Friday 22 May 2020

4. हैदराबाद.....राजा और निज़ाम


                        हैदराबाद...निज़ामियत याद आ जाती है न? कभी निज़ाम का शहर हुआ करता था।आज किलेशाही के अवशेष अपने अस्तित्व को बयां कर रहे हैं। अब चूँकि हैदराबाद की निज़ामत मशहूर है तो गोलकोण्डा जैसे भव्य किले को देखना मजबूरी बन ही जाती है। दक्खिन के छोटे पठार तत्कालीन शासकों के सांस्कृतिक व कलात्मक रुझान के चलते खूबसूरत विश्व विरासतों में तब्दील हो गए। चाहे मुंबई की एलीफेंटा हों या औरंगाबाद की एलोरा.....चंदेल, पांडेय, चोल, पह्लव शासकों ने इन अद्भुत कृतियों के द्वारा अपने वंशजों के नामों को जीवंत किया है। चलिए वापिस निज़ाम के शहर लौटते हैं..गोलकोण्डा। गोल मतलब राउंड और कोंडा याने किला। ऐसा भी कहा जाता है कि किसी गड़रिये ने काकतीय राजा को इस पहाड़ी पर किला बनाने की सलाह दी थी इसीलिये ये 'गड़रिये की पहाड़ी' भी कहलाता है। सबसे साधारण अर्थ 'ऐसा किला जो गोल हो'।

शुरुवाती दौर में काकतीय राजाओं ने इस पहाड़ पर विशालकाय किले को निर्मित कर शासन किया। सन् १६६३ में इसी वंश के राजा कृष्णदेवराय ने, एक संधि के अनुसार 'गोलकोण्डा' किले को बहमनी वंश के राजा मोहम्मद शाह को दे दिया। बहमनी वंश की अलोकप्रियता को देखते हुए इन्ही के सूबेदारों में से एक कुतुबशाह ने अपनी सल्तनत कुतुबशाही को स्थापित कर दिया। काफी लंबे समय तक गोलकोण्डा का तख्त शासकों की मौजूदगी का साक्षी रहा। कितने ही घोड़ों की चापों में सैनिकों की सुरक्षा का घेरबन्द था और किले के दूसरी और जाता रास्ता , जिसमें पालकी द्वारा शासक जाते थे। पालकी ले जाने वाले लोगों में भी दो लंबे व दो बौने लोग होते थे ताकि पालकी का साम्य स्थिर रहे। कुतुबशाही राजाओं ने महल के कई हिस्सों के निर्माण करवाया और कहते हैं कुतुबशाही की रानी के लिए ही हैदराबाद शहर बसाया गया। कितनी खुशनसीब होती थी वो रानियां जिनके नाम से पूरा शहर ही बसा दिया जाता रहा होगा। आज तो कल्पना करना भी गुनाह हो जाएगा।ऊपर से संपत्ति पर आयकर विभाग की नज़र...खैर रानी को ही खुशनसीब कहा जा सकता है। खुशनसीबी व वैभव ज्यादा समय तक स्थायी नहीं रह करते। जब दक्खिन ऐश्वर्य में विलीन था तब औरंगज़ेब ने हैदराबाद और गोलकोण्डा पर आक्रमण कर दिया। शहर तहस नहस हो गया। गोलकोण्डा खून के आँसू रोने लगा।किले की दीवारें नेस्तनाबूत हो गईं और ऐसे में बादशाह ने मेलजोल को बढ़ावा देने हेतु औरंगजेब के बेटे मोहम्मद सुल्तान से अपनी बेटी की शादी की शर्त पर संधि कर ली किन्तु उसके बाद भी कुतुबशाही पर औरंगजेब ने दोबारा आक्रमण किया। अपनो के दगा के कारण कुतुबशाही का अंत हो गया। कुतुबशाही के अंत के बाद निज़ाम के तख्त हथिया लिया और नई व्यवस्थाओं ने जन्म लिया।

