Thursday 28 May 2020

विवाह के पौराणिक आधारों में स्त्री का अस्तित्व (भाग-1)


कहा जाता है कि विवाह सात जन्मों का बंधन है। दरअसल ये बात हमारे संस्कारों से हममें समाहित होती गयी व इसे सफल बनाए जाने हेतु सारे धार्मिक कर्मकांडो को इसके पक्ष में स्थापित कर दिया गया। किसी भी स्थापित संस्था की प्रासंगिकता तब होती है जब आत्मिक स्तर पर किसी भी विचार को हमारा मन आत्मसात कर लेता है। यदि विवाह की संकल्पना में आदर्शवाद की भावना होती तो भारत देश में व्याभिचार की घटनाएं बहुतायत से न होती। माँ ,बहिन,बेटी के नाम पर गालियाँ देने वाले देश मे स्त्री संवेदनशीलता का नितांत अभाव है। ये स्थिति आज भी विकट है । हमारे परिवार की स्त्रियॉं भी अपने अस्तिव को जाने बिना इस दुनिया से देह त्याग जाती हैं। हम लोग धर्म की बात करते है, नियमो की बात करते है ...स्त्री के बारे मे सोचते तक नहीं है। स्त्री के प्रति वस्तुभाव रखते हुए धर्म नियमों के साँचे में ढालकर मन मुताबिक व्यवहार करवाने के उद्देश्य से विवाह संस्था को निर्मित किया गया। हालाँकि इसके अपने गुण दोष हैं। दक्षिण व उत्तर भारतीय खण्डों में पुरातन काल से विवाह संस्था की भिन्न परंपराएं स्थापित हुई हैं।

1. उत्तर भारत में विवाह के पौराणिक आधार-
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कहा जाता है कि आर्य यूरोपीय अथवा मध्य एशिया(अधिक मान्य) से भारत के सप्त सैंधव प्रदेश में बसे । वह इंडो-यूरोपियन भाषाएं बोलते थे। 'आर्य' भाषायी संदर्भ में प्रासंगिक है । यह किसी नस्ल के लिए (हिटलर या हिंदू दक्षिणपंथी) प्रयुक्त नहीं है। ख़ैर आर्य आगमन के उपरांत की व्यवस्थाओं में भारतीय स्तर पर महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। यहाँ पर चूँकि एक विषय मात्र पर लिखा जाना अपेक्षित है, तो उसी केंद्र पर हम हज़ारों साल पहले के पन्नों का सफ़र करेंगे।

ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर कहा जाता है कि मानव चेतना ने दिमाग़ के विकास व आकार को सुदृढ़ किया एवं परिणामस्वरूप किए गए श्रम ने उसके हाथों को दक्ष किया। समूह, कबीले, सगोत्र ...आदि व्यवस्थाएं सामने आई। स्त्री विचार पर यदि देखें तो मिश्र सभ्यता में प्रथम देवी को सिंहनी के आकार में अंकित कर दर्शाया गया। हालाँकि विश्व स्तर की किन्हीं सभ्यताओं में स्त्री का बंधन नैसर्गिक रूप से संतानोत्पत्ति का ही रहा। पुरुष के वर्चस्ववादी समाज में वह एक वस्तु की भाँति प्रयुक्त की जाती गई। अब चूँकि मानवीय बौद्धिक क्षमताओं के उन्नयन का स्तर तत्कालीन परिस्थितियों में पुरुष व स्त्री के मानवीय मूल्यों की तार्किकता को परिभाषित करने में सक्षम नहीं था, इसीलिए स्त्री के प्रति ऐसा भाव रखा जाना भी प्राकृतिक ही कहा जा सकता है। स्त्री के प्राकृतिक कर्तव्यों में शिशु पालन पोषण होने से भी उसका घरेलू अस्तित्व प्रगाढ़ होता गया। हालांकि इन प्राकृतिक व्यवस्थाओं को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता अपितु ये ही परंपराए ही कालांतर मे स्त्री के शारीरिक ; मानसिक व दैहिक अवनयन की आधारशिला रखने में सहायक सिद्ध हुई। 

