Friday 22 May 2020

साहब, साहबियत और साहिबा- भाग 1



'साहब' होना बड़े गर्व की बात होती है। 'साहब' बनने का पहला पायदान होता है अफ़सर होना लेकिन आप ज़ुबाँ से बोल कर देखिये तो 'साहब' में ज़्यादा वज़न लगता है।  'साहब' से मिलता जुलता एक अल्फ़ाज़ और है।'साहेब' जिसमें प्रेम, आदर की प्रबलता है। हालांकि 'साहेब' बहुत से लोग हो सकते हैं लेकिन 'साहेब' और 'साहब' में एक अंतर होता है । 'साहेब' का मान कमाकर मिलता है और 'साहब' का छीनकर। 'साहब' बनना भी सबके बस में नहीं।'साहब' बनने में विशिष्ट गुण अर्जित करने होते है, ये 'साहब' किसी भी प्रकार से ज़माने में कहीं भी 'साहब' बने लेकिन इनकी बात का समर्थन करने वाले कुछेक लोग इनके हृदयप्रिय होते हैं। जहाँ हृदय की प्रसन्नता का प्रश्न होता है वहाँ 'साहब' समझौता क्यों करे भला?
             

साहब की पहचान भी आसान सी होती है। जब आप साहब के समक्ष हों तो साहब फोन पर अपनी रौबदार प्रशंसा कर रहे होते है और शायद उनसे भी बड़े साहब से बात करते हुए आपको ये ज़रूर संकेत दे देते हैं कि वो बड़े ही विशिष्ट श्रेणी से ताल्लुक रखते है। वो आपको नज़रअंदाज़ करते हुए लम्बी बाते करेंगे और आपको बिन कहे जता देंगे कि आप 'सर्वहारा' के पर्याय हैं। साहब का हाड़ मास का शरीर काले कोट में छिपा हुआ सा रहता है। ओह्ह...अब इसमें ये जो काला रंग है उसकी भी अपनी खास विशेषता है। किसी भी रंग को अवशोषित करने की शक्ति उसे दूसरों से अलग पहचान देती है और ये विशिष्ट गुण भी साहब ही रखते हैं।खैर साहब होना खास है, ये तो अकाट्य सत्य है लेकिन साहब के परिवार का हिस्सा होना भी सौभाग्य की बात है क्योंकि साहब के पूर्ण संबंधियों को भी साहब की जेड श्रेणी के लाभ प्राप्त होते हैं या कहें कि साहब का पूर्ण परिवार भी साहब का ही द्वितीय रूप है, तो अतिशयोक्ति न होगी।

बड़ी बड़ी परीक्षाओं से आए ईमानदार अफसरों को भी साहब कुछ नहीं समझते। साधारण जनता तो बहुत दूर की बात है। वैसे एक तरह से साहब होने का ये गुण है अवगुण नहीं क्योंकि साहब की प्रतिष्ठा स्थापन के मानकों पर इनका वर्चस्व होता है,जिसमें ये खरे उतरते हैं। ये मानक आला बड़े दर्ज़े के अफसर भी पूर्ण नहीं कर पाते। यद्यपि कई बार आपको आला अफसरों में भी साहेब मिल सकते हैं और निम्न अफसरों में साहब।

अब साहब की कोई सीमित सीमाएं तो नहीं हैं कि साहब विशिष्ट जगहों पर ही मिलेंगे।ये साहब गलियों के नुक्कड़ों पर भारतीय अर्थव्यवस्था की कुरीतियों पर मंथन करते हुए, बाज़ारों की दुकानों पर चिंताग्रस्त होते..सार्वजनिक स्थानों पर अर्चन करते हुए ....कहीं भी नज़र आ सकते हैं बशर्ते आपकी नज़र कमज़ोर न हो।


