बंगलुरू के पैलेस के द्वार पर कर्ण ढापन एक स्वचालित यंत्र पकड़ कर मैं महल के हर एक खंड पर छपी बिंदु संख्या के नम्बर को दबाते हुए सुनते हुए आगे बढ़ती रही। लगभग 1 से 22 बिंदुओं पर मैंनेे जानकारियां हासिल की। उसमें एक जगह पर कहा गया कि... 'कृष्णराज वाडियार द्वितीय के काल में हैदर अली ने उनके नाम से शासन किया तदोपरांत टीपू ने स्वयं के नाम से सत्ता संभाली।'
मुझे कहीं महसूस नहीं हुआ कि हिन्दू या मुस्लिम जैसी कोई विरोधात्मकता मेरे समक्ष आयी हो। स्थानिक लोग भी वाडियार या टीपू सुल्तान के गौरव को उल्लिखित करते हैं। मुझे ये एकता दिखाई दी और यहाँ पर इंसानियत जीतती हुई प्रतीत हुई। अंग्रेजों ने भारत के साथ क्या किया? उसके परिणाम सार्थक थे या नहीं।अभी ये परिचर्चा का विषय नहीं। हम इतिहास पढ़ते हैं...क्यों? ताकि हम परिवर्तन देख पाएँ और भविष्य को उसकी प्रेरणा लेकर उन्नति की और अग्रसर हों। पर मुझे बड़ा अफसोस होता है कि भारतीय समाज अपने ही घर में बंटा हुआ सा दिखता है...और जो बाँट कर गए उनके प्रति तो कोई सोंच ही स्थापित नहीं हो पाती। खैर, मैं फिर से वाडियार पैलेस से कहाँ चली गयी..वापिस आती हूँ, उन आलीशान आलियों की नक्काशियों पर जो दीवारों, छतों और ज़मीन के रंगीन पत्थरों की सजावट से मुस्कुराती हुई इतराती थी। वो बड़ी नायाब पेंटिंग्स जो आज भी दीवारों पर उस कलाकार के हाथों की तारीफ करते नहीं थकती थी। वो कई कमरे , जिसमें शाही परिवार रहते थे। वो सुनसान रनिवास, जो पर्दा प्रथा के कारण महल के सबसे अंदर के हिस्से में अवस्थित था, उसमें साजो सामान व मनभावन आईने आज भी अपनी रानियों का मुख देखने को तरसते दिखे। वो खूबसूरत सी कुर्सियाँ आज भी स्वागत तत्पर दिखी। इतने वर्षों के बाद भी वो वाडियार पैलेस दर्शकों से लबरेज़ है। वाडियार शासक अंग्रेजों की कृपा पर रहे और शानोशौकत शीर्ष तक पहुँच गयी । वाडियार खानदान की पीढ़ियाँ फ़ोटो फ्रेमों में सजकर अपने स्वर्णिम काल को दर्शाती रही। आँखे थकने लगी किन्तु दीवार अभी भी बहुत कुछ दिखाने को तत्पर दिखी।
बंगलुरू शहर में ही मैंने टीपू का ग्रीष्मकालीन महल देखा। 11 वर्ष तक ये उसका ग्रीष्मकालीन आवास रहा। वो लकड़ी का बना हुआ था..साधारण सा, जिसमे टीपू के कुछ चित्र बने थे। कुछेक चित्रों से अंग्रेजों के प्रति उसका बैर परिलक्षित होता था लेकिन महसूस किया कि उस आँगन में कितने सैनिक रहते होंगे, वो छोटा सा महल कितनी आवाज़ों से गूँजता होगा..यह सोंचते हुए सोपान से नीचे उतरते हुए रेलिंग के हिलने को महसूस किया।
वाडियार और सुल्तान ने बंगलुरू को एक पहचान दी। आज मैसूर, श्रीरंगपट्टनम , बंगलुरू इतिहास दिखाते हैं ..लेकिन इतिहास की सफलता इसी में है कि हम क्या देखते हैं?
इतिहास को पुनर्जीवित करती पोस्ट
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteनयी जानकारी ।
ReplyDeleteशुक्रिया💐
Deleteअहा खूबसूरत चित्रों और जानकारियों से सजी हुई मोहक पोस्ट सीमा जी। इसी तरह से लिखते जाइये हम पढ़ रहे हैं आपको
ReplyDeleteशुक्रिया...अजय जी।
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