शुरुवात में पुरुष या मातृ प्रधान जैसी कोई विचारधारा नहीं थी । यह एक प्राकृतिक रूप से गुजरने वाला जीवन था। जिसमें पुरुष व स्त्री भी अन्य जीव जंतुओं की तरह व्यवहार करते। ये न अच्छा था, न ही बुरा न नैतिक न अनैतिक। स्त्री को वस्तु की तरह देखने के कारण उसके साथ स्वतंत्र रूप से पशु-पक्षियों के समान यौनाचार करने की प्रवृत्ति रही और धीरे धीरे ये परंपरा का हिस्सा भी बनता गया। रामायण व महाभारत जैसी कथाओं में खीर खाने व देव आह्वान किए जाने से गर्भ धारण किया जाना भी उस समय स्त्री के प्रति ऐसी प्रवृत्ति को दर्शाता है। ऋग्वैदिक काल व उसके बाद में रचित ग्रंथों में गौतम ऋषि के वंशज ऋषि आरुणि (उद्दालक)पुत्र श्वेतकेतु का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि एक बार घर पर आए ऋषि की सेवा सुश्रुषा हेतु ऋषि आरुणि ने श्वेतकेतु की माता को आदेशित किया। अपनी माता को परपुरुष के साथ जाते देख श्वेतकेतु ने अपने पिता से इसका कारण जानना चाहा। ऋषि आरुणि द्वारा बताया गया कि "यह हमारी परंपराओं का हिस्सा है। स्त्री एक गाय की भाँति है और वह स्वतंत्र है।" उग्र व व्यथित श्वेतकेतु द्वारा पति व पत्नी हेतु पत्नीव्रत व पतिव्रत नियम बनाए गए एवं विवाह को धार्मिक आधार पर संस्थागत रूप से स्थापित किया गया।


एक अन्य मान्यता के आधार पर उत्तरी पांचाल की राजधानी कंपिला में पांचालों की परिषद हुई, जिसमें कई राज्यों के राजा, आर्यों व ब्राह्मणों के प्रतिनिधियों के साथ श्रोत्रिय भारद्वाज, शौनक, गौतम, जैमिनी, कणाद, वशिष्ठ, पाणिनि, औलूक जैसे कई धर्माचार्य भी सम्मिलित हुए। कई विद्वजन समझे जाने वाले लोगों के बीच विचार विमर्श के बाद निम्न मर्यादाएं/ नियम प्रतिपादित किए गए।

अथर्व आंगिरस ने प्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित करते हुए युवती के वरण का अधिकार समाप्त करते हुए गृह कृत्यों व एक पति के साथ वृद्धावस्था तक कर्तव्य स्थापित कर दिए व स्त्री का दायभाग समाप्त करते हुए पुत्र के अधिकार सुनिश्चित करके उसे पुरुष के अधीन करने का विचार रखा। ऐतरेय ने पुरुष के द्वारा कई स्त्रियां रखे जाने का समर्थन किया व स्त्री को एक पति तक सीमित करने की बात पर बल दिया गया। सगोत्रीय विवाह निषेध करने का प्रस्ताव भी परिषद में रखा गया।

सोलह महाजनपद काल में स्त्री विहीन परिषद में पुरुषों के स्वार्थ ने उक्त प्रस्ताव को पारित करते हुए आर्य, अनार्य, अनुलोम, संकर सभी जातियों पर लागू करा दिया गया। देश के कई जनपदों यथा आंध्र, सौराष्ट्र, चोल, चेर, पाण्डेय, अंग, बंग, कलिंग सभी पर यह नियम लागू कर दिए गए। अनार्य को शुद्ध वर्ण से त्याज्य मान असवर्ण विवाह से उत्पन्न संतानों को दायभाग से वंचित कर दिया गया। इसके साथ ही अनुलोम व प्रतिलोम की पृथक जाति स्थापित कर दी गयी।

तत्पश्चात गौतम ऋषि द्वारा छः प्रकार के विवाह परिषद में घोषित किए गए। 
1. ब्रह्म विवाह(ब्राह्मण का ब्राह्मण के लिए), 
2.दैव विवाह(क्षत्रिय का ब्राह्मण के लिए), 
3.आर्ष विवाह(जनपद के लिए), 
4.गांधर्व विवाह(वयस्क वरण आधारित), 
5.क्षात्र विवाह(क्षत्रिय का क्षत्रिय के लिए),
6.मानुष विवाह(क्षत्रिय,ब्राह्मण का शूद्र के लिए)।

आपस्तम्ब ने उपरोक्त मर्यादा स्वीकार करते हुए क्षात्र विवाह को राक्षस और मानुष विवाह को आसुर घोषित किया। ऐसे विवाह भारत के दक्षिण भागों में प्रचलित हुए। वशिष्ठ द्वारा शुल्क दे ली गयी असुर कन्याओं व मोल ली गयी नीच जाति की कन्याओं (दासी) को विवाहित का दर्जा न देकर उनसे हुई संतानों के अधिकार
समाप्त कर दिए गए।

आपस्तम्ब द्वारा दैत्यों के आर्यकुल व देवकुल में विवाह संबंध होने के उदाहरण दिए गए। उन्होंने पुलोमा दैत्य की पुत्री शची इंद्र विवाह, वृषपर्वा की कन्या से ययाति के विवाह जैसे उदाहरण सबके सम्मुख प्रस्तुत किए और राक्षस एवं असुर विवाहों को आर्य परिपाटी अंतर्गत स्वीकृत करने की मांग की। तत्पश्चात गौतम द्वारा विवाह के छः प्रकारों को बढ़ाते हुए 