गुलज़ार के अल्फाजों की मधुवर्षिणी ने उन्हें भी 'साहब' बना दिया लेकिन जिसका हृदय मानवीय संवेदनाओं की स्याह कलम से कागज़ पर दृष्टि चित्र बनाता रहे वो साहब नहीं हो सकता । ये लोगों की असीम मुहब्बत की पराकाष्ठा है कि वो साहेब से साहब बना दिये गए। ये साहब शब्द के विशिष्ट गुणों से रहित होने पर भी लोगों की धड़कनों के साहब हैं। इस प्रकार के उदाहरणों में साहब व साहेब का घालमेल सा है या कहें कि असल साहब की विवेचना ऐसे साहब से करना तर्कसंगत नहीं।साहिबा शब्द कभी लोकलुभावन नहीं बन सका जिसके बहुत से आयाम हो सकते हैं याने साहिबा की तुलना साहब से नहीं हो सकती और ये ज़िम्मा मेरे ही सर पर क्यों हो?

मुझे वाक़ई यदि अल्लाह या ईश्वर की दृष्टि प्राप्त होती , तो यकीनन इस धरती के तैरते भूखण्ड की पूर्ण जानकारी दिल व दिमाग़ में होती लेकिन इंसानी उम्र भी एक सज़ायाफ्ता सी है जो सबको अलग अलग मुकर्रर है। सभी इंसानी दिमाग़ , कुछ लोगों के परीक्षणों, अनुभवों, विचारों के आधार को मानकर बनाई गई किताबों से पढ़कर आधार बनाते रहे हैं और इन बने बनाये आधारों से जीवन में लोग बुद्धिजीवी भी कहलाते है। वरना दो से तीन पीढ़ीयों तक हुए संसूचन तक सीमित ये इंसान इतना तार्किक नहीं हो सकता। अंग्रेज़ भारत में आये और भारतीय संस्कृति में अपनी जड़ें छोड़ चले गए। हमने उनके शासन को तिरोहित कर दिया लेकिन ये जो दिल है उसने ये ग़ुलामी नहीं छोड़ी और ज़माना साहब लोगों से भरता गया। गाँधी जी ने देश के लिए जो भी काम किया हम उस दौर में उनकी बराबरी नहीं कर सकते। गाँधी जी के साथ देशव्यापी जनसमूह होने पर भी गाँधी जी , गाँधी साहब नहीं बन सके। 'सर' जैसे मानको को वो पहले ही छोड़ आये थे लेकिन इतना लोकप्रिय किरदार साहब क्यों नहीं बन सका?

कहीं ये साहब शब्द अंग्रेज़ी हुकूमत की रहनुमाई में तो नहीं पल रहा था। फिर गुलज़ार साहब और गाँधी जी की लोकप्रियता के मानक अलग अलग मानो में क्यों आकलित किये जायें। अंग्रेज़ी हुकूमत के बाद काफी जगह साहब शेष रहे। उस सूखी हुई साहब लता से कई हरित कलियाँ प्रस्फुटित हुई और साहबियत कि जमात कई गुना बढ़ गयी। इस स्वतंत्र हुए लोककल्याणकारी देश मे पहले नाम से साहब बन गए .... फिर नकलियत के लिबास को बदलते बदलते अपने आपको एक बार फिर से पराधीन कर दिया। एक दिमाग़ की सोंच आदमी को कभी कभी लिंकन, मंडेला, गाँधी बना देती है और कभी इंसानियत भी छीन लेती है। आप कौन साहब या साहेब हैं , वो नज़र साहबियत नहीं देख सकती।




6 comments:

  1. साहब ... अच्छा विश्लेषण व्यंग्यात्मक अन्दाज़ ...
    बहुत ख़ूब ...

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  2. करा रहा और बहुत तीखा इस शैली में आपको पढ़ने का आनंद तो और भी अधिक आ गया साहब की तबीयत पर इतना धारदार लिखने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया शुभकामनाएं आपको

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  3. Replies
    1. शुक्रिया साहेब का..

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