Wednesday 27 May 2020

आदिकाल से कोरोनाकाल तक उत्परिवर्तन के आयाम



आहार, निद्रा, भय (प्रतिवर्ती क्रियाएं) व मैथुन/परागण सजीव की नैसर्गिक प्रवृतियां हैं। मनुष्य उत्पत्ति के उपरांत सर्वप्रथम अनुभव के आधार पर खाद्य व अखाद्य आहार को वर्गीकृत किया गया। उसने अपनी दृष्टि अनुभवों से पशु को पशु का वध कर आहार बनते देखा होगा फिर उसकी बुद्धि ने मछली, छोटे जीवों से बड़े जीवों का शिकार कर आहार बनाया होगा। उस समय मांसाहार को चुनने व खाने में धार्मिक आधार नहीं था। संभवतः जिस जानवर की उपलब्धता अधिक या कम रही वह जानवर उस कबीले / मनुष्य का 'टोटेम'(गणचिह्न) बन गया होगा।



विश्व के सारे धर्मों से पूर्व आदिवासी संस्कृति व्याप्त थी जिसमें 'टोटेम' की अवधारणा थी जो धीरे धीरे सभ्यताओं व संस्कृतियों में समाती चली गयी। ये स्मृति चिह्नों के रूप में मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की सभ्यता में मुहरों, कलाकृतियों आदि के रूप अभिसारित हुई...मिस्र व मेसोपोटामिया के साथ ग्रीक व चीन सभ्यताओं में भी ऐसी समानता देखी गयी।

कालांतर में 'टोटेम' को विभिन्न धर्मों में कुलदेवता का दर्जा मिल गया। इसी प्रकार आदिवासियों में वृक्षों की उपयोगिता के आधार पर पीपल, बरगद, महुआ आदि को कुलवृक्ष का दर्जा मिला और वो कई आगामी कई  परंपराओं में पूजनीय हो गए।



धर्मों के स्थापन के उपरांत ये 'टोटेम' धर्म के अंदर समाहित किए गए। अधिकतर गणचिह्नों को सनातनी धर्म में भी पूजनीय माना गया है। सर्प नाग जाति का गण चिह्न था। अफ्रीका व युगांडा आदि देशों  में भी सर्प से कटवाकर न्याय किए जाने के उल्लेख मिलते हैं। इसी प्रकार मछली के रूप भी पूजनीय हुए। विष्णु का मत्स्य अवतार हो या फिर बंगाल में मछली की पवित्रता।
 मछली के सेवन को बंगाल व गोवा के ब्राह्मण परिवार शाकाहार मानते हैं। वैदिक काल की बात करें तो उस काल में बड़े दुधारू जानवरों को खाना वर्जित नहीं था। 

विश्व के विभिन्न भागों में उपलब्ध खाद्य के आधार पर जीवन शैलियां विभाजित हैं। फ्रांस जैसे देश में लगभग 1400 प्रकार के कीट खाए जाते हैं। विभिन्न धर्मों में बलि को भी मान्यतायें प्राप्त हैं कहीं वास्तविक व कहीं सांकेतिक। मक्का मदीना में ऊँट एवं ठण्डे प्रदेशों में याक आदि की बलि दी जाती है। वर्तमान में बलि हेतु मुर्गा, बकरा, भैंस आदि के साथ सांकेतिक रूप में नारियल, कद्दू के भी प्रमाण मिलते हैं। 
 

धरती बनने के बाद जीव जंतु व पेड़-पौधे कई प्रकार से प्रभावित हुए। 1984 में भोपाल गैस काण्ड में मनुष्यों के साथ ज़हरीली गैस मिथाइल आइसो साइनाइट से आस- पास के पौधे भी झुलस गए। हिरोशिमा व नागासाकी में मनुष्य, जानवर व पौधों में जेनेटिक उत्परिवर्तन(म्युटेशन) हुए। पृथ्वी पर ऐसे उत्परिवर्तन  चिरकाल से हो रहे हैं । यद्यपि अधिकाधिक कारणों के पीछे मानवजन्य विकास व कुंठाएँ है किंतु प्रकृति जन्य कारण को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।  

