की किरकिरी बन जाती हैं। जन्म के समय पर हो चुके इस लिंगात्मक भेदभाव ने स्त्री पक्ष को प्रभावित किया है। 

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भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 अंतर्गत "कानून के समक्ष समता एवं कानून के समान संरक्षण" को पारिभाषित किया गया है। चूँकि मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत (मुहम्मद साहब के कुरान के प्रावधान) 
पर आधारित है। मुस्लिम शादी, तलाक़,विरासत, बच्चों की कस्टडी आदि "कानून के समान संरक्षण के अनुसार मुस्लिम पर्सनल लॉ के अधीन आते हैं। इसकी स्थापना वर्ष 1937 में की गई। इस्लामिक लॉ की चार संस्थाएं हैं, जो कि कुरान की आयतों और इस्लामिक समाज के नियमों की अलग-अलग तरह से व्याख्या करते हैं। चार संस्थाएं ( इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम शाफ़ई, इमाम हंबल, इमाम मालिक) चार अलग-अलग सदियों में विकसित हुई। मुस्लिम देशों ने अपने मुताबिक इन संस्थाओं के कानूनों को अपनाया।

 मुस्लिम समुदाय में शिया व सुन्नी हेतु विवाह (निक़ाह)के कुछ प्रावधान भिन्न हैं। मुस्लिम विवाह(निक़ाह) मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) के तहत होता है । मुस्लिम विवाह में एक पक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है और दूसरा उसे स्वीकार करता है जिन्हें क्रमशः इजब व कबूल कहते हैं। यह  स्वीकृति लिखित और मौखिक दोनों प्रकार की हो सकती है । भारत में मुस्लिम धर्म के दो समुदाय प्रमुख हैं शिया एवं सुन्नी। ये तीन समूहों में विभाजित हैं। अशरफ (सैयद, शेख, पठान आदि), अजलब (मोमिन, मंसूर, इब्राहिम आदि) और अरजल (हलालखोर) ये सभी समूह अंतर्विवाही माने जाते है तथा इनके बीच बर्हिर्विवाह को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता।

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मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार मुस्लिम विवाह में चार भागीदारों का होना आवश्यक है :-
क) दूल्हा
ख) दुल्हन
ग) काजी
घ) गवाह (दो पुरुष या चार स्त्री गवाह) जो निक़ाह के साक्षी होते हैं। दूल्हा तथा दुल्हन को क़ाज़ी औपचारिक रूप से पूछता है कि वे इस निक़ाह के लिए स्वेच्छा से राजी है या नहीं। यदि वे इस निक़ाह के लिए स्वेच्छा से राजी होने की औपचारिक घोषणा करते हैं तो निक़ाहनामा पर समझौते की प्रक्रिया पूरी की जाती है। इस निक़ाहनामे में 'मेहर' की रकम शामिल होती है जिसे विवाह के समय या बाद में दूल्हा-दुल्हन को देता है। #मेहर एक प्रकार का स्त्री-धन है। भारत में हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों समुदायों में विवाह दुल्हन के घर पर ही करने की प्रथा है। एक स्थान के हिन्दुओं तथा मुसलमानों में कई प्रथाएँ समान रूप से मानी जाती हैं। जैसे केरल के मोपला मुसलमानों में 'कल्याणम' नामक हिन्दू कर्मकाण्ड पारंपरिक निक़ाह का आवश्यक अंग माना जाता है।(हालाँकि कल्याणम प्रथा सऊदी से दख्खिन आने वाले व्यापारी/ सौदागर द्वारा अधिक प्रचलन में लायी गयी। अपने दख्खिन प्रवास के दौरान यहाँ की स्थानिक स्त्री से इस निक़ाह के नाम पर व्यभिचार किया जाता था फिर वापिस अपने देश जाने पर उस स्त्री को तलाक दे दिया जाता था) चचेरे भाई बहनों का विवाह मुसलमानों में पसंदीदा विवाह माना जाता है। पुनर्विवाह मुस्लिम समुदाय में स्वीकार्य है। मुसलमानों में दो प्रकार के विवाह की अवधारणा है। 'सही' या नियमित विवाह तथा 'फसीद' या अनियमित विवाह। अनियमित विवाह निम्नलिखित स्थितियों में हो सकता है :

1.यदि प्रस्ताव या स्वीकृति के समय गवाह अनुपस्थित हो,
2.एक पुरुष का पांचवाँ विवाह
3.एक स्त्री का 'इद्दत' की अवधि में किया गया विवाह।
4.पति और पत्नी के धर्म में अंतर होने पर।

1. सुन्नी समुदाय में निक़ाह
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हनीफी विचारधारा के मुताबिक सुन्नी मुस्लिमों में दो मुसलमान गवाहों (महिलाएं भी मान्य) की मौजूदगी में होना जरुरी है । मुस्लिम विवाह की वैधता के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है । कोई पुरुष अथवा महिला 15 वर्ष की उम्र होने पर विवाह कर सकते हैं ।15 साल से कम उम्र का पुरुष या महिला निक़ाह नहीं कर सकते हैं।हालांकि उसका अभिभावक (पिता या दादा अथवा पिता का रिश्तेदार, ऐसा संभव नहीं होने पर मां या मां के पक्ष का रिश्तेदार) उसकी शादी करा सकता है । लेकिन बाल विवाह होने की वजह से यह कानूनी रुप से दंडनीय है। लड़की का निकाह यदि 15 साल से कम उम्र में उसके पिता अथवा दादा के अलावा अन्य किसी ने कराया हो तो वह उस निक़ाह से इनकार कर सकती है।
 
