Tuesday 19 May 2020

भारत भ्रमण......ऐतिहासिक सफ़र के साथ।



  यही शीर्षक उपयुक्त लगता है। हालाँकि शीर्षक का अपना एक महत्व होता है। मैंने भ्रमण पूर्व में भी किये। जब पंतनगर से हम सारे बैच के लोग मुंबई, रत्नागिरी, मंगलुरु, केरल, तमिलनाडु गये थे। उस समय की भी अपनी यादें थी, जो मेरी डायरी के पन्नों में कहीं दबी सी हैं। उस समय सोशल मीडिया भी नही था और प्रोजेक्ट रिपोर्ट जैसे कृत्यों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता था। वहाँ की पढ़ाई ही अपने आप में इतनी महत्वपूर्ण थी कि सुबह से शाम हो जाती थी और कक्षाओं के दौर खत्म नहीं होता था। आज व्यक्ति सोशल मीडिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में स्वतंत्र है । वो कहते हैं न....ज़माना बदलते देर नहीं लगती....
                           
             जीवन में कई अनुभव अनायास ही हो जाते हैं। अनुभवों से व्यक्ति सीखता चला जाता है। मैं भ्रमण अनुभवों के हृदय स्पंदन आपसे साझा करना चाहती हूँ।आशा करती हूँ कि आपको पसंद आएं....
             

 1. कानपुर..1857..कंपनी बाग़..और वो बूढ़ा बरगद....बड़ा मॉल .....मेस्टन रोड.....और आखिर में ठग्गू के लड्डू तक का सफर......