7.प्रजापत्य (कन्या के पिता द्वारा आदेशित)और 
8.पिशाच (बलात हरण)

प्रकार (कुल आठ) का समावेश किया गया। प्रश्नगत दोनों मूलतः विवाह नहीं थे किंतु कांबोजों को आर्य संघ में लाने हेतु उनकी परंपराओं को विवाह में शामिल कर लिया गया। आर्यों को अपने विरुद्ध षड्यंत्र न झेलने पड़े इस कारण भी यह अपरिहार्य था।

गौतम व आपस्तम्ब द्वारा माता व पिता की छः पीढ़ियों तक सगोत्र विवाह अमान्य घोषित किए गए। गौतम ने विवाह हेतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र हेतु क्रमशः चार,तीन,दो,एक स्त्री की स्वीकृति दी व पुरुष के केवल अपने वर्ण की स्त्री से उत्पन्न संतति को ही पिता के शुद्ध वर्ण से होने के संपत्ति अधिकार दिए जाने की सहमति दर्शायी। अन्य संताने कुल सेवा हेतु प्रतिबद्ध की गई। इस प्रकार वैश्य व शूद्र में निम्न वर्ण रक्त अधिकायत से होने के कारण ये वर्ग हीन माने जाने के कथ्य स्थापित किए गए।

उक्त 'शुद्ध वर्ण' के अलावा निम्नलिखित जातीय संताने अस्तित्व में आई-
1. पारशव- ब्राह्मण पुरुष व शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतान

2. अम्बट- ब्राह्मण पुरुष व वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान

3. उग्र- क्षत्रिय पुरुष व शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतान

4. वैश्य- इनके द्वारा शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतानों को वैश्य ही माना गया।

हालाँकि आपस्तम्ब द्वारा वर्णसंकर जातियों के अनेक प्रकार होने से आर्यों के विरुद्ध विद्रोह किए जाने की शंका की गई किन्तु गौतम द्वारा रक्त की शुद्धता को वरीयता में रखते हुए आर्य विवाह हेतु पाँच विधियाँ प्रतिपादित की।

क) अग्निप्रदक्षिणा,
ख) सप्तपदी लाजहोम,
ग) शिलारोहण,
घ) कन्यादान,
ङ्ग) गोत्रों का बचाव।

वशिष्ठ द्वारा क्षेत्रज पुत्र को दायभाग में द्वितीय स्थान दिए जाने का विचार रखा गया। विमर्श के बाद बोधायन के तृतीय स्थान पर क्षेत्रज हेतु दायभाग दिए जाने को संस्तुति की गई।

आपस्तम्ब द्वारा नियोग प्रथा पर आपत्ति की गई। गौतम द्वारा विधवा स्त्री को गुरु की आज्ञा से  देवर से ऋतुगमन की मर्यादा स्थापित की। देवर के अभाव में सपिण्ड, सगोत्र,समान प्रवर, स्वर्ण पुरुष से स्वीकार किया गया व दो बच्चों तक नियत किया गया।(ऋतुगम्य पुरुष का संतान पर अधिकार नहीं होता था।)

इसके अलावा किसी भी परिस्थिति में कर्मकांडीय विवाह होने तक कन्या माने जाने पर संस्तुति की गई (ताकि वस्तु समान स्त्री उपयोग करने के कारण सामाजिक ढांचे पर नकारात्मक प्रभाव न आए) एवम इन्हें भी भिन्न नाम दिए गए। मर्यादित पुरुष के प्रकार इस सभा में नहीं रखे गए किन्तु वशिष्ठ द्वारा छः प्रकार की कन्याएं घोषित की गई-

1.अक्षत अविवाहिता
2.क्षत अविवाहिता
3.अक्षत विवाहिता
4.साधारण स्त्री
5.विशिष्ट स्त्री
6.मुक्तभोगिनी

गौतम द्वारा पति के एकाएक बाहर देश जाने पर छः वर्ष प्रतीक्षा कर स्त्री को पुनर्विवाह किए जाने हेतु सहमति दी किन्तु पति के विद्या अध्धयन की स्थिति में ये अवधि बारह वर्षों तक मानी गयी।
कात्यायन द्वारा नपुंसक या पतित पति की स्त्री के दूसरे विवाह से उत्पन्न पुत्र (पौनर्भव) को प्रथम पति के दाय से भोजन वस्त्र के अधिकार दिए गए। वशिष्ठ द्वारा पुनर्भवा स्त्री व पौनर्भव स्त्री के मापदंड रखे गए। हारीत (औरस,क्षेत्रज,पौनर्भव,कानीन, पुत्रिकपुत्र और गूढज) को क्रम से दायभागी माना गया।