                                    किले के अंदर जाने पर कुछ महत्वपूर्ण विशाल संरचनाएं थी जिनकी छत पर हीरे की नक्काशी जैसी कारीगरी उकेरी गई हैं। यदि इस संरचना के मध्य में ताली बजाए या कोई भी आवाज़, जो महल में दूर तलक गूंज जाती थी। अंदर के कुछ कक्षों में तो दासियों की कानाफूसी सीधे राजकक्ष में सुनाई देने की व्यवस्था थी। कितनी अजीब बात है न...कि वो प्राकृतिक विज्ञान जो इतना रक्षात्मक था। आज नहीं दिखता। इस किले को बाहरी 7 घेरों से सुरक्षित किया गया होगा, जिसके अवशेष शहर के बीच बीच आकर अपने वजूद को पुख़्ता करते हैं।

किले के अंदर जाने पर दायीं और एक बंद बावड़ी जैसी संरचना थी, जिसमें मरणोपरांत बादशाह को सुवासित द्रव्यों से स्नान कराकर महल के दूसरे रास्ते से बाहर निकाला जाता था।किले के ऊपरी टीलों से 8 गुम्बदनुमा संरचनाएं अपने अंदर राजा के अवशेषों को शांति से सहेजे व्यक्त करती दिखती थी। गोलकोण्डा के ऊपरी भाग पर दुर्गा व काली का मंदिर स्थापित था। जब मैं ऊपर की और बढ़ी तो किले के नीचे से ऊपरी भाग पर जाने वाली सीढ़ियों पर स्थानिक महिलाएं टीका लगाती हुई मंदिर की और आगे बढ़ती जा रही थीं। अद्भुत संगम दिखा। हिन्दू व मुस्लिम समाज एक किले के अंदर पोषित होता रहा और एकता जीवंत रही , जिसे मैं ध्यान से देख रही थी । दूसरी और से नीचे उतरते वक़्त मेरी नज़र रानियों के सौंदर्य कक्ष पर पड़ी,जहाँ कभी आईने लगे होंगे, रानियों के अगिनत कक्षों के अवशेष अपने साथ हुए अत्याचार को दर्शा रहे थे।एक बड़ा प्रांगण जिसमें तारामती जैसी कलाकार नृत्य करती थी। राजा व रानी के बैठने के स्थान के पास एक शीशे को देखकर कोहिनूर मुस्कुराता था और इस तरह सारा रंगमहल रोशन होता रहा होगा। अलग से पड़े दो भण्डार कक्षों में  तत्कालीन हथियारों को रखा गया था। सब कुछ कितना व्यवस्थित था। पानी की आपूर्ति की व्यवस्था पूर्ण किले में जगह जगह पर अपनी सफल कार्यप्रणाली को सुना रही थी। वार्ता वहाँ पर मौन होती है जहाँ एक और आवाज़ का अभाव रहता है..फिर यहाँ तो मौन भी बहुत कुछ कहता था।

         कितनी पीढ़ियाँ बीत जाती हैं किन्तु संरचनाएं उन्हें याद रखती हैं और हम लोग संरचनाओं को देखते हैं लेकिन जो लोग इन संरचनाओं को जीते हैं उनका हृदय इन खंडहरों के विलाप को ज़रूर सुन पाता होगा,जो बरसों से किसी अपने के मिलने की आस में आज भी खड़े हैं।

हम कितनी यात्राएं करते हैं,जीवन भी एक यात्रा है। साथियों का कारवां हो तो यात्राएं सफल हो जाती हैं। इतिहास जब सामने खड़ा होकर अपनी पहचान बताता है ,तो सभी को उससे सीखना चाहिए। पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर इतिहास का बदला अब लेने की कामना करना कहाँ तक सही है? आज के कृत्य भी कल का इतिहास बनेंगे। भारत देश की विभिन्नता से ही देश की मौलिकता है और  भारत अलग अलग परिधानों से सजा अच्छा लगता है । बस भारत को अलंकृत करने की ज़िम्मेदारी हम सबकी है।

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