             RBI से लौटते हुए कंपनी बाग़ देखा। लोगों के लिए कुछ खास नहीं था, सब लोग घूम रहे थे, लेकिन वो बूढ़ा बरगद खड़ा था .....बूढ़े बरगद की ही संतति है ये पेड़, जिसने खून की नदियां देखी, नृशंस हाथों को खून से सनते देखा । वो सिर्फ रोता रहा। आज भी शायद सिसकियाँ लेता दिखाई दिया।1857 में मेरठ में विद्रोह की आग सुलगते सुलगते कानपुर तक पहुंच गई। आज़ादी का मतलब पता हो या न हो, अंग्रेज़ों के अत्याचार पर एक चेतना तो विकसित हो ही गयी थी और इस चेतना के प्रस्फुटन से तो ईस्ट इंडिया शासन घुटनों पर आ गिरा था और इसी मजबूत चेतना से घबराकर अंग्रेजों ने कानपुर छोड़ने का फैसला लिया। 27 जून 1857 में अंग्रेज अफसर और उनके परिवार सतीचौरा घाट से नाव से होकर इलाहाबाद के लिए रवाना हो रहे थे। तात्या टोपे, बाजीराव पेशवा के साथ अन्य लोगों का जमावड़ा भी वहां था..
।नानाराव पेशवा करीब दो किलोमीटर दूर थे। सकपकाए अंग्रेजों ने गलतफहमी में कुछ गोलियां चला दीं। भारतीय थे न...सो उनका अधिकार था ये और गोलियां क्रांतिकारियों को लग गई। इसके बाद क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। काफ़ी अंग्रेज मारे गए।क्रांतिकारी अंग्रेज अफसर और सैनिकों को मौत के घाट उतारने के बाद महिलाओं की तरफ बढ़े । महिलाओं की स्थिति तो हर काल मे बुरी ही रहीं। मुझे वो अंग्रेज़ो से ज्यादा 'महिलाएं' लगी । असहाय ....खैर जब क्रांतिकारियों की भीड़ उन महिलाओं की और बढ़ी तो नानाराव पेशवा ने उन्हें रोक कर अंग्रेज महिला-बच्चों को बंदी बनाकर सुरक्षित बीबीघर (वर्तमान में नानाराव पार्क और तत्कालीन कंपनी बाग) भेज दिया।
                  बीबीघर एक अंग्रेजी अफसर का बंगला था। यहां बंदी अंग्रेज महिला-बच्चों की जिम्मेदारी हुसैनी खानम नाम की महिला को दी गई। कहा जाता है कि जुलाई में अंग्रेज सेना फिर कानपुर में प्रवेश कर गई और फिर वही खून का खेल खेलने लगे। कहीं तो लावा फूटना ही था। कहा जाता है कि इसकी हुसैनी खानम ने 16-17 जुलाई की आधी रात को गंगू, इतवरिया और एक जल्लाद को बुलाकर लगभग 125 बंदी अंग्रेज़ महिला-बच्चों की हत्या करवा दी और लाशें पास के कुएं में फेंकवा दीं। उस कुएं को पाट दिया गया, जहां नानाराव पार्क की स्केटिंग है । फिर ये कानपुर सुलगता रहा और इस आग की लपटों में कितने ही निर्दोषों को मारा गया। बूढ़े बरगद पर भी इसी गुस्से में अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी पर लटका दिया। 1857 से पहले भारत सर सैयद अहमद खान की उस पंक्ति में बसा था, जिसमें लिखा था " हिन्दू व मुसलमान नववधू की दो आँखें हैं , जो एक साथ हँसती हैं और एक साथ रोती हैं।"इस घटना के बाद अंग्रेजों ने भारत के अंदर खाई पैदा कर दी और 'हम'...जो आज भी सभ्य नही कहलाते, उस समय अंग्रेजों की योजना को सफल बनाते हुए बर्बरता की सीमाएं लांघ गए और आज़ादी के बाद भी अपनों में द्वेष बना रहा। चाहे 1947 के दंगे हों या फिर 2002 के गुजरात की हिंसा।चलो इस पेड़ के सामने खड़े होकर हम अपना इतिहास तो समझ ही सकते हैं। मैंने मिट्टी में ख़ाक हुए लोगों की ज़मीन पर बनाये इस कंपनी बाग़ में चमगदाड़ो को उड़ते देखा और बच्चों को खेलते हुए देखा.....कुछ सफ़ेद टोपियों में थे और कुछ तिलक लगाए थे। ये बचपन सबसे हसीन लम्हा है जो सिर्फ भाईचारा समझता है...बूढ़े बरगद को कम से कम इनको देखकर संतोष होता होगा.....
                 कानपुर बड़ा गर्म सा है, यूँ तो अगस्त की शुरुवात है, पर गर्मी का अपना कहर है। गूगल पर खोजनेपर कई स्थान नज़र आ जाएंगे। मैं जहाँ जहाँ गयी, वहीं का वर्णन लिख रही हूँ...कानपुर के गोल चौक के पास एक बड़ा...और खूबसूरत सा मॉल है.... जेड स्क्वायर। मॉल को फूल, बेलोें जैसी वस्तुओं से काफी मेहनत से सजाया गया था....वहाँ से बाहर कुछ दूरी पर मेस्टन रोड थी। पैर आराम तो चाहते थे किंतु कुछ साथी पैदल चलने के शौकीन थे तो मैंने भी चमड़े के सामानों की दुकानें देखी । चमड़े के बारे में भी एक इतिहास है।
                           चमड़े की वस्तुओं के लिए प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका कानपुर आज भारत के प्रदूषित स्थानों में से एक है....कानपुर का लंबा इतिहास है । 1773 में जाजमऊ की संधि के पश्चात कानपुर का सम्बन्ध ब्रिटिश राज से स्थापित हुआ। इसके बाद अंग्रेजों ने 24 मार्च 1803 को कानपुर जिला घोषित कर विश्व मानचित्र पर ला खड़ा किया। अमेरिकी गृहयुद्ध (1861-1865) के दौरान कानपुर का प्रादुर्भाव उत्तर भारत में औद्योगिक नगर के रूप में हुआ। जिसके तहत सबसे पहले यहां पर अंग्रेजों ने चमड़ा के उत्पाद बनाने के लिए फैक्ट्री खोली। इसके बाद सूती मिलें सरकारी व निजी क्षेत्र की बहुतायत में खुली। जिनमें लाल इमली, म्योर मिल, एल्गिन मिल, कानपुर कॉटन मिल और अथर्टन मिल काफी प्रसिद्ध हुईं। जिससे यह शहर मैनचेस्टर ऑफ द ईस्ट के रूप में विश्व में विख्यात हो गया। गंगा के किनारे बसे इस शहर को अंग्रेजों ने औद्योगिक हब बनाने का सिलसिला शुरू किया और  1863 में चमड़ा सिझाने के लिए एक सरकारी फैक्ट्री की स्थापना का प्रस्ताव किया गया। फिर बाद में अश्वसेना से संबंधित चमड़े का साजोसामन बनने लगे, जिसके बाद से अतिथि तक कानपुर के चमड़ा उद्योग ने देश ही नहीं विदेशों में भी अपनी धूम मचा दी। हमने कपास से कपड़े तक का सफर देखा था अंग्रेज़ो के राज में....चमड़े का भी सफर कुछ ऐसे ही था। यूरोपियन देशों में चमड़े के कितने उद्योग होंगें , ये तो नहीं जानती किन्तु भारत को दूषित करने में भी अंग्रेज़ पीछे नही रहे। हमारी गंगा में शुद्धिकरण हेतु बक्टेरियोफेज वायरस भी मरणासन्न हो गए और धार्मिक व जीवनदायिनी गंगाऔद्योगिकरण के कचरे के कारण आचमन योग्य भी न रही और उसे बाद आर ओ जैसे यंत्रों की बाढ़ आ गयी। इतना ही नहीं , अब तो हालात और भी बदतर हो चले, कई कई घर चमड़ा उद्योग के कारण चल रहे हैं। बात करने पर पता चला कि कुछ जनसँख्या महंगा मांस नही खरीद पाती तो यही मांस खाने के काम आ जाता है। कानपुर में चमड़े का कारोबार लगभग 20 हजार करोड़ रूपये का होता है। इनमें पांच हजार करोड़ रूपये का चमड़े का निर्यात होता है और 15 हजार करोड़ का घरेलू व्यापार होता है। इसके अलावा यह उद्योग सात लाख लोगों को रोजगार भी प्रदान कर रहा है।सोंचती हूँ ऐसे हालात भारत जैसे देशों में ही बनाये जा सकते हैं। विगत कुछ वर्षों से यहां का प्रसिद्ध चमड़ा उद्योग धीरे-धीरे दम तोड़ने लगा। लेकिन अब उत्तर प्रदेश की सरकार ने एक जिला एक उत्पाद योजना शुरू करने जा रही है। इस योजना के तहत कानपुर को चमड़ा उद्योग के लिए चिन्हित किया गया है.......पर मेरे दिमाग़ को दूर तक " समाधान " नही दिखा।
          मेस्टन रोड से बाहर आकर कुछ ही दूरी पर ठग्गू की दुकान थी...जी हाँ ठग्गू की दुकान । देखिए ठग खुलेआम दुकानों में भी रहते हैं। दुकान का शीर्षक था "ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हम ठगा नहीं।" कुल्फी पर भी कुछ स्लोगन उस छोटी सी दुकान में थे....पर वाक़ई लड्डू और कुल्फ़ी का ऐसा बेहतरीन स्वाद कहीं नहीं आ सकता। सचमुच ठग लिया अपने स्वाद से।