नोट-अवयस्क मुस्लिम लड़कियों के विवाह के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि उक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि रजस्वला होने पर 15 वर्ष की उम्र में मुस्लिम लड़की विवाह कर सकती है. इस तरह का विवाह निष्प्रभावी नहीं होगा. बहरहाल, उसके वयस्क होने अर्थात् 18 वर्ष की होने पर उसके पास इस विवाह को गैरकानूनी मानने का विकल्प भी है

सुन्नी पुरुष का दूसरे धर्म की महिला से विवाह पर पाबंदी है । लेकिन सु्न्नी पुरुष यहूदी अथवा ईसाई महिला से विवाह कर सकता है । मुसलमान महिला गैर मुसलमान से विवाह नहीं कर सकती । 

2. शिया समुदाय में निक़ाह
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 वर्जित नजदीकी रिश्तों में निकाह नहीं हो सकता है । मुस्लिम पुरुष अपनी मां या दादी, अपनी बेटी या पोती,अपनी बहन,अपनी भांजी,भतीजी या भाई अथवा पोती या नातिन से,अपनी बुआ या चाची या पिता की बुआ चाची से , मुंह बोली मां या बेटी से , अपनी पत्नी के पूर्वज या वंश से शादी नहीं कर सकता है । कुछ शर्तें पूरी नहीं होने पर मुस्लिम विवाह अनियमित माना जाता है । इसे बाद में नियमित अथवा समाप्त किया जा सकता है पर यह अपने आप रद्द नहीं होता है ।

शिया मुसलमान गैर- मुस्लिम महिला से अस्थाई ढंग से विवाह कर सकता है । जिसे मुताह कहते हैं । शिया महिला गैर मुसलमान पुरुष से किसी भी ढंग से विवाह नहीं कर सकती है ।

3. संवैधानिक प्रावधान-
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1. स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 के तहत मुसलमान व गैर मुसलमान में विवाह हो सकता है । एक मुसलमान की चार पत्नियां हो सकती हैं । यह कानूनन स्थिति है। साथ ही धार्मिक आदेश है कि पति को सभी पत्नियों के साथ एक सा व्यवहार करना होगा और यदि यह संभव नहीं है तो उसे एक से अधिक पत्नी नहीं रखनी चाहिए।मुसलमान महिला के एक से अधिक पति नहीं हो सकते हैं ।
2. चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेन एक्ट 1929 के अंतर्गत 21 वर्ष से कम आयु के लड़के तथा 18 वर्ष से कम आयु की लड़की का विवाह संपन्न कराना अपराध है , इस निषेध के भंग होने का विवाह की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं है।

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 उपरोक्त के अतिरिक्त यह ध्यान देने योग्य बात है कि कबीलाई समाज के दौर में पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्रियों के साथ किया गया विवाह बेसहारा स्त्री व बच्चे को अपनाने का प्रयोजन मात्र था जो कालांतर में पुरुष के लिए सेक्स कामना पूर्ति के साधन बनता गया। मानव चिंतन स्त्री विषय पर कभी नहीं सोच सका वरना आज तक किसी सबल स्त्री के लिए शरीयत में अधिक विवाह का प्रावधान क्यों नहीं किया जा सका? या फिर पुरुष के अधिक विवाह के प्रावधान क्यों नहीं हटाए जा सके? ये हमारे समाज का दृष्टिकोण है जिसने स्त्री पुरुष के मध्य एक खाई बनाई हुई है .... जो एक दूसरे से इक्कीसवीं सदी में भी वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ये परिवर्तन धीरे धीरे होते हैं धर्म के ठेकेदार अपनी सुविधा के अनुसार इसे व्याख्यित करते रहे हैं। ये व्याख्यारूपी कोपलें पुरुष तैयार करता है व स्त्री के दिमाग़ में रूप देता है। ये कोपलें फसलें बनती हैं फिर अपने आप बीज बनते हैं बिखरते हैं .....पैदावार इतनी हो जाती है कि पुरुष की लगाई एक कोंपल कोई नहीं देख पाता। हालाँकि प्रगतिशीलता की दिशा में देखा जाए तो क़ुरआन की इजाज़त के बावजूद तुर्की, अज़रबेजान व ट्यूनीशिया जैसे मुल्कों में एक से ज़्यादा शादियों की कानूनन मनाही है। ईरान, पाकिस्तान और मलेशिया जैसे देशों में भी कमोबेश ऐसे प्रावधान किए गए हैं। भारत समेत कुछ देशों में, स्त्रियों के पास अपने निकाहनामे में पुरुष के दूसरी शादी न करने का प्रावधान रखने का विकल्प रहता है हालांकि ये व्यवहार में नहीं दिखाई देता।

विवाह का उद्देश्य विभिन्न धर्मों या परंपराओं में संतान उत्पत्ति रहा है। विवाह का स्वरूप अवश्य पुरोहित/ मौलवी वर्ग ने परिभाषित किए । सात जन्मों का बंधन हो या कॉन्ट्रैक्ट विवाह। स्त्री की भूमिका वस्तु से अधिक नहीं दिखती ।स्त्री की वस्तुपरक भूमिका का ही परिणाम है 'हलाला प्रथा' । मैंने जब 'निक़ाह' फ़िल्म देखी तो मुझे हलाला के बारे में प्रथम जानकारी प्राप्त हुई। फ़िल्म में भी इसे स्वीकारोक्ति के स्वरूप में बताया गया किन्तु इन सब उच्चकोटि के दृष्टिकोण में स्त्री की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ती।


-----------------------क्रमशः

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