 ये पृथ्वी अनंत में सूर्य की परिक्रमा की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर घूर्णन कर रही है....सूर्य भी अनंत में स्थिर नहीं है वह भी जाने कितने दूरस्थ पिण्डों का चक्र पूर्ण करता होगा। पृथ्वी  जाने कितने अनंत में अपनी अवस्था से गुजरती होगी। पृथ्वी पर अमेज़ॉन और अफ्रीका के घने जंगल ग्लोबल वार्मिग को नहीं रोक पा रहे हैं .... अभी तक प्रकृति और मानव ने मिलकर ओज़ोन पर कितना कहर बरपाया है। प्रकृति तो सभ्यताओं को लीलकर दोबारा विकसित होने में सक्षम है किंतु मानव दोबारा विकसित नहीं हो सकता। 


मैंने 1945 के फेटमैन व लिटिल बॉय का कहर महसूस नहीं किया, साठ के दशक का अकाल नहीं देखा, भुखमरी नहीं देखी... गाँधी के समय प्लेग की महामारी भी नहीं लेकिन मैनें अभाव देखे, नफ़रतें देखी, अपमान देखे, ईर्ष्या देखी.....एंथ्रेक्स का खौफ़ दूर से जाना किन्तु आज कोरोना की वजह से प्रथम बार मृत्यु का भय व मानवता का अंत महसूस किया जो धर्म ,जाति, लिंग आदि किसी आधार पर विभेद नहीं करता। एक मामूली सा वायरस पूरे जगत को खत्म करने की क्षमता रखता है।  काफी इंसान मौत की नींद सो गए ओर काफी लोग मृत्यु की दहलीज़ पर खड़े हैं। हम लोग सैनिटाइजर व साफ सफाई पर केंद्रित हैं किंतु हम त्रासदियों से नहीं सीखते । कोरोना सबके प्रति समान व्यवहार रखता है ये तो उसका विशेष गुण है उसकी महानता है जो इंसान शायद ही सीखे । मरने व मारने के तो बहुत सारे तरीके हैं। हम लोग जो इस दुनिया मे शेष बचेंगे वो फिर इंसानों को बांटेंगे, नफ़रतों को पालेंगे। धरती की उर्वरता कब तक रहेगी? अपनी ही पृथ्वी से खनिज, तेल, अन्न सब कुछ तो छीन कर मैला करते रहे । 'हम लोग'....आसमान में इंसानी घुसपैठ से कितने वैज्ञानिक कचरे फैल गए । इन सभी विभिन्न मुद्दों के लिए इंसान होना ज़रूरी है।

   कोरोना से बचना व वैक्सीन बनाना एक अलग बात है किन्तु धरती की लहलहाती फसलें उर्वरकों के कारण कुछ क्षेत्रों तक सीमित हो गयी हैं और जनसंख्या आधिक्य वाले देश मांसाहार की और उन्मुख हुए हैं। कोरोना के कारण मांस मुफ़्त बंटने की कगार तक आ गए। मुर्गों के समस्त परिवार बेफिक्र हो सर उठा चलने लगे और हम लोग मास्क लगा घर में मृत्यु के भय को जीने को मजबूर...


मांसाहार कोई धार्मिक विरोध का कारण नहीं हो सकता...चुने हुए जानवरों के मांस खाना भी कोई आदर्श नहीं।  हम आपकी तरह जानवरों के शरीर के मांस में विभिन्न बीमारियां उत्पन्न हुई व मृत्यु का कारण बनी। मर्स , स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियों से भी हम बच गए किन्तु अब ये चिंतन का विषय है कि कितने काल से उत्परिवर्तन को अपनी कोशिकाओं में ढोते हुए जानवर के मांस बीमारी के वाहक तो नहीं या फिर हमारे शरीर मे किसी प्रकार के वायरस के प्रति एंटीबाडी बनाने में सक्षम तो नहीं हो रहे। हालाँकि शाक वर्ग में भी गुच्छी व मशरूम के अतिरिक्त कई प्रकार हैं जो कई उत्परिवर्तन के बाद आज ज़हरीले हैं। विडंबना है कि हम शाकाहार के प्रति तो इतने सजग हैं किंतु मांसाहार सिर्फ स्वाद व धार्मिक कवच के लिए करते हैं। 


ज़रूरत इस बात की है कि अपनी सोंच में इंसानियत को महत्व दे। हिन्दू व मुस्लिम लोग भविष्य के लिए अपना अच्छा इतिहास बनाए। हम सभी 'म्युटेटेड' लोग सब मिलकर म्युटेटेड मांस व म्युटेटेड शाक को खाने पर चिंतन करें। धरती को उर्वर और आसमान को फिर से साफ बनाए जाने की दिशा में प्रयत्नशील हो।

● सीमा बंगवाल

1 comment:

  1. बहुत चिंतनशील लेख । बधाई सीमा जी ।

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