क्रमशः........

9 comments:

  1. बहुत अच्छा यात्रा वृतांत है ।

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    1. शुक्रिया....प्रथम कमेंट के लिए।💐

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  2. आप कानपुर होकर चली गई और हम तो यहीं रहते है। अगली बार बगैर मुलाकात नहीं जाना है ।

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    1. ज़रूर...मुलाकात होगी।

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  3. बहुत ही उम्दा लिखती है

    https://yourszindgi.blogspot.com/2020/04/blog-post_29.html?m=0

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  4. यात्राएँ करने के बहुत बहुत दिनों बाद जब हम उन यात्राओं का वृतांत लिखते हैं तो एक बार फिर उन यात्राओं को जिया जाता है लेकिन इस बार वे यात्राएँ भीतर से भीतर की ओर होती हैं . जाने कितने क्षणों को हम दुबारा जीते हैं ..जाने कौनसी धुन मन के पुराने हो चले पेड़ की किसी डाल पर आ बैठती है और हम उसके साथ गुनगुनाने लगते हैं यादों को .. यह बहुत ज़रूरी है . तुमने इन शब्दों में केवल उन यात्राओं को ही नहीं बल्कि अपने उन पुराने दिनों को फिर से जिया है जिन दिनों आसमान में उड़ने को जी चाहता था .. यह इच्छाएं बनी रहें
    कानपुर से मेरी भी बहुत सी यादें जुडी हैं बचपन की और माँ के ननिहाल की ..

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  5. थोड़े फॉण्ट बड़े कीजिये ..इनमे पढने में दिक्कत होती है

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    1. अभी सीख रही हूँ....कोशिश करती हूँ।

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