Monday 25 May 2020

साहब,साहबियत और साहिबा....भाग -3



साहिबा.... साहिबा के ऊपर बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ हैं , ढेर से संस्कारों की रक्षक बनने की मजबूरी है। इनमें से बहुत कुछ जन्मजात प्रदत्त सामाजिक देन हैं। अब साहिबा आखिरकार है तो एक 'स्त्री' ही। 'स्त्री' जिसका जन्मजात आधार पर 'अधिकार' हनन कर उसे 'देवी' बना दिया जाता है और वो पुरातन काल से अपनी सामाजिक पहचान को ढोते हुए 'देवी' का रूप स्वेच्छा से स्वीकार भी कर लेती है । फिर भारत मे धर्म की प्रबलता मानव धर्म से श्रेष्ठ श्रेणी में रही है।



      ये समाज स्त्री को 'देवी' घोषित कर देता है किंतु 'पुरुष' को देवता बनाने में अक्षम रहा है। याने 'पुरुष' सिर्फ एक पुरुष है...और 'स्त्री' 'देवी' की दोहरी जिम्मेदारियों से अभिप्रेरित सर्वगुणसम्पन्न प्रतिमा........यद्यपि जो भी सामाजिक नियम बनाये गए वो स्त्री को वस्तुपरक रूप में रखकर बनाये गए। पीढ़ी दर पीढ़ी ये सोंच स्त्री के 'जीन' में समाहित हो चली और आज हर 'पुरुष' कहता है कि "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है।" स्त्री को 'संपत्ति' बनाने की सोंच व उसका प्रभावी कर्म मौलिक स्तर पर पुरुषजन्य रहा और सदियों ऐसा करके अब ये ज़िम्मेदारी भी स्त्री को सौंप दी गयी। स्त्री में लंबे समय से ये जेनेटिक बदलाव इस प्रकार से हुआ जैसे सदियों सर्कस के जानवरों को अभ्यस्त बनाते बनाते एक दिन वो स्वतः ही वो जानवर अनुकूल व्यवहार करने लगते हैं। लेमार्क ने भी 'विकासवाद के सिद्धांत' में जीवन के कायिक लक्षणों या अर्जित गुणों का अगली पीढ़ी में संचरित होना बताया है । ये वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हो या न हो ,किन्तु 'स्त्री' के लिए इसे पूर्णरूपेण सत्य कहा जा सकता है।

स्त्री जन्म उपरांत भी कई विचारधाराएं हैं। लड़की बदसूरत जन्मी तो भी समस्या। 'दिव्यांग' जन्मे तो भी समस्या...खूबसूरत जन्मे तो भी उत्साह कहीं सोया सा रहता है। यही स्त्रियाँ 'साहिबा' बनती है...कोई घर के अंदर ..और कोई कार्यक्षेत्रों में। अब 'साहिबा' चाहे कितने ही उच्च पद को क्यों न विराजे या अपने अस्तित्व को पारिवारिक जिम्मेदारियों और संस्कारों की सीमा में कैद करके बिन अधिकारों की 'मालकिन' बने, लेकिन उसका प्रखर होना माफ़ी योग्य नहीं होता..और यदि ये वर्ण व्यवस्था आधारित निरीह स्त्री हो तब तो समस्या और भी विकट हो जाती है। उसके कई सपने तो जन्मजात रूप से मार दिए जाते है। कमोबेश स्त्री होना लगभग एक सा ही है।

अब खूबसूरत 'साहिबा' हो तब तो 'साहिबा' अपने कार्यो से उल्लिखित नहीं की जाती । समाज का सभ्रांत व चरित्र कसौटी पर स्थापित रूप से खरा उतरने वाला 'पुरूष'  'साहिबा' को खूबसूरती के आधार पर कलंकित करने का हर संभव प्रयास भी करता है और यह प्रयास उसकी अकर्मण्यता का परिचायक अधिक है। हालाँकि 'स्त्री' के प्रति उसकी ऐसी सोंच दोषी नहीं है। 'पुरुष' जब अतीत साहित्य पढ़ता है तो 'स्त्री' के प्रति एक दैहिक व अधिकार योग्य वस्तु की सोंच रखता है और जब एक 'स्त्री' अपने सदियों के व्यवहार को देखती है तो इतने निम्न व्यवहार से उसका हृदय रुदित होता है लेकिन ये सब बातें 'साहिबा' अधिक बेहतर समझती है। भुक्तभोगी विश्लेषण ज़्यादा विश्वासपरक होता है।

अब भारतीय समाज मे लड़की के जन्म पर अक्सर उत्साह का माहौल नहीं आता। न कोई जनमासा होता न कोई जलसा...और भी बहुत .....लेकिन झूठे मुँह हम बड़ी मुश्किल से लोगों को कहते हैं कि "आजकल लड़के से बढ़िया लड़की है।" पता नहीं ......शायद सच भी हो लेकिन प्रत्यक्ष दर्शिता से ऐसा बेहद ही कम या न के बराबर ही होता है जहाँ मात्र एक या दो लड़कियों को ही बेहद अच्छी शिक्षा देकर काबिल बनाया गया हो। हमारे समाज में लिंगात्मक आधार पर ही भाग्य विश्लेषण घोषित कर दिया जाता है। कर्तव्य,संस्कार व ज़िम्मेदारियाँ लड़की के हिस्से आते हैं और लड़के को मिलते हैं जन्मजात अधिकार। अब लड़की , जो एक स्त्री है, वो सामाजिक रूप से काबिल भी बन जाये तो उन्हें बनना तो आखिरकार 'साहिबा' ही है। 'साहब' के विभिन्न स्वरूपों की अधिकारी 'साहिबा' हो भी तो भी 'अधिकार' को मानवरूपी गुणों के आधार पर बिन किसी पूर्वाग्रह के ये 'पुरुषप्रधान मानसिकता' की परंपराएं स्वीकार्यता की सकारात्मक सोंच नहीं रखती फिर इन परंपराओं की बेड़ियाँ किसी औज़ार से नहीं कट सकती।