इस प्रकार भरे पुरुष समाज के स्त्रीविहीन दरबार में स्त्री के लिए नियम बनाए गए और स्त्रियों ने इसे स्वीकार कर कई युग पर कर लिए। 

जब भी नई परंपराओं व नियमों को समाज के ऊपर थोपा जाता है तो अधिकतर ये स्वीकार्य नहीं होता। लेकिन भारतीय स्तर पर धर्म के अतिरेक ने इसे कुछ स्वीकार्य बना दिया क्योंकि स्त्री को देवी बना शोषण करने वाले ऋषि मुनि साक्षात ईश्वर का पर्याय माने जाते थे। वेदों में भारद्वाज,विश्वामित्र, कश्यप,अगस्त्य जैसे कई ऋषियों का उल्लेख मिलता है, जो हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में स्वर्ग के राजा इंद्र एवं अप्सराओं के साथ सीधे संपर्क करते दिखते रहे हैं। आज इक्कीसवीं सदी में भी साधारण जनमानस में धर्म की अंधता के द्वारा सब कुछ स्वीकार कराया जा सकता है। 

विश्व के विभिन्न स्थानों पर धर्म का उद्देश्य तत्कालीन परिस्थितियों में जीवन शैली के नियम बनाने से प्रारंभ हुआ। वेद, बाइबिल, क़ुरआन मेरे नज़रिए से दैवीय/आसमानी किताबें नहीं हैं...किसी मनुष्य के द्वारा इनको धर्म के आवरण में संभवतः इसलिए जड़ा गया होगा ताकि लोगों के मन में भय उत्पन्न हो व वह सही आचरण कर सके, उस समय लोगों ने ये सही मार्ग समझा होगा किन्तु आज वैज्ञानिक युग की दैवीय सोच में ऐसे प्रयोग प्रासंगिक नहीं हो सकते । यह आरंभिक ग्रंथ साधन व साध्य दोनों की पवित्रता का प्रतीक है। इन ग्रंथों में मानववादी दृष्टिकोण कमोबेश एक सा है... किंतु धीरे धीरे धर्म के अंध प्रचारकों द्वारा द्वेष, भेदभाव के इतने खाके खींच डाले कि आज करोड़ो लोग इसका शिकार हो गए हैं। जिसका सबसे ज़्यादा दर्द स्त्रियों ने बर्दाश्त किया है।

● सीमा बंगवाल 
                                               क्रमशः   .......

9 comments:

  1. मातृसत्तात्मक युग के पतन के पश्चात स्त्री को अपने अधीन कर उस पर अपना स्वामित्व आरोपित करने हेतु पुरुष द्वारा अनेक षडयंत्र रचे गए । विवाह भी उनमें से एक है । पृथ्वी पर बीज बोकर उसका स्वामी बनने के क्रम में स्त्री के भीतर बीज बोकर उसका स्वामी बन जाना भी एक तरह से स्त्री को दासता की बेड़ियों में जकड़ देना ही था । आधुनिक परिप्रेक्ष्य में यदि हम देखें तो कार्ल मार्क्स ने वर्तमान सामाजिक स्थितियों में आर्थिक आधार पर समाज की व्याख्या करते हुए विवाह और उत्तराधिकार के संबंधों पर विस्तार से लिखा है
    आपने विस्तार से इस षड्यंत्र के तत्कालीन धार्मिक पक्ष पर प्रकाश डाला है । हमारे पौराणिक ग्रंथों से लेकर तत्कालीन अनेक ग्रंथों में इसके प्रमाण मिलते हैं । इस लेख के अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी ।

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    1. शुक्रिया शरद जी💐

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  2. विवाह संबंधित सभी जानकारियां अद्भुत है ,आपका हार्दिक आभार ,मैं जैसे जैसे पढ़ती जा रही थी ,मुझे नई नई बातें पता लगी ,बहुत बहुत धन्यवाद आपका ,

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  3. विवाह विषय पर गहराई से लिखा लेख । सीमा जी बड़ी मेहनत से और शोध के साथ लिखती हैं ।

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  4. कॉलेज में सोशियोलॉजी विषय में विवाह और उससे जुड़ी मान्यताएँ पढी थी. परन्तु इतना विस्तृत विश्लेषण नहीं पढ़ा था.
    दूसरा पार्ट पढने को मिला. वहाँ क्रमशः देखकर इसे ढूँढ कर पढी. बहुत गहन अध्ययन और विश्लेषण. तथ्यपरक आलेख के लिए बधाई आपको.

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  5. शुक्रिया ... आपका। अच्छे लेख को उत्कृष्ट पाठक की ज़रूरत होती है।

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  6. विवाह और उत्तराधिकार के संबंधों पर गहराई से लिखा है

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