हमारे सामने सदियों से बहुत से मुद्दे रहे। कभी धरती के क्षेत्र को हड़पना उद्देश्य रहा। कभी अर्थव्यवस्था के बदलाव पर परिवर्तन अनिवार्य से हुआ किन्तु स्त्री के प्रति कभी वस्तुजन्यता से ऊपर सोंच विकसित करने में हम असहाय रहे। कतिपय सेमेटिक परंपराओं में विधवा विवाह व स्त्री अधिकारों को 'आसमानी किताब' में लेखबद्ध भी किया। सनातनी परंपराएं, सती व जौहर प्रथा में स्त्री का शील स्थापित करने में गौरव अनुभूति करते रहे। आज के समाज के अनुरूप विश्लेषण करने में हम कतई कमतर नहीं हैं। किसी भी समाज मे जो लेखबद्ध हुआ , वो उस समय निश्चित तौर पर क्रांतिकारी विचार से प्रेरित कहा जा सकता है...उसके रूप अलग हो सकते हैं जैसे 'मुहम्मद' के समय का विधवा विवाह हो या 'चंद्रगुप्त' का गणिका सम्मान। सदियों बाद भी स्त्री 'विमर्श' के जाल में फंसी हुई मछली सी है और हज़ार कानून लेखबद्ध होने पर भी अधिकारों से वंचित व सामाजिक तिरस्कार की भोगिनी। लेखबद्ध आधार पर स्त्री उन्नति को विश्व पटल पर उत्कीर्ण नहीं किया जा सकता जब तक कि सामाजिक रूप से स्त्री के अस्तित्व को स्वीकार न कर लिया जाए।

एक ग़ुलामी भारत ने लंबे अरसे तलक झेली लेकिन कभी कभी मानसिक ग़ुलामी हमारे ज़हन से दूर नहीं हो पाती। वैसे ही 'साहिबा' के प्रति एक सामाजिक सोंच उसे असल तौर पर 'साहब' नहीं बना पाती।'साहिबा' में 'साहबियत के लाख गुण हों लेकिन 'साहिबा' एक स्त्री के प्रति एक पुरातनी सोंच से हार जाती है ओर जहाँ 'साहिबा' न हारे वहाँ हरा दी जाती है और 'किरण' साहब रूपी ज़िम्मेदारियों को अंततः छोड़ जाती है लेकिन इस स्वाभिमान से 'साहिबा' के प्रति सोंच कहाँ खत्म होती है?

'साहिबा' अपने जीवन की किसी बात से विचलित नहीं होती। यद्यपि वो साहिबा है, अपितु उसका मन , उसका दिमाग़ एक लंबे काल चरण से गुज़र कर एक मजबूत से खोल में समा चुका है। 'साहिबा' साहबियत में विश्व समुदाय से टक्कर लेकर पोखरण के विस्फोट कर सकती है। 'साहिबा' खूबसूरती में 'ब्रह्माण्ड सुंदरी' बन सकती है। अंतरिक्ष में रहने का रिकॉर्ड बना सकती है.... यही नहीं विश्व जगत की 'सेरेना' , 'सानिया' व 'संधू'बन सकती हैं, लेकिन 'साहब' की सहाबियत सिर्फ 'गुलज़ार' में समाहित नहीं होती...साहबियत साँसे लेती है हमारी सोंच में...तर्कहीन को तर्कशील बताते हुए।

● सीमा बंगवाल

3 comments:

  1. साहिबा हर हाल में नियमों में बँधी है । जो बुलंदी पर पहुँच गई वे भी शिरोधार्य हुईं तो अपने आत्मविश्वास से , नहीं तो कठपुतली तो है ही।

    ReplyDelete
  2. कई बार नियम बंधन प्रतीत होते हैं मगर उनकी सत्यता के बाद वही जीवन का सार समझ आते हैं.

    ReplyDelete

  3. एक ग़ुलामी भारत ने लंबे अरसे तलक झेली लेकिन कभी कभी मानसिक ग़ुलामी हमारे ज़हन से दूर नहीं हो पाती। वैसे ही 'साहिबा' के प्रति एक सामाजिक सोंच उसे असल तौर पर 'साहब' नहीं बना पाती।'साहिबा' में 'साहबियत के लाख गुण हों लेकिन 'साहिबा' एक स्त्री के प्रति एक पुरातनी सोंच से हार जाती है ओर जहाँ 'साहिबा' न हारे वहाँ हरा दी जाती है और 'किरण' साहब रूपी ज़िम्मेदारियों को अंततः छोड़ जाती है लेकिन इस स्वाभिमान से 'साहिबा' के प्रति सोंच कहाँ खत्म होती है?
    बहुत खूब कहा है ,औरत को अपना रुतवा अपने दम पर ही कायम रखना पड़ता है ,उसका कमजोर पड़ना उसके लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है ,

    ReplyDelete